जाने-माने चुनाव विश्लेषक तथा सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) के निदेशक संजय कुमार को लगता है, जाति जनगणना के आंकड़े आते हैं तभी धार्मिक आइडेंटिटी के बरक्स जाति आइडेंटिटी की राजनीति में नया जोर पैदा हो सकता है। उनसे जाति जनगणना, ओबीसी राजनीति, उसकी चुनावी संभावना और सियासी नतीजों पर हरिमोहन मिश्र ने बातचीत की। मुख्य अंश:
जाति जनगणना से मंडल-2 की राजनीति शुरू हो सकती है?
बिलकुल। संभावना तो है, क्योंकि संख्या के आंकड़े साफ-साफ आ गए तो दूसरी मांगें शुरू हो सकती हैं। आबोसी पॉलिटिक्स को नया बूस्ट मिल सकता है। उसके आधार पर जाति आइडेंटिटी को लेकर एक हद तक नई गोलबंदी शुरू हो सकती है। मुझे लगता है कि इससे भाजपा को थोड़ा बैकफुट पर आना पड़ सकता है। लेकिन जरूरी है कि आंकड़े आएं और ओबीसी पॉलिटिक्स की पार्टियां पूरी गंभीरता से समाज में मैसेज ले जा सकें।
लेकिन भाजपा ने बहुत-सी पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों में पैठ बनाई है, उन्हें अपने पाले में बनाए रखने की कोशिश क्यों नहीं करेगी?
’90 के या 2000 से 2005 तक के काल को देखें तो उस समय मंडल राजनीति पूरे जोर पर थी। उसको काउंटर करने के लिए ही ’90 के दशक की शुरुआत में आडवाणी जी (लालकृष्ण आडवाणी, भाजपा के शीर्षस्थ नेता) को रथयात्रा निकालनी पड़ी। क्योंकि मंडल राजनीति जोर पकड़ रही थी। उस दौर में वे कुछ सफल हुए। अब जो नई तरह की राजनीति है, इसमें भाजपा खुलकर धर्म का सहारा ले रही है। पिछले पांच-सात साल को देखें तो भाजपा ने ओबीसी फोर्सेस पर भी तमाम तरह की चीजों से अपनी पकड़ बना ली है। उसने वेलफेयर पॉलिटिक्स, चतुर राजनीति या कुछ राजनैतिक भागीदारी देकर ओबीसी में पकड़ बनाई है। लेकिन अभी भी एक शंका बनी हुई है। दरअसल आइडेंटिटी पॉलिटिक्स सब चीज से परे है। पेट में रोटी भले न हो लेकिन लोग आइडेंटिटी की लड़ाई लड़ते हैं। जो पार्टियां जाति जनगणना के पक्ष में नहीं हैं, खासकर भाजपा उसे अंदेशा है कि भले हमने वेलफेयर पॉलिटिक्स से पैठ बना ली है, वे अभी हमारे साथ हैं, लेकिन जब जाति जनगणना से आंकड़े निकल कर आएंगे तो वह अस्तित्व, आइडेंटिटी की लड़ाई हो सकती है। उनके मन में यह घर कर सकता है कि बाकी तो सब ठीक है लेकिन हमारी पहचान की बात है। दरअसल आइडेंटिटी का सवाल देश में इतना बड़ा है कि उसके आगे सब फीका पड़ जाता है। भाजपा को थोड़ा-सा शक रहता है कि जाति आधारित आइडेंटिटी से मुश्किल होगी। अभी वे धार्मिक आइडेंटिटी का सहारा लिए हुए हैं। धार्मिक आइडेंटिटी तक तो सब उनके साथ हैं। लेकिन जाति आइडेंटिटी की बात शुरू हो गई तो भाजपा कहीं पिछड़ जाएगी। हालांकि उनको वोट तो सभी का मिल रहा है लेकिन धारणा है कि यह ऊंची जाति और बनियों की पार्टी है। इसलिए जाति आधारित आइडेंटिटी पॉलिटिक्स होगी तो भाजपा के लिए चुनौती बढ़ जाएगी। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि भाजपा हार जाएगी, लेकिन उसे मुश्किल आएगी।
शुद्रों वाला नैरिटिव इसीलिए उठाया गया?
