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5 अगस्त 2024 · AUG 05 , 2024

फिल्म/शख्सियत: गौरव का प्रतीक

अपनी फिल्मों, कॉलमों, साक्षात्कारों और कपड़े पहनने के तरीके से रितुपर्णो घोष अपनी वास्तविक पहचान जाहिर करने से बहुत पहले क्वीर समुदाय के गौरव प्रतीक बन गए थे
ऋतुपर्णो घोष

मैं और मेरे दोस्त मानते थे कि सर्कस के बाहर, कोलकाता में सबसे बड़ा ‘जोकर’ कोई है, तो वो मैं हूं। जब भी मैं मेरे कपड़ों के साथ कोई प्रयोग करना चाहता था, मेरा भाई और दोस्त कहते थे, ‘‘यदि तुम जोकर बनना चाहते हो, तो अकेले जाओ। हम तुम्हारे साथ नहीं आ रहे।’’ जब वे ऐसा कहते थे, मैं ज्यादा अड़ियल हो जाता था और जानबूझकर ज्यादा से ज्यादा ऐसे कपड़े चुनता था। मुझे लगता था,  जोकर हंसी और निराशा का अजब संयोग है। पुते हुए चेहरे और लोगों को हंसाने की भरसक कोशिश के पीछे, आंसुओं का लंबा इतिहास छुपा है। यह मत सोचिए कि मैं खुद के बारे में बात कर रहा हूं। यदि किसी को मेरा पहनावा अजीब लगता है, तो आप इसका दोष मेरी खराब पंसद को दे सकते हैं।

रितुपर्णो घोष के संपादकीय ‘फर्स्ट पर्सन’ स्तंभ से लिया गया यह उद्धरण बांग्ला साप्ताहिक रोविवार (दिसंबर 20, 2009) में प्रकाशित हुआ था। यह लेख लिखते वक्त मेरी नजर इस कॉलम पर पड़ी और मैं थम गया। इस अंश में घोष ने ‘क्वीर’ के विचार को ‘जोकर’ के प्रतीक के रूप में बहुत ही करीने से उभारा है। अशांत, बेतुका या उपहासपूर्ण, दुखद।

प्रयोगधर्मीः किंग लीयर में अमिताभ बच्चन के साथ

प्रयोगधर्मीः किंग लीयर में अमिताभ बच्चन के साथ

‘क्वीर’ और विदूषक देखा जाए, तो एक-दूसरे से बहुत अलग नहीं हैं। दोनों की हंसी उड़ाई जाती है, दोनों दर्दनाक जीवन से जूझते हैं। इस अंश में, घोष ने ‘क्वीर’ शब्द का उपयोग नहीं किया बल्कि इसके लिए उन्होंने बांग्ला शब्द उद्भट का उपयोग किया, जिसका शाब्दिक अर्थ वही है। हालांकि, संपादकीय की अंतिम पंक्ति में, घोष ने मजाक में इस बात को नकार दिया कि लिखे हुए का उनके निजी जीवन से कोई लेना-देना है। पर वास्तव में वे अपने क्वीर होने (उनके विदूषकपन) को पुष्ट कर रहे थे, जो कई लोगों को हास्यास्पद और शर्मनाक लगता है। 29 शानदार फिल्में बनाने वाले घोष स्तंभकार, आलोचक, गीतकार, अभिनेता और टॉक शो के होस्ट के रूप में अपने पूरे करिअर में रूढ़ियों को तोड़ते रहे और उस ओर ध्यान दिलाते रहे, जिस पर अब तक बात नहीं की जाती थी। 

घोष की फिल्मों, कॉलम, साक्षात्कार और कपड़े पहनने के तरीके, सभी ने पितृसत्ता, लैंगिकता की धारणाओं और बुर्जुआ नैतिक प्रतिमानों के लिए एक शक्तिशाली काउंटर डिस्कोर्स तैयार करने की दिशा में काम किया। इससे वे औपचारिक रूप से ‘बाहर आने’ यानी अपनी असली पहचान उजागर करने से बहुत पहले सांस्कृतिक प्रतीक बन गए, क्वीर गौरव प्रतीक।  

