उत्तर प्रदेश में फिल्म उद्योग के आने की घोषणा अच्छा संकेत है। मेरा मानना है, सिर्फ उत्तर प्रदेश ही क्यों, हर राज्य में फिल्म उद्योग की एक यूनिट होना चाहिए। क्योंकि तब स्थानीय कहानियां आएंगी, जो फिल्म कलाकारों और इस उद्योग से जुड़े लोगों के साथ दर्शकों के लिए भी विविधता लाएगी। कहानियां जितनी स्थानीय होंगी, उतना ही उनसे जुड़ाव होगा। जितना जुड़ाव होगा, उतनी ही फिल्में सफल होंगी।
जो लोग कह रहे हैं, उत्तर प्रदेश की वजह से मुंबई का उद्योग खत्म हो जाएगा या शिफ्ट हो जाएगा, तो मैं इससे इत्तेफाक नहीं रखती। मुंबई फिल्म उद्योग, जिसे हम बॉलीवुड कहते हैं, वह आज नहीं बना है। बरसों से यहां सिनेमा बन रहा है। सिनेमा का यहां अपना ईकोसिस्टम है, सुविधाएं हैं, वैश्विक स्तर पर इसकी पहचान है। ये देश की वित्त राजधानी भी है, इसके भी मायने है। मैं तो नहीं चाहूंगी कि इंडस्ट्री शिफ्ट हो। यहां जो सुविधाएं हैं, उससे ही उद्योग चलता है और बॉलीवुड भीड़ जुटाने वाली फिल्में दे पाता है।
रही बात शूटिंग की, तो अभी भी उत्तर प्रदेश के छोटे शहरों में शूटिंग हो रही है। लखनऊ तो एक तरह से हब हो गया है। वाराणासी में न सिर्फ भारतीय बल्कि विदेशी फिल्मों की भी शूटिंग होती है। अब तो स्माल टाउन स्टोरीज का जमाना है। बरेली की बर्फी, तनु वेड्स मनु, कई कहानियां हैं, जो छोटे शहरों के इर्द-गिर्द बुनी गईं। राजकुमार राव, आयुष्मान खुराना ने इन कहानियों को अपने अभिनय से वास्तविक बनाया। उप्र में फिल्म इंडस्ट्री आने से किसी कहानी पर रिसर्च करने वाले, वहां फिल्म की शूटिंग करने वाले लोगों को फायदा होगा। क्योंकि एक सेंट्रलाइज सिस्टम होगा। वहां सेटअप होगा, तो निर्देशक स्थानीय कहानियों पर वहां काम कर सकेंगे। उन्हें मुंबई आने की जरूरत नहीं होगी।
अभी जो सबसे बड़ी चुनौती आएगी, वो लैब, टेक्निशियन, इक्विपिमेंट और स्टूडियो की होगी। फिल्म बनाने के लिए यह महत्वपूर्ण है। अभी हमें कहीं भी शूटिंग के लिए जाना होता है, हम क्रू मुंबई से ही लाते हैं। क्योंकि जिस क्वालिटी के कैमरा या अन्य उपकरण हमें चाहिए वो कहीं और उपलब्ध नहीं हैं। उत्तर प्रदेश का उद्योग इन चुनौतियों पर ध्यान देता है, तो फिल्म बनाने वालों को आसानी होगी। अभी फिल्म बनाने वाले हर व्यक्ति को पता है, मुंबई में कौन सी चीज कहां मिलती है, किस स्टूडियो में क्या काम होता है, कौन व्यक्ति क्या करता है। लेकिन ऐसा सिस्टम एक दिन में नहीं बनता। इसके लिए बरसों लगते हैं।
अभी मुंबई में, जो भी टेक्निशियन हैं, उनमें ज्यादातर यूपी, बिहार, मप्र, ओडिशा, बंगाल से होते हैं। पर फिर भी मुझे नहीं लगता कि ये लोग तुरंत और आसानी से वहां शिफ्ट हो जाएंगे, क्योंकि फिल्म एक टीम वर्क है, अकेला आदमी इसमें काम नहीं कर सकता। लेकिन इतना तो तय है, एक और इंडस्ट्री आने से वर्क लोड शिफ्ट होगा। क्योंकि मुंबई में टेक्निशियन, स्टूडियो मिलना मुश्किल होता है। यहां फिल्म बनाने वालों की संख्या ज्यादा है। फिर भी मेरा मानना है कि घोषणा