हम जिस संकट पर यहां बात कर रहे हैं, वह सिर्फ भारत की परिस्थिति नहीं है, पूरी मानव प्रजाति का मामला है। इतिहास में बहुत बार मानवता ऐसे दार्शनिक संकटों से गुजरी है जब पूरे मानवीय अंतस को ही अलग-अलग कारणों से धक्का पहुंचता है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। जैसे, दो बड़े महायुद्ध हुए, उस समय भी यह हुआ था। आज भी हम देख रहे हैं कि पूरी मानव प्रजाति हिंसा के ऐसे कगार पर आ चुकी है जहां सारे हथियार पांच बार इस पृथ्वी को जलाकर भी बचे रह जाएंगे। इतने हथियार जब आदमी बनाता है, तो इसके पीछे कोई न कोई गहरा दार्शनिक संकट होता है। समझ नहीं आता कि हम क्यों जी रहे हैं और किस परिस्थिति में जी रहे हैं। उससे पूरी चेतना और अवचेतन भी संकट में जा चुका है।
इसी संकट का दूसरा लक्षण हम यह देखते हैं कि पूरी मानव प्रजाति में खुदकशी की दर आज सबसे ऊंची है। अलग-अलग कारण हैं इसके, लेकिन जिस तरह की टेक्नोलॉजी के साथ मनुष्य काम कर रहा है उसकी अपनी गति और मानव प्रजाति के दिमाग की गति, दोनों का कहीं न कहीं जोड़ नहीं हो पा रहा है। इसका मतलब यह है कि इंसान ने ऐसी उत्पादन प्रणाली को खड़ा कर दिया है जिसकी गति को वह नियंत्रित नहीं कर पा रहा है। इससे मेरा आशय अंतरराष्ट्रीय पूंजी और सूचना-तंत्र से है, लेकिन मैं पूंजी की ही बात पहले करता हूं क्योंकि वह ज्यादा प्रभावित करती है।
ये जो पूंजी है, उसका आवेग इतना तेज और संरचना इतनी जटिल है कि अर्थशास्त्री और बौद्धिक वर्ग भी इसे समझ नहीं पा रहा है। आज अलग किस्म का पूंजीवाद पनप रहा है। इसका सीधा असर उत्पादन तंत्र पर हुआ है। उसकी संरचना बदल रही है, तो समाज का ढांचा टूट रहा है। समाज बदल रहा है, तो शत्रु का स्वरूप भी बदल रहा है। खुद मानव जाति का ढांचा बदल रहा है। मनुष्य का विघटन हो रहा है। वह एलिनेशन में चला गया है। मराठी में इसे हम परात्मवाद बोलते हैं। परात्मकता की यह परिस्थिति बहुत अलग है। औद्योगिक पूंजीवाद में भी परात्मकता थी, लेकिन आज जो परात्मकता है वह मुझे अलग किस्म की दिख रही है। जैसे, आज इंसान को लगता है कि वह बहुत ग्लोबल है मगर ठीक उसी वक्त यह भी महसूस करता है कि वह बहुत सिकुड़ गया है। मतलब, वह ग्लोबल मनुष्य की तरह पेश आता है लेकिन अपनी जाति, बिरादरी, भाषा, धर्म के बारे में बहुत संकीर्ण होता है। यह विचित्र है। ऐसा मनुष्य देखता बहुत है, वह रोज स्क्रीन पर इतना ज्यादा देखता है कि अंत में पूछो क्या देखा तो बता ही नहीं पाता कि क्या देखा है।
ऐसी परिस्थितियां मानव जाति को धकेलते-धकेलते अब यहां तक ले आई हैं कि मानव जाति खुद का अंत कर रही है। संभव है ज्यादातर विनाश प्रकृति से हो क्योंकि जिस तरह हमने प्रकृति को खत्म किया है, यह स्वाभाविक है। प्रकृति के साथ हमारा रिश्ता इतिहास में बार-बार टूटा और जुड़ा है, लेकिन पहले हम प्रकृति के साथ लड़ाई करते थे, फिर समन्वय भी कायम कर लेते थे। आज हमारा समन्वय टूट गया है। यह बहुत खतरनाक है। बहुत ज्यादा खतरनाक। यह खुद को ही खत्म करने का, खुद की मां को खत्म करने का काम करेगा।
