अजीब मंजर है, जो आज तक आजाद भारत में शायद ही दिखा है। बात नाम पर आ जाए तो समझिए क्या बचा। कई बार तो लगता है कि होली की हुड़दंग मची हुई है। 28 पार्टियों के गठबंधन ने आइएनडीआइए (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव एलायंस) या ‘इंडिया’ नाम रख लिया तो जी20 का आमंत्रण ‘राष्ट्रपति ऑफ भारत’ की ओर से आया। संभव है, वजह यही न हो, लेकिन ‘इंडिया’ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हमलावर रवैये और सोशल मीडिया में इंडिया को गुलामी का प्रतीक बताने की मुहिम ऐसा ही आभास देती लगती है। अलबत्ता, ऐसा सरकारी पत्र जारी होने के पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि भारत नाम का ही प्रयोग होना चाहिए। विपक्ष कयास लगा रहा है कि यह संविधान बदलने की पूर्व-पीठिका तैयार की जा रही है। तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी, आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल जैसे कई नेताओं ने प्रतिक्रिया में कहा कि विपक्षी गठबंधन अपना नाम भारत रख ले तो वे क्या करेंगे। यहां यह याद कर लेना मुनासिब होगा कि 1967, 1977, 1989 में विपक्षी पार्टियों का बड़ा गठजोड़ तीखी लड़ाई में सत्तापक्ष को चुनौती दे चुका है, लेकिन कभी राजनीति का स्तर देश के नाम पर नहीं आया था।
नाम प्रकरण से इतना तो साबित होता ही है कि अगला लोकसभा चुनाव सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए करो या मरो जैसी स्थिति है। हालांकि 2014 और 2019 के संसदीय चुनावों से फर्क यह है कि उनमें प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा एजेंडा तय करती रही है और विपक्ष प्रतिक्रिया करता दिखता था। इस बार ठीक उलटा हो रहा है। यह पटना में कांग्रेस, जदयू, राजद, तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव ठाकरे), राकांपा, समाजवादी पार्टी सहित 15 पार्टियों की पहली बैठक के बाद ही दिखने लगा था। बेंगलूरू में दूसरी बैठक के दौरान तो यह खुलकर दिखने लगा। बेंगलूरू में 26 पार्टियां जुट गईं और नाम ‘इंडिया’ रख लिया गया तो उसी दिन 2014 के बाद शायद पहली दफा एनडीए की बैठक बुला ली गई, जिसमें 38 पार्टियां जुट गईं। एनडीए के इस गठजोड़ में भाजपा ही इकलौती बड़ी पार्टी है जबकि इंडिया में कई राज्यों में खासा असर रखने वाली बड़ी पार्टियां हैं। उसी के बाद भाजपा की ओर से इंडिया नाम को लेकर अजीब-अजीब प्रतिक्रियाओं का सिलसिला शुरू हो गया।
इंडिया की मुंबई में तीसरी बैठक के बाद घटनाक्रम बहुत तेजी से बदला। 31 अगस्त को बैठक के दिन ही संसद का 18-22 सितंबर तक पांच दिनों का विशेष सत्र बुला लिया गया, जिसकी सूचना पहली बार माइक्रोब्लॉगिंग साइट एक्स पर मिली। कायदा यह है कि कैबिनेट के प्रस्ताव के नोटिफिकेशन राष्ट्रपति जारी करते हैं। इसी के साथ ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की खबर भी तैरने लगी। उधर, इंडिया गठबंधन ने चुनाव की तैयारी में जुटने और सीट बंटवारे की प्रक्रिया तेज करने का सिलसिला शुरू किया। बैठक में समन्वय समिति के अलावा चुनाव रणनीति, कार्यक्रम, सोशल मीडिया रणनीति, मीडिया रणनीति की चार कमेटियां बना लीं। समन्वय समिति में कई बड़े नेता तो कई दूसरी पांत के नेता हैं। यह भी तय हुआ कि 2 अक्टूबर से साझा रैलियां की जाएंगी, जिनमें भाजपा सरकार की नाकामियों वगैरह का जिक्र किया जाएगा।
बाइडन और मोदीः जी20 में नरेंद्र मोदी (दाएं) का परिचय 'भारत के प्रधानमंत्री' दिया गया था
सरकार ने ऐसी तेजी दिखाई, मानो चौंकाने की कोई बाजी चल रही है। एक देश, एक चुनाव पर विचार के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अगुआई में आठ सदस्यीय कमेटी का गठन कर दिया गया। यह भी अचरज भरा है कि पहली बार कोई पूर्व राष्ट्रपति सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगा। कमेटी में विपक्ष के एकमात्र नुमाइंदे लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीररंजन चौधरी को भी रखा गया था, लेकिन चौधरी ने उसे ठुकरा दिया। उनकी दलील थी, “कमेटी के निष्कर्ष पहले ही तय कर लिए गए हैं तो किस बात की समीक्षा की जाएगी। इसके अलावा राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को न शामिल कर उनका अपमान किया गया।” लेकिन क्या यह इतनी जल्दी संभव है कि अगले चुनाव एक साथ कराए जाएं? पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाइ. कुरैशी आउटलुक से कहते हैं, “कम से कम पांच संविधान संशोधन करने पड़ेंगे और आधे विधानसभाओं से अनुमोदन कराना पड़ेगा। फिर चुनाव आयोग को त्रिस्तरीय- लोकसभा, विधानसभा और पंचायत चुनाव कराने के लिए तीन गुना ईवीएम की दरकार होगी, जिसमें कई साल लगेंगे।” (देखें इंटरव्यू)। यही नहीं, सवाल यह भी कि इसके पहले दो विधि आयोग (1999 और 2015 ) विस्तृत रिपोर्ट सौंप चुके हैं, तो कमेटी भला करेगी क्या?
विशेष सत्र क्यों बुलाया गया है, इसकी जानकारी नहीं है। कार्यसूची के मुताबिक पांचों दिन सरकारी कामकाज का जिक्र है। कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे कहते हैं, “ऐसा कहीं होता है क्या?” शायद इसी वजह से कांग्रेस संसदीय दल की चेयरमैन सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर नौ एजेंडों पर चर्चा की मांग की है, जिनमें महंगाई, बेरोजगारी के अलावा अदाणी समूह के कथित भ्रष्टाचार भी है।
महिला आरक्षण विधेयक की चर्चा भी हवा में है, जिसके मुताबिक तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाएगी यानी कुल 543 सीटों के अलावा 133 सीटें महिलाओं के लिए निकाली जाएंगी। कयास यह भी है कि सरकार अनुदान मांगें पारित करवा कर लोकसभा भंग करने की पहल कर सकती है, ताकि पांच राज्यों के विधानसभा के साथ संसदीय चुनाव भी कराए जाएं।
इसी दौरान खोजी पत्रकारों के एक समूह द्वारा अदाणी से जुड़ी शेल कंपनियों के बारे में नए तथ्य फाइनांशियल टाइम्स और गार्जियन में छपे। इन हलचलों के अलावा इंडिया गठबंधन को सबसे मुश्किल शायद सीट बंटवारे में आ सकती है। इसकी एक विद्रोही आवाज पंजाब से उठ रही है (देखें बॉक्स)। जो भी हो चौकन्ना रहिए, अगले साल तक बहुत कुछ होने जा रहा है।