ऋतुपर्णो घोष

1994 में उनिशे अप्रैल (19 अप्रैल) फिल्म से घर-घर में पहचान बनाने वाले घोष के विचार तभी से स्पष्ट थे, जो बाद की उनकी फिल्मों में दिखाई पड़े। लेकिन 2009 तक वे औपचारिक रूप से कभी अपने दर्शकों के सामने नहीं आए। सह संपादित एक संकलन, ‘रितुपर्णो घोषः सिनेमा जेंडर, आर्ट’ में उनके ‘बाहर आने’ के क्षणों की याद उनके टीवी इंटरव्यू के रूप में सुरक्षित है, जो उन्होंने स्टार जलसा के लिए स्टैंड अप कॉमेडियन मीर को दिया था। खुद को क्वीर समुदाय का प्रवक्ता बताते हुए, घोष ने उस स्टैंड-अप कॉमेडियन की बिना हिचक खरी आलोचना की थी, जो सतही मनोरंजन के लिए मंच पर अक्सर उनकी नकल करता था। घोष ने उससे कहा, ‘‘जब आप मेरी नकल करते हो, तब आप व्यक्ति रितुपर्णो घोष की नकल करते हैं या ऐसे आदमी की जो थोड़ा स्त्रैण है? कभी सोचा जब आप मेरी नकल करते हैं, तो वास्तव में आप कोलकाता के सभी स्त्रैण पुरुषों को अपमानित करते हैं? आपको इस तथ्य के प्रति संवेदनशील होना चाहिए कि आप ऐसे अल्पसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हैं। मैं आपकी हरकत पर इसलिए आपत्ति नहीं कर रहा कि मुझे इससे असुविधा हो रही है; बल्कि मैं उन सभी की ओर से इस पर आपत्ति जता रहा हूं, जिनका मैं प्रतिनिधि हो सकता हूं।’’

इस इंटरव्यू ने घोष को क्वीर एक्टिविजम का मॉडल बना दिया। वह पहले बांग्ला सेलेब्रिटी थे, जिन्होंने राष्ट्रीय चैनल पर अपने क्वीर होने पर बात की थी। इसके बाद उनकी तीन फिल्में आईं, जिनके पात्र क्वीर थे- अरेकटी प्रेमर गोल्पो (निर्देशक: कौशिक गांगुली, 2010), मेमोरीज इन मार्च (निर्देशक: संजय नाग, 2011) और चित्रांगदा: द क्राउनिंग विश (2012)। तीनों फिल्मों में घोष ने नायक की भूमिका निभाई। तीनों ही फिल्में जुलाई 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 377 हटाए जाने के बाद रिलीज हुईं।

हालांकि, घोष की प्रतिभा सिनेमा के जरिये खुद के क्वीर होने को जीना था। उन्होंने इसके लिए सिनेमाई माध्यम का उस वक्त उपयोग किया, जब कोई इस बात पर ध्यान नहीं देता था। दिलचस्प तरीके से, घोष ने पर्दे के पीछे से खुद को क्वीर होना बताने के लिए फिल्मों का इस्तेमाल किया। घोष उनकी कई फिल्मों में ‘अनुपस्थित’ कलाकार के रूप में मौजूद थे। उन्होंने कई अभिनेत्रियों को अपनी आवाज दी। घोष की फिल्में उनके ‘स्वीकार करने’ से बहुत पहले, कथा के साथ-साथ प्रदर्शन के स्तर पर, खुद को मुक्त करने का माध्यम रही हैं।

इतना ही नहीं, ‘कोठरी’ का रूपक उनकी फिल्मों में विषमलैंगिक नायकों के साथ बार-बार लौटा। इसकी शुरुआत उनकी बहुत पहले बनाई गई फिल्मों से हुई। मेरे द्वारा सह-संपादित खंड में, रिचर्ड एलन ने तर्क दिया कि घोष की विषमलैंगिक प्रेम कहानियां, रेनकोट (2004) और नौकाडूबी (2011) में कोठरी में रहने की पीड़ा बहुत स्पष्ट है। एलन ने बताया कि दोनों फिल्में उन भयावह तरीकों को चित्रित करने के लिए ‘कोठरी’ का रूपक गढ़ती हैं, जिसमें अरेंज मैरिज के भीतर इच्छा को सीमित और बहुत हद तक अस्वीकार कर दिया जाता है। कोठरी का रूपक बहुत पहले की फिल्मों, जैसे असुख (मलाइज, 1999) और बादीवाली (द लेडी ऑफ द हाउस, 1999) में भी स्पष्ट था। असुख में, नायिका का ज्यादातर आधा रोशनी वाला कमरा, दुनिया से अलग था। वास्तविक और रूपक दोनों रूपों में। उसकी निराशा और बंद रहने का भय कोठरी में बदल गया। बादीवाली में, एक पुरानी हवेली के अंदर कैद बनलता का अकेलापन, उसकी दमित यौन इच्छाएं और अंततः उस आदमी का उसे छोड़ देना, जिससे उसे प्यार हो गया था, घोष की एकाकी रहने की पीड़ा है। 

