हाल में सुर्खियों में छाई अनंत महादेवन की फिल्म फुले ने गहरी दिलचस्पी जगाई है। इसके साथ ही श्रीविद्या नटराजन का उपन्यास ए गार्डनर इन द वेस्टलैंड भी जरूर पढ़ा जाना चाहिए। इसमें अपराजिता नैनन के चित्रांकन भी उतने ही रचनात्मक और जोरदार हैं। इसमें ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के व्यक्तित्व के जरिये जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म की तीखी और विचारोत्तेजक आलोचना है। पुस्तक की तरह, फिल्म फुले भी ज्योतिराव फुले के लेखन, खासकर गुलामगीरी से प्रेरित है। हालांकि फिल्म को ‘‘व्यापक शोध’’ आधारित बताया गया है। शायद ‘व्यापक शोध’ की वजह से ही फिल्म जानकारी और घटनाओं से भरपूर लगती है, लेकिन सिनेमाई फ्लेवर तैयार नहीं कर पाती। कट अक्सर नाटक में दृश्य-परिवर्तन के लिए विराम की तरह लगते हैं, न कि कथा के प्रवाह को बढ़ाने वाले। कैमरा धीमे घूमता है, घटनाओं का प्रवाह तेज होता, तो शायद फुले परदे पर जीवंत हो उठते।
लेकिन सिनेमा हॉल खचाखच भरा हुआ था और लोगों ने सही मौकों पर तालियां भी बजाईं। मेरे बगल में अपने बेटे के साथ बैठी एक मां ने फिल्म को लाजवाब बताया। जाहिर है, दर्शकों की भावना आंदोलित हो रही थी, लेकिन मैं हैरान थी कि वजह क्या है। फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण शिक्षा को सबके लिए सुलभ बनाने, तर्कसंगत सोच को आगे बढ़ाने, विधवाओं के लिए आश्रम खोलने, जाति के भेदभाव के खिलाफ लड़ने और समाज में ऊंच-नीच की व्यवस्था को चुनौती देने में फुले के काम का ऐतिहासिक और राजनैतिक महत्व है। लगता है कि इतिहास का यह पाठ दर्शकों को इससे दूर रखता है कि उनकी कहानी कैसे कही गई है। शायद दर्शक यह देखते हैं कि कहानी किस बारे में है। धार्मिक रूढ़ियों और अंधश्रद्धा के खिलाफ ज्योतिबा के तर्कसंगत विचारों के टकरावों को पेश करना एक बात है और ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म की खामियों को उजागर करने के लिए उनके विचारों से पूरी तरह जुड़ना दूसरी बात है। हिंदू धर्म की कमियां और बुराइयां उजागर करना ही फुले के विचारों का मूल तत्व है; उनकी विरासत की भव्यता सिर्फ जानकारियों और तथ्यों में नहीं, बल्कि उनकी चेतना की विशालता में है।
फिल्म का एक दृश्य
इसलिए, फिल्म में वह दृश्य गहरे प्रभावित करता है, जिसमें फूले की छाया रास्ते से गुजरने वाले ब्राह्मणों की टोली के पैरों पर पड़ती है। ब्राह्मण छाया के स्पर्श की आशंका से ठिठक जाते हैं, ज्योतिबा (प्रतीक गांधी) सीधे उनकी ओर बढ़ते हैं; वे हड़बड़ी में पीछे हट जाते हैं, ज्योतिबा बढ़ते जाते हैं और ब्राह्मण पीछे हटते रहते हैं जब तक कि फ्रेम के किनारे पर नहीं पहुंच जाते। इस छोटे से दृश्य का करिश्मा शेर की दहाड़ जैसा है क्योंकि छाया ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ युद्ध छेड़ने का हथियार और ढाल दोनों बन जाती है।
