समूचे देश में बिहार अधिकांश मानव विकास पैमानों में लगातार सबसे निचले पायदान बना हुआ है। यह सच्चाई बेहद परेशान करने वाली और सोचने-विचारने पर मजबूर करने वाली है। अमूमन एक दुष्प्रचार या भ्रामक धारणा सुनने को मिलती है कि इसकी जड़ में वहां के लोग खुद हैं। लेकिन दूसरे राज्यों में बिहार के लोगों की बुलंद कामयाबियां कुछ और ही कहानी कहती हैं। एक मिसाल देखें। 17 साल पहले एक प्रवासी मजदूर की बेटी जया कुमारी चेन्नै पहुंची थी। बेहद साधारण पृष्ठभूमि और परिवार की खस्ता माली हालत के बावजूद जया ने चेन्नै के पास एक सरकारी स्कूल में दसवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में टॉप किया। उसकी कहानी अपवाद नहीं है। पूरे देश में बिहारी प्रवासियों के बच्चे अमूमन बुनियादी अवसर और पढ़ाई का बेहतर माहौल मिलने पर शानदार अंक लाकर दिखाते रहे हैं।
अब, बिहार में पढ़ाई-लिखाई की हालत जरा आंकड़ों की जुबानी पढि़ए। एनसीईआरटी के राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण के मुताबिक, राज्य में लगभग 25 प्रतिशत छात्र ही स्नातकोत्तर या पीएचडी तक की पढ़ाई कर पाते हैं। 76 प्रतिशत शिक्षक पढ़ाई की सामग्री की भारी कमी से पस्त हैं, और 58 प्रतिशत तो स्कूल-कॉलेजों में छत न होने की शिकायत करते हैं। ये आंकड़े यही बताते हैं कि पिछले कई दशक से बेहद सीमित संसाधनों से बिहार में पढ़ाई-लिखाई जैसे-तैसे चल रही है, जो स्कूल-कॉलेजों को बेहतर करने के सरकारी दावे को झुठलाती है।
हाल में वायरल हुए उस सोशल मीडिया पोस्ट पर जरा नजर दौड़ाइए। एक रिपोर्टर एक स्कूली बच्ची से पूछता है कि वह सरकार से क्या चहती है। जवाबः पक्की छत वाली क्लास। वजहः बारिश में छत टपकने लगती है, गर्मी में पेड़ की छांव में जाना पड़ता है। यह जाहिर करता है कि सरकारें एकदम बुनियादी चीजें भी मुहैया नहीं करा पाती हैं।
तकरीबन दो दशक से सत्ता में काबिज नीतीश सरकार का दूसरा बड़ा दावा स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर करने का है। लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2005-06 में तीसरे से 2019-20 में पांचवें दौर तक) के आंकड़े कड़वी सच्चाई बयान कर रहे हैं। 15-49 वर्ष की आयु की 65 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया या खून की कमी से ग्रस्त हैं। छह महीने से 59 महीने के बच्चों में 69 एनीमिया से पीड़ित हैं और पांच साल से कम उम्र के 43 प्रतिशत बच्चे बौनेपन का शिकार हैं। ये आंकड़े पीढ़ी-दर-पीढ़ी संकट का संकेत हैं।
इसकी साफ वजह सरकार की बजट प्राथमिकताओं में दिखती है। पिछले 20 वर्षों में, बिहार का शिक्षा पर खर्च उसके सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के लगभग 4-5 प्रतिशत के आसपास रहा है। स्वास्थ्य सेवा को जीएसडीपी का मात्र 0.8-1.2 प्रतिशत और पोषण के मद में मात्र 0-0.4 प्रतिशत ही मिलता रहा है। ये आंकड़े ही इन मामलों में सरकार की बेरुखी और खस्ताहाली की गवाही दे रहे हैं।
इसलिए बिहार के युवाओं में नहीं, खामी तो सरकारी प्राथमिकता और नजरिए में दिखती है। वादा और दावा तो सभी के लिए अच्छी पढ़ाई, सुलभ स्वास्थ्य सेवा और पर्याप्त पोषण मुहैया करने का रहा है, लेकिन ये आंकड़े हकीकत उलट बताते हैं। जब तक इसमें बदलाव नहीं होता, राज्य और पिछड़ता ही रह सकता है।
(लेखक नीति आयोग के पूर्व सीनियर कंसल्टेंट हैं, विचार निजी हैं)