पोर्न- शाब्दिक अर्थों में देखें तो इसके तीन पहलू हैं। एक तो यह नैतिक बहस कि पोर्न देखना चाहिए या नहीं। यह बहस भारत में ही नहीं, हर देश में हो रही है। दूसरा पहलू है कि पोर्न के प्रोड्यूसर कौन हैं और वे ऐसा क्यों करते हैं। बहस का तीसरा पहलू है कि पोर्न इंडस्ट्री मानव तस्करी और महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध से किस हद तक जुड़ी है। तीनों पहलुओं पर अलग-अलग गौर करते हैं। पहला मुद्दा है कि लोगों को पोर्न देखना चाहिए या नहीं। इस नैतिक सवाल के बावजूद, कि किस तरह की विकृत मानसिकता वाले लोग पोर्न देखते हैं, एक बात सहज रूप से कही जा सकती है कि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों को अपनी इच्छा के अनुसार कुछ भी देखने का अधिकार होना चाहिए।
पोर्न के तथाकथित प्रोड्यूसर कहते हैं कि वे आर्ट फिल्में बनाते हैं, जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं। इनमें आर्ट जैसा तो कुछ नहीं होता, रोमांच जरूर होता है। यह लाइव सेक्स देखने जैसा है। नैतिक रूप से देखें तो पोर्न देखना या न देखना व्यक्तिगत निर्णय है। इस बहस के कई हिस्से हो सकते हैं। जैसे लोग कितना पोर्न देखते हैं, कितने लोग चोरी-छिपे ऐसा करते हैं, उन लोगों के व्यवहार और उनकी यौन प्राथमिकता (सामान्य सेक्स वाले या समलैंगिक) से पोर्न इंडस्ट्री कितनी जुड़ी हुई है। पोर्न की प्रकृति रोमांच की हो, लाइव स्ट्रीमिंग या कुछ और, इंटरनेट पर ऐसी सामग्री भरी पड़ी है। पोर्न या लाइव सेक्स समेत इंटरनेट पर कुछ भी देखने की आजादी व्यक्ति की अपनी है। लोकतांत्रिक देश में ऐसी नैतिक बहस से बचा जाना चाहिए। हमें इस बात को लोगों की पसंद-नापसंद पर छोड़ देना चाहिए।
दूसरा पहलू है कि पोर्न मानव तस्करी, महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध से किस हद तक जुड़ा है। भारत में जब बाल पोर्न पर प्रतिबंध लगा तब भी वही नैतिकता की बहस चली थी। लेकिन जब यह बात सामने आई कि दुनियाभर में बाल पोर्न इंडस्ट्री बच्चों के यौन शोषण से जुड़ी है, तब प्रतिबंध के सबसे कटु आलोचक भी चुप हो गए थे। इसी वजह से कानून को यौन कंटेंट देखने की लोगों की इच्छा से ऊपर रखा जाना चाहिए। अगर पोर्न साइट की आड़ में मानव तस्करी, एस्कॉर्ट सर्विस और महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा जैसी बातें हों तब इस इंडस्ट्री की आपराधिक प्रकृति पर बहस नहीं हो सकती। पोर्न देखकर किसी महिला या पुरुष को जो रोमांच का अनुभव होता है, यह अपराध उससे कहीं अधिक गंभीर है। भारत महिलाओं के खिलाफ सर्वाधिक यौन अपराध वाले देशों में है। इसलिए पोर्नोग्राफिक स्ट्रीमिंग सर्विस पर कड़ी नजर रखनी चाहिए। अगर महिलाओं को इनसे किसी तरह का नुकसान होता है तो उन पर पूरी तरह पाबंदी लगाई जानी चाहिए।
