दूसरे और तीसरे दर्जे के शहरों में तेजी से बढ़ती इंटरनेट की पहुंच ने नई तरह की डिजिटल पहचान गढ़नी शुरू कर दी है। फिल्टर का चलन अवास्तविक सौंदर्य मानकों को जन्म दे रहा है। कंटेंट क्रिएटर और ब्यूटी इंफ्लुएंसर प्रद्युम्न कौशिक से आउटलुक के लिए राजीव नयन चतुर्वेदी ने इस मुद्दे पर खास बातचीत की। संपादित अंश:
फिल्टर के अतिशय इस्तेमाल का क्या असर हो रहा है?
सुंदर चेहरा सभी को अच्छा लगता है, लेकिन अच्छा दिखने का यह पागलपन अब बढ़ता जा रहा है। पहले जिज्ञासा थी कि यह कैसे काम करता है। लेकिन धीरे-धीरे हुआ यह कि लोगों को इसकी लत लग गई।
समय के साथ क्या बदलाव आया?
अब लोग रॉ यानी बिना हेरफेर के वास्तविक वीडियो ज्यादा पसंद कर रहे हैं। फिल्टर का इस्तेमाल हो भी रहा है, तो बहुत कम। मैंने भी अपने वीडियो में इसके इस्तेमाल को कम कर दिया है। हालांकि, कभी-कभी किसी वीडियो को सिनेमैटिक लुक देने के लिए फिल्टर इस्तेमाल कर लेता हूं, ताकि ऑडियो-विजुअल वाइब बना रहे।
कंटेंट और एंगेजमेंट पर इसका असर?
पहले फिल्टर काफी चलते थे, अब ऐसा नहीं है। अगर ज्यादा फिल्टर का इस्तेमाल, एंगेजमेंट यानी लोगों को बांधे रखने के समय को घटा देते हैं। जब मैं कोई फोटो या वीडियो बिना फिल्टर या हल्के टच-अप के साथ डालता हूं, तो लोग उस कंटेंट को पूरा देखते हैं।
फिल्टर ‘अपीयरेंस एंग्जायटी’ बढ़ाते हैं। यह खुद को अभिव्यक्त करना है या नकारना?
अपीयरेंस एंग्जायटी यानी आप कैसे दिख रहे हैं, इस बारे में ज्यादा सोचना या चिंता करना। मेरे हिसाब से फिल्टर आत्म अभिव्यक्ति का ही हिस्सा है। इससे आप अच्छे दिखते हैं और आपको संतुष्टि भी मिलती है। लेकिन इस बात पर गौर करना जरूरी है कि अगर आप पूरी तरह से फिल्टर पर निर्भर होने लगे हैं, तो सावधान हो जाएं। यह ठीक नहीं है। जब तक आप अपनी असली छवि से सहज और संतुष्ट नहीं हो जाते तब तक फिल्टर इस्तेमाल मत कीजिए।
फिल्टर अवास्तविक सौंदर्य मानकों को बढ़ावा देता है?
फिर वही बात आती है, खुद से दूरी बनाकर अगर आप उनका इस्तेमाल करते हैं, तो ये आपके आत्म-सम्मान को गहरा आघात पहुंचा सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि ये अवास्तविक सौंदर्य मानको को बढ़ावा देते हैं।
छोटे शहरों और टियर 2 या 3 क्रिएटर्स के बीच फिल्टर का चलन तेजी से क्यों बढ़ रहा है?
इसका सीधा-सा जवाब, सौंदर्य की बदलती परिभाषा। जब वे दूसरों को फिल्टर के साथ फोटो और वीडियो डालते देखते हैं, तो खुद भी वैसा ही करने लगते हैं। साथ ही गांव-कस्बों तक स्मार्टफोन और सस्ते इंटरनेट की पहुंच ने भी इस चलन को बढ़ाया है।
ये जातिवाद, रंगभेद और सौंदर्य के यूरोपियन मापदंडों को बढ़ावा देते हैं?
हां, मैं आंशिक रूप से इस बात से सहमत हूं। कई फिल्टर त्वचा के रंग को बदल देते हैं। चेहरे की बनावट बदल जाती है। ये सभी यूरोपियन और उच्च जाति के सौंदर्य मानकों की ओर झुकाव दिखाते हैं। इससे यह संदेश जाता है कि कुछ विशेष प्रकार की शक्ल-सूरत ही होना सुंदरता है। यह गंभीर मसला है, जिस पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है।
कोई बिना फिल्टर कंटेंट डालने से डरे, उसके लिए सलाह क्या होगी?
जब हर जगह धड़ल्ले से किसी चीज का इस्तेमाल हो, तो धारा के विपरीत जाने में थोड़ा डर किसी को भी लग सकता है। लेकिन ऐसे को मैं यह बताना चाहूंगा कि एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जो बना फिल्टर वाले कंटेंट को पसंद करता है। मैं अपने युवा फॉलोअर्स को भी यही कहना चाहूंगा कि फिल्टर का इस्तेमाल या तो बिल्कुल न करें या बेहद कम करें। मैंने खुद देखा है कि बिना फिल्टर की चीजें भी लोगों की पसंद सूची में होती हैं। अगर आप फिल्टर लगाकर खुद को सुंदर दिखाते हैं और किसी इवेंट में अपने रियल लुक में जाते हैं, तो लोग मजाक भी बना सकते हैं।
आने वाले समय में दुनिया ज्यादा वास्तविक होगी या ज्यादा नकली?
मुझे लगता है, दोनों साथ-साथ चलेंगे। यह इस पर निर्भर करता है कि आप किस दर्शक वर्ग को लक्ष्य कर रहे हैं। कुछ लोग वास्तविक और विश्वसनीय चीजें पसंद करते हैं, तो कुछ लोग अब भी ग्लैमर और रीटच्ड वर्जन पसंद करते हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि यही चलेगा और यह खत्म हो जाएगा। दोनों का संतुलन बना रहेगा।