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13 जून 2022 · JUN 13 , 2022

पुस्तक समीक्षा: दुष्प्रचार का सामना तर्क और विवेक से

तमाम सवालों और आरोपों का सटीक जवाब, जिनके जरिए अल्पसंख्यक समुदाय को घेरा जा रहा है
मुस्लिम मुद्दों की सच्चाई बयां करती पुस्तक

युवा कवि फरीद खां की किताब अपनों के बीच अजनबी ऐसे समय में आई है, जब देश में बहुसंख्यकवाद जोरों पर है और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाए जाने का सिलसिला काफी तेज और मुखर हो गया है। आज न सिर्फ ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया जा रहा है बल्कि बहुसंख्यक समुदाय का एक खास तबका मुसलमानों के रहन-सहन, रीति-रिवाजों का उपहास करते हुए देश के प्रति उनकी निष्ठा पर भी सवाल उठा रहा है। यह तबका पूरे अल्पसंख्यक वर्ग को ही आतंकवादी और देश के बहुसंख्यक लोगों का दुश्मन साबित करने में जुटा हुआ है। इससे देश में तनाव पैदा हुआ है और सामाजिक सौहार्द को भी धक्का पहुंचा है।

इस किताब में फरीद खां ने उन तमाम सवालों और आरोपों का जवाब तार्किक रूप से दिया है, जिनके जरिए अल्पसंख्यक समुदाय को घेरा जा रहा है। उन्होंने बताया है कि ऐसे तमाम प्रश्न बिना जानकारी हासिल किए या पूर्वाग्रह के कारण गढ़ लिए गए हैं। लेखक ने विभिन्न आरोपों का जवाब देते हुए जो तथ्य सामने रखे हैं, उनसे यह भी पता चलता है आजादी के इतने वर्षों के बाद भी अल्पसंख्यक समुदाय सामाजिक-आर्थिक स्तर पर कितना पिछड़ा है। उस तक विकास का लाभ कम ही पहुंचा है। दूसरी तरफ उसे अलग-थलग किए जाने की कोशिश भी जारी है। 

लेखक इस तरह के सवालों से टकराता है। पहला,  क्या वाकई मुस्लिम नौजवान ‘लव जेहाद’ करना चाहते हैं? दूसरा, क्या वाकई मुसलमान कश्मीरी आतंकियों का समर्थन करते हैं? और तीसरा क्या वाकई मुस्लिम मोहल्ले ‘मिनी पाकिस्तान’ होते हैं? इन सवालों से जूझने के क्रम में लेखक इतिहास सम्मत उदाहरणों, वस्तुनिष्ठ तथ्यों, आंकड़ों और अपने अनुभवों का सहारा लेता है और इस क्रम में दक्षिणपंथी षडयंत्र को भी उजागर करता चलता है। एक तरह से यह किताब एक मुस्लिम युवा की मनोदशा को सामने लाती है। लेकिन गौर करने की बात है कि इस युवा का मानस गंगा-जमुनी संस्कृति की बुनियाद पर विकसित हुआ है। उसकी चिंता यह है कि जिस धर्मनिरपेक्ष भारत का स्वप्न आजादी की लड़ाई के दौरान हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने देखा, वह कहीं न कहीं कमजोर पड़ रहा है। किताब की भूमिका में जाने-माने अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने भी सवाल उठाया है कि कहीं धर्मनिरपेक्षता के अभियान में ही कोई कसर तो नहीं रह गई है।

किताब की खासियत है कि इसे अकादमिक ढंग से नहीं बल्कि वस्तुगत और रोचक ढंग से लिखा गया है। लेखक ने विवेक का साथ नहीं छोड़ा है, न वह भावनाओं में बहा है और न ही अपने संयम को हाथ से जाने दिया है। इस किताब को एक विधा में समेटना कठिन है। यह अभिव्यक्ति के एक अलग ही ढांचे को सामने लाती है। सच कहा जाए तो यह किताब सिर्फ अल्पसंख्यकों की नहीं, उन सबकी भी आवाज है जो भारत को समरसता की भूमि के रूप में देखते हैं और धर्मनिरपेक्षता तथा समानता जैसे संवैधानिक मूल्यों के प्रति आदर का भाव रखते हैं।

अपनों के बीच अजनबी

फरीद खां

प्रकाशक|वाम प्रकाशन

मूल्य: 225 रुपये |पृष्ठः 162

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