राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सौ वर्ष की यात्रा ने निश्चित रूप से देश में एक वैचारिक बहस शुरू कर दी। आप उसके पक्ष में हों या विरोध में, पर वर्षों से समाज में यह स्वस्थ परंपरा गायब है। जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या आरएसएस का नाम सुनते ही आप एक रहस्यलोक की यात्रा पर निकल जाते हैं, उसके बारे में काफी कुछ लिखा और कहा जा चुका है। जैसे, आरएसएस गुप्त संगठन है, आरएसएस अलोकतांत्रिक है, आरएसएस में महिलाओं और अल्पसंख्यकों के लिए कोई जगह नहीं है, उसका कोई संविधान नहीं है; उसका छद्म एजेंडा है, खुद को सामाजिक तथा सांस्कृतिक संगठन कहता है, पर असंवैधानिक और अपरोक्ष रूप से राजनीति करता है और सत्ता का संचालन भी करता है, अंतत: संघ भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है।
1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माण से पहले का हिंदुस्तान क्या था और हिंदू-मुस्लिम भाईचारे और एकता के साथ कैसे रह रहे थे, यही तथ्य अलग-अलग शब्दों-अर्थों में हमारे सामने रखा जाता है, हालांकि यह तथ्य सच्चाई से बिल्कुल परे है।
अविभाजित भारत के उस हिस्से में जो अब ज्यादातर पाकिस्तान के हिस्से में चला गया है, आर्य समाज अपनी जड़ें जमा चुका था। उसकी अपनी हिंदू आइडियोलॉजी भी थी, जिसे दो उदाहरणों से समझा जा सकता है। 1923 में दो पुस्तकें तथाकथित मुस्लिम समाज की ओर से प्रकाशित की गईं। ‘19वीं सदी का महर्षि’ शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक में स्वामी दयानंद सरस्वती के चरित्र और विचारों पर विपरीत टिप्पणियां की गईं, और ‘कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी’ जिसमें हिंदुओं के आराध्य के चरित्र पर कीचड़ उछाला गया। इन दोनों किताबों के उत्तर में महाशय राजपाल ने 1924 में पुस्तक ‘रंगीला रसूल’ लिखी। महाशय राजपाल उस समय के प्रख्यात आर्य समाजी और प्रकाशन की दुनिया का बड़ा नाम थे। ‘रंगीला रसूल’ उपरोक्त दोनों पुस्तकों का उत्तर देने का प्रयास था। इसमें गौर करने लायक बात यह है कि यह पुस्तक उर्दू में प्रकाशित हुई थी, जिस पर अब मुसलमानों की भाषा होने का तमगा लगा दिया गया है।
पुस्तक के प्रकाशन के बाद राजपाल जी को सिविल न्यायालय से डेढ़ वर्ष के कारावास का दंड सुनाया गया, जिसकी अपील हाइकोर्ट में की गई और तत्कालीन न्यायमूर्ति दिलीप सिंह ने उन्हें दोषमुक्त करार दिया। न्यायालय के इस निर्णय के बाद 6 अप्रैल 1929 को इल्मदीन नामक एक व्यक्ति महाशय राजपाल की छाती में छुरा घोंप कर उनका कत्ल कर देता है। आर्य समाज हिंदू हित के लिए, इस घटना को बड़ा बलिदान मानता है। यह घटना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माण के पूर्व और निर्माण के ठीक बाद, यानी संघ के बनने के दौरान हुई सामाजिक परिस्थितियों का आईना है। शायद इस सामाजिक तनाव के नतीजों में ही अलग-अलग तरह के संगठनों ने जन्म लिया।

सौ बरसः हेडगेवार, गोलवरकर ने खड़ा किया संगठन
इन हालात के बीच 1925 में डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना करते हैं, जो 100 वर्ष की निर्बाध यात्रा पूरी कर पाया है। हालांकि अखंड भारत के अल्पसंख्यकों का नेतृत्व करने वाले मुस्लिम लीग ने बड़ी सफलता प्राप्त की और मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में देश को विभाजित कर पाकिस्तान बना भी लिया, लेकिन चंद वर्षों में ही मुस्लिम लीग नेतृत्वहीन होकर इतिहास के कूड़ेदान में चला गया।