ऋतुपर्णो घोष

घोष की शुरुआती अधिकांश फिल्मों को उनकी क्वीर चेतना के साथ दोबारा देखा जाए, तो क्वीर सब टेक्स्ट की कई परतें खुलती हैं। तब लगता है कि एक क्वीर कलाकार ने विलक्षण ढंग से अपनी छाप छोड़ी। जिसे दर्शकों ने अक्सर नजरंदाज कर दिया क्योंकि कला को क्वीर नजरिये से देखने के लिए उनके पास वह नजर नहीं थी। घोष उन कुछ चुनिंदा क्वीर कलाकारों में से एक थे, जिन्होंने अपनी यौनिकता के प्रदर्शन के लिए सिनेमा माध्यम का विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग किया। वह भी तब जब वास्तविक दुनिया में परिस्थितियां ‘ऐसा कहने के बारे में’ अनुकूल नहीं थीं। बाद में 2010 में, जब घोष और मैं करीबी दोस्त बन गए, तो उन्होंने मुझे बताया कि कैसे वास्तव में असुख कई मायनों में आत्मकथात्मक थी। मुझे इसमें जरा आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि मेरे जैसा ‘ध्यान देने’ वाला दर्शक उन स्पष्ट संकेत को आसानी से पकड़ सकता था, क्योंकि इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।

क्वीर भाषा की खोज में

जैसे-जैसे मैं घोष के साथ घनिष्ठ होता गया, मुझे एहसास हुआ कि क्वीर होने की उनकी समझ मुख्य रूप से जीवन अनुभव से उपजी है। हम अक्सर यूरोमेरिकन क्वीर सिद्धांत पर चर्चा करते थे, लेकिन एक कलाकार के रूप में घोष को सिद्धांत की ज्यादा परवाह नहीं थी। आज, शिक्षा जगत और सोशल मीडिया में लैंगिकता के अध्ययन को उपनिवेश से मुक्त करने पर बहस छिड़ी हुई है, लेकिन एक दशक से भी पहले, घोष की फिल्में इस तथ्य को उद्घाटित करती थीं। मैंने ‘ए रूम ऑफ हिर ओन: द क्वीर एस्थेटिक्स ऑफ रितुपर्णो घोष’ (2015) में तर्क दिया हैः घोष अक्सर गैर-मानक कामुकता व्यक्त करने के लिए कलाकारों के माध्यम रूप में क्वीर होने के क्षेत्रीय परिदृश्यों का सहारा लेते हैं:

अरेकटी प्रेमर गोल्पो गौड़ीय वैष्णववाद और भगवान चैतन्य की उभयलिंगी छवि की ओर लौटती है; मैमोरीज इन मार्च राधा-कृष्ण मिथक को उजागर करती हैं; चित्रांगदा महाभारत के एक प्रसंग को टैगोर के प्रसिद्ध पाठ के माध्यम से प्रस्तुत करती है। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि टैगोर स्वयं प्रेम और पूजा की अपनी अवधारणा के लिए वैकल्पिक शब्दावली की तलाश में बार-बार वैष्णव पदावली की ओर लौटे थे। घोष समझदारी से, वैष्णववाद और टैगोर को आपस में मिलाते हैं। वह जानते हैं कि बांग्ला भाषी दर्शकों द्वारा यह सराही जाएगी क्योंकि वे टैगोर के काम से भलीभांति परिचित हैं।