अगर फिल्म में यह सौंदर्यबोध अनवरत कायम रहता, जहां ज्योतिबा की मौजूदगी ताकत और तनाव दोनों का पर्याय थी, तो फिल्म न सिर्फ पाठ्यपुस्तक की तरह ज्ञान प्रदान करती, बल्कि दर्शकों के थिएटर से बाहर निकलने के बाद भी लंबे समय तक उनकी भावनाएं झकझोरती रहती। जाति व्यवस्था मिथकों में विश्वास के जरिये ताकत पाती है और कायम रहती है, ऊंच-नीच और छूआछूत को दैवीय आदेश की तरह पेश करती है और समाज की आंतरिक प्रथाओं को नियंत्रित करती है, लोगों की कंडिशनिंग करती है। शुद्ध और अशुद्ध का संघर्ष जब स्पृश्यता और अस्पृश्यता पर उतर आता है, तो स्वाभाविक अनुभवजन्य भावनाएं- क्रोध, हताशा, उदासी, आशा, असहायता, साहस, शक्ति, उत्पीड़न, विद्रोह वगैरह जगाने में फिल्म में यह कमी खलती है।
यह भी पूछना चाहिए कि क्या बड़े बजट से का सौंदर्यशास्त्र सिर्फ बाजीराव, शिवाजी, रतन सिंह, तानाजी और गांधियों के लिए ही आरक्षित है? लेकिन, वित्तीय ढांचा चाहे जो हो, रंजीत और नागराज मंजुले जैसे दलित फिल्मकारों ने महाकाव्यात्मक सिनेमाई किस्सागोई के ढंग की ओर बार-बार हमारा ध्यान खींचा है। उनसे उधार लेना कलात्मक कमजोरी या नकल की तरह नहीं देखा जाना चाहिए; बल्कि प्रेरणा के लिए उनकी ओर न देखना रूढ़िवाद की ओर वापसी का संकेत है। आज की दुनिया में, इतिहास के हाशिये और फुटनोट में दर्ज होने वाले लोग ही किस्सागोई के भव्य और यादगार रूपों को बचा सकते हैं। महाकाव्यों में पारंपरिक रूप से राजाओं और रानियों के गीत गाए गए हैं, बार-बार क्रूरता, साम्राज्यवाद और एक समूह के दूसरे समूह पर वर्चस्व का पक्ष लिया गया है। महाकाव्य के इस रूप को सिंहासन से उतरना ही नए पुनर्जागरण का संकेत है।
फुले में कुछ झांकियों को छोड़कर, नए महाकाव्यात्मक रूप की राजनैतिक क्षमता का बड़े पैमाने पर प्रयोग नहीं दिखता है। फिल्म सपाट लगती है क्योंकि वह ऐतिहासिक तथ्यों तक सीमित है, जाति-विरोधी आंदोलन की विशालता को सामने लाने में संकोच करती है, ताकि सुरक्षित दायरे में रहा जा सके। फुले वर्तमान भारत के संघर्ष में प्रतिध्वनि की ओर भी इशारा नहीं करती। ऐसी फिल्म की क्रांतिकारी संभावना जाति उत्पीड़न के अनुभव को इस कदर मौजूं बना देने में है कि कोई व्यक्ति उस दुख से निजात पाने को छटपटाने लगे और विशेषाधिकार प्राप्त जाति समूह उस दर्द को साझा न बता पाए। फिल्म फुले के संघर्षों का महिमामंडन नहीं करती, उनके सहे भेदभाव, मुश्किलों और विद्रोह को बीते जमाने की बात की तरह पेश करके छुटकारा पा लेना चाहती है।
इस बॉयोपिक में सावित्रीबाई (पत्रलेखा) को ज्यादा जगह मिली है, फिल्म के दौरान उसमें आत्मविश्वास और हिम्मत बढ़ती है। उन्हें और ज्योतिबा को धमका रहे एक आदमी को उनके जोरदार थप्पड़ से थिएटर में तालियां गूंज उठती हैं। बेशक, लड़कियों और महिलाओं के सशक्तीकरण में उनके योगदान के बारे में काफी पता लगता है, लेकिन उनके मन में चल रही उथल-पुथल की ओर फिल्म कोई इशारा नहीं करती, मानो वे सिर्फ सामाजिक प्राणी हों, उनके पास कुछ भी निजी न हो। जब वे क्लाइमेक्स में अपने दत्तक पुत्र यशवंत से कहती है, ‘‘मुझे उम्मीद है कि तुम्हारी कहानी हमारी कहानी से बेहतर होगी,’’ तो दुख होता है क्योंकि ज्योतिबा और सावित्रीबाई के बलिदान, संघर्ष, दुख और त्रासदी के साथ-साथ उनकी क्रांति और एक-दूसरे के प्रति प्रेम की सुंदरता अनंत महादेवन की फुले में नहीं दिखती।
(सृष्टि वालिया नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कला और सौंदर्यशास्त्र स्कूल में सिनेमाई अध्ययन की डॉक्टरेट की छात्रा हैं, विचार निजी हैं)