भारत के बहुसंख्यक समाज को हिंदुओं के रूप में देखा जाता है, जिसकी स्पष्ट तस्वीर एक उदाहरण से ही दिख जाती है। महात्मा गांधी जिनके औपचारिक अनुरोध पर अफ्रीका छोड़ भारत आए थे, उनमें लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और गोपालकृष्ण गोखले प्रमुख थे। उनके कार्यों और विचारों पर, जब हम एक नजर डालते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वे अपनी धार्मिक पहचान के प्रति अत्यंत संवेदनशील थे। महात्मा गांधी ने अपना पहला सार्वजनिक भाषण हिंदू महासमा के अध्यक्ष तथा घोषित हिंदू नेता मदनमोहन मालवीय द्वारा आयोजित कार्यक्रम में दिया था। इन उदाहरणों से सुस्पष्ट होता है कि विभाजन के पूर्व भी सामाजिक रूप से दो राष्ट्र का निर्माण हो चुका था। विभाजन ने उसे केवल सीमाओं की स्वीकार्यता प्रदान की। भारत को अंततोगत्वा हिंदुस्तान मान लिया गया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 100 वर्ष की उपलब्धि, गांधी हत्या और बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के आरोपों के बावजूद स्मरणीय है। इसके पहले संस्थापक डॉ. हेडगेवार कांग्रेस के न सिर्फ सदस्य थे, बल्कि उसके आंदोलनों में उनकी सहभागिता स्पष्ट रूप से स्थापित करती है कि भारत की आजादी और हिंदू हित दो अलग-अलग मसले थे। और संघ के सौ वर्ष की यात्रा ने यह साबित भी कर दिया है। गांधी हत्या के आरोप के कारण संघ पर लगे प्रतिबंध को 1949 में हटाने के लिए संघ ने सरकार को यह आश्वासन दिया कि वह एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन है। यहीं से संघ के बारे में यह धारणा बनना शुरू हुई कि संघ ऐसा संगठन है, जो दिखावे के लिए तो राजनीति से दूरी रखता है, मगर परोक्ष रूप से उसमें सक्रिय भागीदारी करता है। भारतीय जनसंघ के संस्थापक बलराज मधोक की आत्मकथा ‘जिंदगी का सफर’ में एक दिलचस्प टिप्पणी दर्ज है जिससे संघ की राजनैतिक सोच सामने आती है। आत्मकथा में बलराज मधोक ने लिखा है, ‘‘यदि संघ के प्रचारक को जनसंघ के काम में लगाया जाता था तो यह माना जाता था कि प्रचारक को लूप लाइन में भेज दिया गया है।’’
गांधी और उनके विचारों से गहरी असहमतियों के आरोप भी संघ पर चस्पा हैं। पर इस संदर्भ में हमें एक घटना देखनी चाहिए जो धर्मनिरपेक्षता और जातिवाद के मसले पर संघ के विचारों का एक बड़ा उदाहरण है। 1934 में वर्धा संघ शिविर में कांग्रेस के पूर्व प्रांतीय मंत्री तथा जिला संघसंचालक अप्पाजी जोशी ने महात्मा गांधी को संघ के शिविर में आमंत्रित किया था। संघ के शिविर का निरीक्षण करने के उपरांत गांधी ने जोशी से सवाल किया, ‘‘यहां कितने हरिजन हैं।’’ जोशी ने उत्तर दिया, ‘‘हमें नहीं मालूम क्योंकि हम नहीं पूछते हैं।’’ गांधी का फिर प्रश्न था, ‘‘आप पूछ कर मुझे बताइएगा।’’ जोशी ने फिर उत्तर दिया, ‘‘मैं यह नहीं कर सकता क्योंकि हमारे लिए इतना ही पर्याप्त है कि वे सब हिंदू है।’’ तब गांधी ने कहा, ‘‘क्या मैं पूछ सकता हूं।’’ तो जोशी ने जवाब दिया कि ‘‘यह आप पर निर्भर है।’’ सितंबर 1946 में दिल्ली की भंगी कॉलोनी में स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए गांधी ने कहा था कि ‘‘मैं संघ में स्वयंसेवकों के अनुशासन, अस्पृश्यता का पूर्ण अभाव तथा कठोर सादगी देखकर अत्यंत प्रभावित हुआ।’’ हालांकि गठन से लेकर आज तक संघ को ब्राह्मणवादी व्यवस्था को पुर्नस्थापित करने और नेतृत्व देने वाला संगठन माना जाता है। हालांकि राजस्थान के पूर्व स्वयंसेवक भंवर मेघवंशी अपनी पुस्तक ‘मैं एक कारसेवक था’ में एक घटना का जिक्र करते हुए यह साबित करने का प्रयास कर रहे हैं कि संघ दलित विरोधी, सवर्ण समाज का प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन है।