ऋतुपर्णो घोष

अपने पूरे करिअर में, घोष सिनेमा की क्वीर भाषा की तलाश में रहे। उनकी दो फिल्मों रेनकोट और मैमोरीज इन मार्च में गीत लिखने के लिए उन्होंने ब्रजबुली भाषा चुनी। ऋतुपर्णो घोष की फिल्मों में प्रेम गीत (2018) में ब्रिजबुली के माध्यम से उन्होंने क्वीर लालसा व्यक्त की। मैंने तर्क दिया, साहित्यिक भाषा ब्रजबुलि तो कई भाषाओं, जैसे मैथिली, बंगाली, हिंदी और बृजभाषा (ब्रिजबुली से अलग) का मिश्रण है। यह भाषा न तो भू-राजनीतिक स्थान तक सीमित है न किसी एक भाषाई समुदाय तक। बल्कि यह अस्थायी, लचीली और अलग-अलग कवियों द्वारा लाए गए परिवर्तन को समायोजित करने के लिए खुली है। यही वजह है कि ऐसी लचीली भाषा लैंगिक पहचानों के बीच के अंतर, अतिरेक और तरलता को उचित रूप से पकड़ सकती है। इसके अलावा, जैसा कि विद्यापति की कविताओं और नव-वैष्णव कवियों की कविताओं से पता चलता है, यह भाषा अत्यधिक जुनून, यौन परित्याग और कामुक रोमांस की वाहक रही है, जो उनके बारे में शुद्धतावादी आचरण को बताती है। घोष के लिए, जो अपनी कला को मूल परंपराओं में स्थापित करने में दृढ़ता से विश्वास करते थे, क्वीर इच्छाओं और पीड़ा को दिशा देने और ऐतिहासिक बनाने के लिए इससे अधिक उपयुक्त भाषा क्या हो सकती थी? अफसोस कि क्वीर भाषा के लिए अपनी आजीवन खोज को पूरी तरह महसूस किए बिना ही उनकी जल्द मृत्यु हो गई।

मृत्यु और विरासत

30 मई, 2013 को घोष के असामयिक निधन का समलैंगिक समुदाय पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उनके डॉक्टर राजीव सील के एक खुलासे ने लिंग बदलने की चाह रखने वालों को व्याकुल कर दिया। चित्रांगदा में छोटी सी भूमिका में दिखाई देने वाले डॉक्टर राजीव सील ने मीडिया (द टाइम्स ऑफ इंडिया, 28 जून, 2013) को बताया कि कैसे अरेकटी प्रेमर गोल्पो में एक ट्रांसवेस्टाइट किरदार की भूमिका के लिए एब्डोमिनोप्लास्टी, हार्मोन थेरेपी और स्तन प्रत्यारोपण सर्जरी से गुजरने के घोष के फैसले ने अंततः उनकी जान ले ली। घोष मधुमेह के मेलिटस टाइप 2 और अग्नाशयशोथ से पीड़ित थे। लिंग बदलवाने की जो प्रक्रिया उन्होंने अपनाई, वो उनके लिए घातक साबित हुई। कुछ लोगों ने इसे अनावश्यक बताया। लेकिन एक वर्ग ऐसा भी था, जो लिंग डिस्फोरिया की पीड़ा से परिचित अन्य लोगों को उनके प्रति गहरी सहानुभूति रखे था। विडंबना कि इस बहस ने घोष की स्थिति को एक कट्टरपंथी, मूर्तिभंजक कलाकार के रूप में मजबूत किया, जो अपनी शर्तों पर जीवन जीते थे।

घोष ने जो विरासत छोड़ी है, वह इस मायने में बेजोड़ है कि उन्होंने अनिवार्य विषमलैंगिकता के साये में पीड़ित लाखों लोगों की जिंदगियों को बदल दिया है और उन्हें आवाज दी। हालांकि, बांग्ला सिनेमा उद्योग में प्रतिभा की कमी के कारण घोष की सिनेमाई विरासत आगे नहीं बढ़ पाई। जबकि बांग्ला थिएटर में घोष से प्रेरित कुछ दिलचस्प रचनाएं पिछले एक दशक में सामने आईं। दुखद है कि घोष के निधन के साथ, बांग्ला फिल्म उद्योग फिर से सामान्य स्थिति में लौट आया। एक भी फिल्म निर्माता ऐसा नहीं हुआ, जो उन जैसा प्रभाव डालता। 

नोटः लिंग-तटस्थता और इसके प्रति चेतना के आने से पहले ही घोष का निधन हो गया। घोष ‘ही’ को ही प्राथमिकता देते थे, क्योंकि तब कोई और विकल्प नहीं था। हालांकि, मैंने अपनी पुस्तक में ज़ी, हिर आदि का उपयोग किया है। यहां, मैंने पुल्लिंग सर्वनाम पर ही टिके रहने का फैसला किया, क्योंकि मैंने सोचा अगर घोष खुद कभी अपने सर्वनाम से सावधान नहीं रहे तो इसका क्या मतलब है?

(लेखक जादवपुर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य और क्वीर अध्ययन पढ़ाते हैं। विचार निजी हैं)

 

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