निश्चित रूप से। लिंक दिखाई पड़ता है क्योंकि विपक्ष को पता है कि धर्म आधारित आइडेंटिटी की काट लानी है तो दूसरी आइडेंटिटी का सहारा लेना पड़ेगा। धर्म आधारित आइडेंटिटी का भाजपा इतनी बखूबी इस्तेमाल कर रही है कि दूसरी पार्टी करना भी चाहेगी तो मुकाबला नहीं कर सकती। ऐसी स्थिति में उनको लगता है कि क्यों न जाति आधारित आइडेंटिटी का सहारा लेने की कोशिश करें। वे अतीत में इसमें सफल भी रहे हैं। उन्हें पता है इसकी बदौलत वे ’90 के दशक में या बाद तक राजनीति कर पाए हैं। वी.पी. सिंह वगैरह की जो पॉलिटिक्स थी। जाति जनगणना पर विरोध और समर्थन इसी कारण दिखाई देता है।
ओबीसी नेताओं में दुविधा है? जैसे स्वामी प्रसाद मौर्य को अखिलेश ने चुप करा दिया?
कुछ स्थानीय मजबूरियां, लोकल कंपल्शन होंगे। कई बार कुछ पर्सनल हो जाता है। इस बारे में मैं नहीं कह सकता। मैं बड़ी राजनीति की बात कर रहा हूं।
कांग्रेस भी क्या इस ओर बढ़ रही है। हाल के रायपुर अधिवेशन में उसने अपने संगठन में ओबीसी, दलित, युवा, महिला के लिए आरक्षण देने की बात की है। इससे फर्क पड़ेगा?
वादे से नहीं, डिलिवरी से फर्क पड़ता है। रायपुर अधिवेशन में जाति जनगणना, प्राइवेट क्षेत्र में आरक्षण वगैरह देने की बात जरूर हुई है, मगर कांग्रेस की कोशिश है यह दिखाने कि हम आपके साथ हैं, आपके नुमाइंदे हैं, आपकी भलाई सोचते हैं।
उत्तर प्रदेश, बिहार के अलावा दूसरे राज्यों में मसलन, मध्य प्रदेश, राजस्थान में कांग्रेस को इसका फायदा मिल सकता है?
लगता नहीं कि कांग्रेस को कहीं फायदा मिलेगा।
जाति जनगणना का असर उत्तर प्रदेश, बिहार के बाहर भी दिखेगा क्या?
जब तक जनगणना नहीं होगी, तब तक फर्क नहीं पड़ेगा। जब नंबर आएंगे तो पॉलिटिक्स उसके इर्द-गिर्द हो सकती है। राजनैतिक पार्टियों के इस वादे पर तो वोटर शायद उनकी ओर झुके कि हम सत्ता में आएंगे तो जाति जनगणना कराएंगे। जाति जनगणना का असर तभी पड़ सकता है जब आंकड़े आएं। उसमें भी 27 प्रतिशत से ज्यादा होंगे तो ही मांग शुरू होगी कि हिस्सेदारी कम है। यह ठीक है कि कानूनन आरक्षण 50 प्रतिशत से ऊपर नहीं जा सकता, लेकिन राजनीति करने में पार्टियां पीछे नहीं रहेंगी और इस मुद्दे को उठाएंगी। उससे थोड़ी गोलबंदी की संभावना है।
इसका मतलब कि बिहार में जाति जनगणना के आंकड़े जल्दी आते हैं तभी बात बनेगी।
हां, आंकड़े आ गए तो उसको लेकर गोलबंदी हो सकती है। हालांकि मैसेजिंग भी बहुत महत्वपूर्ण है। देखते हैं कि ये लोग मैसेज कैसे पहुंचाते हैं। लेकिन सब कुछ आंकड़ों पर ही निर्भर होगा। आंकड़े चाहिए, उसके बिना कुछ नहीं कर सकते।