भारत में जहां तक हिंदूवादी राजनीति का प्रश्न है, तो यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण है कि आजादी के पूर्व 1946 का आम चुनाव कांग्रेस, हिंदू महासभा और अन्य दलों ने मिलकर लड़ा था, वहीं धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार कम्युनिस्टों ने मुस्लिम लीग के साथ चुनाव लड़ा था। हम इतिहास पर नजर डालें, तो गांधी की हत्या के बाद जिस तरह से धर्मनिरपेक्षता को मुख्य मुद्दा बनाया गया और नेहरूवादियों और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी ने उसका इस्तेमाल उसी तरह किया, जैसे बाकी लोगों ने हिंदुत्व का। आजादी के बाद राजनैतिक रूप से कांग्रेस के सामने कोई भी चुनौती मौजूद नहीं थी जो उसकी चुनावी राजनीति और सत्ता समीकरण को बना या बिगाड़ सके। तब उसने हिंदुत्व की वैचारिक हांडी को आंच पर चढ़ाए रखा ताकि वह अपने वोट आधार को मजबूत कर सके। यही शायद संघ के लिए हितकर भी हुआ और अहितकर भी। उसने अपनी यात्रा में राजनीति को सबसे नीचे और सामाजिक दायरे को फैलाते हुए अपने विचारों के प्रति समर्थन जुटाने के लिए जो संगठन खड़े किए, वे समाज के हर क्षेत्र में काम कर रहे हैं। इन्हीं संगठनों के कारण मूल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इतना विशाल हो सका है। जिस तरह लंबे समय तक कांग्रेस के सामने चुनौतियों का अभाव था, वैसी ही स्थिति परोक्ष रूप से संघ और प्रत्यक्ष रूप से उसकी राजनैतिक इकाई भारतीय जनता पार्टी की हो गई है। करणी सेना, हिंदू सेना, दलित सेना, परशुराम सेना ये सब संगठन संघ से संबद्ध नहीं हैं, पर वैचारिक चुनौतियों के अभाव में खुद को उसके अंश के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। इस तरह के उदाहरण से ही किसी वैचारिक आंदोलन के सामाजिक लाभ या हानि को आंका जा सकता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक के गठन से पूर्व खड़ा हुआ हिंदू-मुसलमान सवाल आज भी जस का तस है। अपनी यात्रा में संघ ने तीन प्रतिबंध झेले। पहला, गांधी की हत्या के बाद, दूसरा इमरजेंसी के दौरान और तीसरा बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद। इतिहास के पन्नों को पलटें तो साफ दिखाई देता है कि संघ प्रतिबंध की चुनौती के बाद और ज्यादा मजबूती से खड़ा हुआ। राजनैतिक रूप से संघ को अस्पृश्य मानने वाले दलों के कारनामों पर गौर किया जाए, तो कई प्रांतों में राम मनोहर लोहिया द्वारा गठित संयुक्त विधायक दल या संविद सरकारों के निर्माण और संचालन में संघ ने सक्रिय भूमिका निभाई और सहभागिता की। इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी के निर्माण और उसे सत्ता के शिखर तक पहुंचाने, इमरजेंसी के विरोध में आंदोलन में उसकी महती भूमिका रही है। जयप्रकाश नारायण का चर्चित बयान, ‘‘यदि संघ सांप्रदायिक है तो मैं भी सांप्रदायिक हूं,’’ इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
अस्सी के दशक में इंदिरा सरकार की वापसी के बाद, इंदिरा जी के निर्देशों पर डॉक्टर कर्ण सिंह ने विराट हिंदू सम्मेलनों का आयोजन किया था। उस आयोजन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और बाद में विश्व हिंदू परिषद के बड़े नेता बने अशोक सिंघल की भूमिका थी और बाद में संघ के सहयोग के लिए आभार प्रकट किया गया था। हाल ही में डॉक्टर कर्ण सिंह का ताजा बयान संघ की भूमिका को अलग तरह से परिभाषित करता है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर राजीव सरकार के विरोध में खड़ा हुआ विश्वनाथ प्रताप सिंह का आंदोलन और उसके अंजाम की भूमिका में संघ के योगदान को आप नकार नहीं सकते हैं। यह बहुत उल्लेखनीय है कि सिंह की सरकार का नेतृत्व कांग्रेस से बाहर आया एक धड़ा कर रहा था, जिसमें समर्थन दे रहे कम्युनिस्ट प्रमुख थे। कांग्रेसी सत्ता के खिलाफ खड़ा हुआ आंदोलन यानी अन्ना आंदोलन में भी संघ की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता, जिसने पूरी कांग्रेस को ही वेंटिलेटर पर ला खड़ा किया।