तीसरा पहलू बड़ा स्पष्ट है- पोर्न का प्रोड्यूसर कौन है। हर तरह के लोग पोर्न प्रोड्यूस करते हैं। हमने अभी देखा है कि किस तरह बॉलीवुड का एक मशहूर युगल विवादों में है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि दक्षिण पूर्व एशिया समेत दुनिया के किसी भी हिस्से में पोर्न सबसे ज्यादा कमाऊ इंडस्ट्री में एक है। भारतीय उपमहाद्वीप के इर्द-गिर्द ऐसे देश हैं जहां पोर्नोग्राफी कंटेंट बेरोकटोक दिखाए जाते हैं। जहां तक फिल्म बनाने की बात है तो बहुत से लोगों के लिए पोर्न बढ़िया बिजनेस है। पोर्न बनाने वालों से सवाल पूछने से पहले हमें इस बात की जांच करनी चाहिए कि उनके ऐसा करने से महिलाओं के खिलाफ अपराध तो नहीं बढ़ रहा। अगर ऐसा है तो उस पर पूरी तरह से रोक लगाई जानी चाहिए।
पोर्न या लाइव सेक्स समेत इंटरनेट पर कुछ भी देखने की आजादी व्यक्ति की अपनी है। लोकतांत्रिक देश में ऐसी नैतिक बहस से बचा जाना चाहिए
एक और बात है जिसे ज्यादातर लोग भूल जाते हैं। जिम्मेदाराना बिजनेस ने ही भारत को देश के रूप में जीवंत बना रखा है। ऐसे समय जब हम डिजिटल दुनिया में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, तब हम इस बात की अनदेखी नहीं कर सकते कि जिम्मेदाराना बिजनेस क्या है। क्या महिलाओं को महज एक वस्तु के रूप में दिखाया जाने वाला स्ट्रीमिंग जिम्मेदाराना बिजनेस है। हाल की एक घटना में कुछ महिलाओं के नाम यूट्यूब चैनल पर डाल दिए गए और कहा गया कि ये महिलाएं इतने रुपये में उपलब्ध हैं। हमें समझना होगा कि इस तरह की चीजें किस हद तक जा सकती हैं।
लोग कहते हैं कि पोर्न स्टार सेलिब्रिटी होते हैं। बिल्कुल होते हैं। मुझे उनके सेलिब्रिटी होने से कोई परेशानी नहीं। मुझे उन महिलाओं या पुरुषों से भी कोई परेशानी नहीं जो स्वेच्छा से आजीविका के लिए पोर्न को अपनाते हैं। मुझे नहीं लगता कि इसमें नैतिकता की कोई बहस है। अगर सहमति और स्वेच्छा से ऐसा हो रहा है, वह रोजगार का एक जरिया है और उसमें किसी तरह का अपराध शामिल नहीं है, तो उसकी आलोचना ठीक नहीं।
जहां तक भारत की बात है, तो हमारी संस्कृति को देखते हुए यह घटना चौंकाती है कि मुंबई फिल्म इंडस्ट्री का एक मशहूर प्रोड्यूसर इसमें शामिल है। इन लोगों के बिजनेस मॉडल की जांच करने की आवश्यकता है। पोर्न देखने या ना देखने का निर्णय व्यक्ति पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए। हम इस पर चाहे जितनी बहस कर लें, लोग देखेंगे ही। जांच करने वाली बात यह है कि इसकी आड़ में मानव तस्करी और महिलाओं के खिलाफ हिंसा तो नहीं हो रही।
प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जिस तेजी से बदलाव हो रहे हैं, उन्हें देखते हुए सरकार को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि महिलाओं और बच्चों के हित ऑनलाइन सुरक्षित रहें। टेक्नोलॉजी की गति हमेशा शासन की गति से अधिक होती है। डिजिटल दुनिया में होने वाला नुकसान सरकार की क्षमता पर भारी पड़ सकता है। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि सरकार टेक्नोलॉजी डिजाइन समेत सभी पक्षों के साथ सलाह-मशविरा करे। कल जब एल्गोरिदम हमारे ऊपर पूरी तरह हावी हो जाएंगे तब वे हमारी तरह भावनात्मक रूप से नहीं सोचेंगे। वे सिर्फ यह देखेंगे कि क्या बिक रहा है और क्या नहीं। इसलिए इससे पहले कि एल्गोरिदम हमारे जीवन को नियंत्रित करें, सरकार और टेक्नोलॉजी विकसित करने वालों के बीच गंभीर संवाद की जरूरत है।
(लेखिका अभिनेत्री, भाजपा की पूर्व राष्ट्रीय सचिव और सेंसर बोर्ड की सदस्य हैं, यहां व्यक्त विचार निजी हैं)