पुस्तक मेले की भीड़, नई किताबों की गंध, दोस्तों-परिचितों की मुस्कराहटों, संवाद, बतकहियों के बीच लेखक रत्नेश्वर जी मिले और एकाएक उन्होंने धीमे से कहा, ‘शायद उषा किरण खान नहीं रहीं!’ क्या यह कोई संयोग था या प्रकृति से मिला कोई उनसे जुड़ा आभास? पुस्तक मेले आते हुए मैं उनके बारे में ही सोच रही थी। कितने दिन बीते, अम्मा से बात नहीं हुई है। उन्होंने कहा था, ‘पुस्तक मेले में आने के बारे में सोचूंगी।’ इधर उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता जा रहा था। उनसे बात करते हुए लगातार लगता था कि उनके पति डॉ. राम चंद्र खान जी के जाने के बाद वे भरे-पूरे परिवार (जिसमें वृहत्तर साहित्यिक परिवार भी शामिल है) के बीच भी कहीं अकेली हो गई थीं। उनके पति उनके बाल सखा थे, उनके जीवन की हर धूप-छांव के साथी। फिर भी वह मजबूत दिखने की कोशिश करती थीं लेकिन देह और मन से कहीं थकती जा रही थीं।
मैं सोच रही थी कि अम्मा की कोई खबर तक नहीं ली, किताबों का मेला है लेकिन अम्मा इतनी शांत क्यों हैं, तब वे हम सबको हमेशा के लिए छोड़ कर जाने की तैयारी कर रही थीं। मात्र पंद्रह दिनों की बीमारी ने उन्हें हमसे छीन लिया।
अपने परिवार के साथ उन्होंने साहित्य की दुनिया को भी अकस्मात, अवाक, निशब्द छोड़ दिया। मैथिली और हिंदी की प्रसिद्ध हस्ताक्षर, पद्मश्री, साहित्य अकादमी, भारत भारती जैसे पुरस्कारों से सुशोभित हमारे समय की प्रतिनिधि रचनाकार, हमारी साहित्यिक पुरोधा ने हमें अंतिम प्रणाम तक कहने का अवसर नहीं दिया।
साहित्य से उनका प्रेम कह सकते हैं अंतिम सांस तक रहा। नियति देखिए, जाने का वक्त भी उन्होंने ऐसा चुना जब पूरे भारत से साहित्य प्रेमी किताबों की दुनिया के लिए जुटे हुए थे। उनके प्रशंसक, साहित्य प्रेमियों को उनके निधन की सूचना किताबों के बीच ही मिली। ऐसा लगा जैसे उनकी मृत्यु हमें, इस भीड़ को, मेले को, इस सारी चमक-दमक की व्यर्थता दिखाना चाहती हों। शब्दों की दुनिया के बीच और उससे परे का यह सारा शोर, ये लोकार्पण, ये संवाद, ये दिखावे सब यहीं छूट जाएंगे।
अम्मा के साहित्यिक अवदानों से तो कौन साहित्य-प्रेमी परिचित नहीं होगा! लोक परंपरा, मिथक, इतिहास के पात्रों से लेकर आधुनिक स्त्री का सशक्त रूप उनकी रचनाओं में उपस्थित था। जितनी गहनता से वे भारतीय संस्कृति और परंपराओं से जुड़ी थीं, उतनी ही उदारता से आधुनिक जीवन शैली, उसके सभी आयामों को उन्होंने स्वीकारा था, सिर्फ अपनी रचनाओं में ही नहीं, अपने जीवन में भी। तभी उनसे संवाद के दौरान हमारे बीच का पीढ़ियों का अंतराल उनकी चपल हंसी के स्पर्श से कहीं अदृश्य हो जाता था। वे जितनी गरिमामयी, सौम्य, ज्ञान-विवेक सम्पन्न, सजग स्त्री थीं, उतनी ही बालसुलभ उत्सुकता से भरी हुई एक चपल, बेफिक्र कन्या भी जो अपने उन्मुक्त परिहास से हमें भी जीवंत कर जाती थी। वे भारतीय स्त्री का एक ऐसा उदाहरण थीं जिन्होंने अपने सभी कर्तव्यों को जितनी ईमानदारी से निभाया उतने ही धैर्य से स्वयं को भी गढ़ती गईं। यह हमारी पीढ़ी के लिए सीखने की बात है जिसके अंदर घर को गढ़ने का सामर्थ्य और धैर्य कम होता जा रहा है।
अम्मा ने अपने पीछे सिर्फ अपना विपुल लेखन संसार ही नहीं छोड़ा है, उन्होंने निरंतर अपने बाद की पीढ़ियों को बेहतरीन लिखने के लिए प्रेरित किया, उनके लेखन को सामने लाने के लिए प्रयत्नशील रहीं। उनके प्रतिनिधित्व में संचालित स्त्री रचनाशीलता को समर्पित आयाम का मंच इसका उदाहरण है।
वे जितनी गांधीवादी थी, उतनी ही स्त्रीवादी भी जो पूरा जीवन बहनापे के सिद्धान्त पर चलती स्त्रियों को आपस में जोड़ती रहीं। वे आजीवन सबको अपार धैर्य से सुनती, सहेजती रहीं, हृदयों के बीच आई दूरियां पाटने की कोशिश करती रहीं। उन्होंने जो लिखा उसे जिया भी। उन्होंने अपने पीछे शब्दों की एक अमिट दुनिया छोड़ी है और हमारे लिए यह संदेश भी कि हम स्त्रियों को एक दूसरे को वैसे ही सहेजना, समेटना, संभालना है जैसे हमारे तमाम अंधेरों के बीच उषा की किरण सी वह उपस्थित रहा करती थीं। हमेशा रहेंगी।