हिंदू राष्ट्र के सवाल को समझने के लिए, पाकिस्तान में भारत के पहले राजदूत और बाद में महाराष्ट्र के राज्यपाल बने, कांग्रेस के बड़े नेता श्रीप्रकाश अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान के प्रारंभिक दिन’ में लिखते हैं कि वे लाहौर में लोक सेवक मंडल (सर्वेंट्स ऑफ द पीपल सोसाइटी) के मुख्य स्थान लाजपत भवन गए थे। लाला लाजपत राय ने 1921 में इस संगठन की स्थापना की थी। वे लिखते हैं, ‘‘मैंने वहां देखा कि श्रीमती रामेश्वरी नेहरू और अचिंत राम उस भवन में इकट्ठा हुए हिंदू स्त्री-पुरुषों को सांत्वना दे रहे थे और उनके प्रवास का प्रबंध करने के लिए प्रयत्न कर रहे थे। जब मैं उनके बीच पहुंचा तो वे सब भड़क उठे। श्रीमती नेहरू ने गुस्से में कहा, तुम अब तक कहां थे, तुम जो हमारे उच्चायुक्त बने हुए हो। मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि यह क्या हो रहा है। अचानक एक सज्जन के दोनों हाथ मेरी तरफ आने लगे, जैसे वे मेरा गला घोंट देंगे। उन्होंने चिल्लाकर कहा कि तुम हमारे उच्चायुक्त बने हुए हो और तुमने हमें इस दशा में छोड़ दिया।’’ श्रीमती नेहरू और उन सज्ज्न की बात इंगित करती है कि भारत हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने वाला देश बन गया है, चाहे हम इसे स्वीकार करें या न करें।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह स्पष्ट मानता है कि राज्य का कोई भी धार्मिक एजेंडा नहीं होना चाहिए और बिना किसी धार्मिक भेदभाव के संविधान और कानून के मुताबिक अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, फिर भी संघ के आलोचक उसके इस बयान को संदिग्ध दृष्टि से ही देखते हैं। ‘मेरा सफरनामा: जीवन और संघर्ष’ लिखने वाले कैप्टन अब्बास अली जो उप्र जनता पार्टी के अध्यक्ष और आजाद हिंद फौज में कैप्टन रहे थे, अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि का उल्लेख करते हुए लिखते हैं ‘‘हमारे खानदान का सजरा (पेडिग्री) सूर्यवंशी राजा रामचंद्र से शुरू होता है। उनकी नस्ल, वीर नस्ल राजपूतों के मुख्तलिफ गोत्र राजपूत सोलंकी से है। मोहम्मद गजनवी ने 1066 ईस्वी में सोमनाथ मंदिर पर चढ़ाई की थी, तब हमारे पुरखे आखिरी वक्त तक लड़ते रहे और जब कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया, तो औरतों ने जौहर कर लिया। कालांतर में हमारी नस्ल में दो भाई हुए, जिसमें बड़े लड़के का नाम नाहर सिंह और छोटे लड़के का नाम खान चंद्र सिंह था। ठाकुर खानचंद्र सिंह ने मशहूर सूफी संत शम्स खैल की तरगीब से प्रभावित होकर इस्लाम मजहब कबूल कर लिया और उनका नाम मल्हार खां रखा गया।’’ हिंदू-मुस्लिम के सवाल पर कैप्टन अब्बास अली की लिखी लाइनें सवाल भी खड़े करती हैं और जवाब भी देती हैं। फिलहाल संघ को अपनी 100 बरस की यात्रा में अपने सामने खड़े हुए अनेक प्रश्नों का उत्तर तलाश करना है और खुद को ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ साबित करना है, जिसमें राष्ट्र पहले है।

(जावेद अख्तर की जीवनी जादूनामा के लेखक, आरएसएस पर पुस्तक इस वर्ष प्रकाशित होने वाली है, विचार निजी हैं)