करना अलग बात है और उसको अमली जामा पहनाना अलग। कोई भी सरकार, मशीनें, स्टूडियो दे सकती सकती है। लेकिन प्रोफेशनलिज्म माहौल से ही आता है। काम करने वाले प्रोफेशनल लोग होंगे, तो ही आखरी परिणाम अच्छा आएगा। फिल्म बनने के बाद भी पोस्ट प्रोडक्शन में बहुत काम रहता है, जिसके लिए विशेषज्ञ लोगों की जरूरत होती है। कई बार एक फिल्म बनाने के बाद अच्छी टीम बन जाती है। फिर जिस व्यक्ति की जिस काम में महारत होती है, उसी से वह काम कराया जाता है, भले ही उसके लिए थोड़ा इंतजार क्यों न करना पड़े। सोचिए यदि ऐसा व्यक्ति मुंबई में ही काम करना चाहे, तो फिल्म बनाने वाला उसके पास वहीं जाएगा। इसलिए मैं कहती हूं कि इक्विपमेंट आप दे सकते हैं, लेकिन उससे जुड़े लोगों को देना मुश्किल है। ट्रेंड टेक्निशियन, बेहतर स्टूडियो जैसी कई बाते हैं, जिन पर अभी काम होना है। इतनी जल्दी नई इंडस्ट्री के बारे में कोई भी धारणा नहीं बनाई जा सकती। क्योंकि कोई भी काम एक दिन में नहीं होता। कुछ भी रातों-रात शिफ्ट नहीं हो सकता। सबको विश्वास दिलाना कि यहां उन्हें वो सब मिलेगा जो वहां था आसान नहीं है। यूपी को अपने यहां होने वाले अपराध को भी नहीं भूलना चाहिए।
जब एक बार यह सिस्टम बन जाएगा, तो अवधि, बुंदलेखंडी, कौरवी जैसी भाषाओं को भी फिल्मों में जगह मिलने लगेगी। यदि किसी को अपने क्षेत्र की कोई छोटी सी फिल्म बनाना है, तो उसे भाग कर मुंबई आने की जरूरत नहीं है। अगर हम पूरे भारत के परिप्रेक्ष्य में बात करें, तो कहानी में क्षेत्रीयता का पुट दर्शकों को गहरे छूता है। फिल्में जिनती रीजनल रहेंगी, उतनी ही ग्लोबल होंगी। हाल ही में गामक घर फिल्म आई है। मैथिली भाषा में बनी यह फिल्म बहुत शानदार है। लेकिन इसके निर्देशक अचल मिश्रा ने इसकी भाषा पर खूबसूरती से जो काम किया है, वह कमाल है। आप दक्षिण, मराठी या बंगाल के सिनेमा को देखिए। वे लोग वहीं अपना श्रेष्ठ दे रहे हैं। उन्हें मुंबई नहीं आना पड़ता।
मुझे लगता है कि फिल्म इंडस्ट्री को लेकर राजनीति नहीं होनी चाहिए। नई फिल्म इंडस्ट्री का पूरा दारोमदार सुविधाओं पर होगा। जितनी ज्यादा सुविधाएं होंगी, उतना ही इसके सफल होने के मौके बढ़ेंगे। ओटीटी प्लेटफॉर्म आने के बाद तो कहानी कहने के लिए मंच की भी कमी नहीं है। कोई भी उद्योग तब फलता-फूलता है, जब वहां लॉ ऐंड ऑर्डर दुरुस्त हो। क्योंकि आप जब भी कोई फिल्म बनाते हैं, तो निर्देशक के रूप में पूरी टीम की सुरक्षा की जिम्मेदारी आपकी होती है। आप पर कम से कम 200 लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी होती है। महंगे उपकरणों की जिम्मेदारी होती है। महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध, बलात्कार ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर पहले काम किया जाना जरूरी है। सुरक्षा अहम मुद्दा है। अभी बहुत काम है, जिस पर अमल करना इतना आसान नहीं। नई फिल्म इंडस्ट्री के बारे में अभी कुछ भी बोलना जल्दबाजी होगी।
(चर्चित फिल्म रिबन की निर्देशक)