यह क्यों हो रहा है? क्योंकि पूंजी की प्रकृति ने मार्केट को इतना अहम बना दिया है कि हमारी पूरी जिंदगी ही मार्केट से घिर चुकी है। इसीलिए मार्केटवादी राइट विंग ताकतें दुनिया में ज्यादातर जगह सत्ता में आ गई हैं। कुछ लोग इसको अलग तरह से देखते हैं, कि लेफ्ट को जो प्रश्न हल करने चाहिए थे वह नहीं कर सका, खुद संकट का कारण बन गया और राइट की तरफ चला गया। मैं इससे इनकार नहीं करता, लेकिन संविधान के संदर्भ में समस्या राइट विंग से आ रही है।
संविधान के बारे में एक अवधारणा जो खासकर राइट विंग ताकतों द्वारा बनाई गई है, वह यह है कि हमारा संविधान बाहरी देशों के प्रभाव में बनाया गया और इसमें भारतीय संस्कृति का अंश नहीं है। गहराई में जाकर अगर देखें, तो स्वाधीनता के आंदोलन के साथ जिन्होंने काम नहीं किया था उनके लिए आंदोलन से निकले किसी भी डॉक्यूमेंट से सहमत हो पाना मुश्किल है। भारत के स्वाधीनता आंदोलन में बार-बार दिखता है कि धर्मांध ताकतों ने- चाहे हिंदू हों या मुस्लिम- आंदोलन का रास्ता नहीं अपनाया था क्योंकि उन्हें धर्म के आधार पर राष्ट्र को खड़ा करना था। इसलिए उनकी संविधान में पहले दिन से ही आस्था नहीं है। उसकी जड़ में संविधान का मूल दर्शन है।
संभाजी भगत
भारत के संविधान में पहला ही शब्द है, ‘वी द पीपुल ऑफ इंडिया’, जिसे नेहरू जी ने लिखा है और आंबेडकर जी ने ठीक तरीके से फ्रेम किया है। इसमें 21 संकल्प दिए हुए हैं। इसमें आइडिया ऑफ इंडिया छुपा है। कौन हैं हम भारत के लोग? ये जो आइडिया ऑफ इंडिया है, इसको गांधीजी, नेहरूजी, आंबेडकर, भगत सिंह और अपनी जान गंवाने वाले लोगों और निचले तबके ने तैयार किया है। वह क्या है? कि हम हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई साथ रहेंगे, भाईचारा रखेंगे, और स्टेट सारे धर्मों को बराबर दूरी पर रखेगा और राजनीति के साथ नहीं जोड़ेगा।
ये संकल्प कहां से आए हैं? दुनिया में जो बड़े-बड़े संघर्ष हुए- फ्रांस, रूस, चीन और लातिन अमेरिकी देशों में जो क्रांतियां हुईं, काले लोगों के योद्धा हुए- इन तमाम जन आंदोलनों से निकली हवा दूसरे महायुद्ध के बाद जो बह रही थी, उससे हमारे यहां भी लोग बहुत प्रभावित हुए। निश्चित रूप से उसका असर हमारे संविधान के ऊपर है। दूसरी बात, इतिहास में जो धर्म-पूर्व धर्म थे यानी हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई धर्म जब नहीं थे तब जो लोकधर्म हुआ करते थे, वह हमारी बुनियाद है। हमारी जाति, भाषा, खानपान, रहन-सहन, सब अलग थे इसके बावजूद जो हमारा लोकधर्म था उसकी बुनियाद बहुत तगड़ी थी। इसे हम श्रमण धर्म कहते हैं। सबसे पहले जैन और बौद्ध धर्म इसमें आते हैं। इसका दर्शन पढ़ने पर पता चलता है कि मानवतावादी दृष्टिकोण बनाने का सिलसिला जैन, बौद्ध और पूरे भक्ति आंदोलन से आया है। भक्ति आंदोलन में लोग क्या मांग रहे थे? एक आध्यात्मिक समता। वह हमारी रगों में है, खून में है।
इस देश में हूण आए, शक आए, तुर्क, पुर्तगाली, मुगल, अंग्रेज सबने राज किया लेकिन हमारी जो बुनियाद है वह कुछ अलग है। वो जो इकबाल बोलता है कविता में, कि हमारी हस्ती मिटती नहीं। हमारी हस्ती उसी बुनियाद से बनी है। इसलिए हम देखते हैं कि हमारे संविधान में जो मूल्य-व्यवस्था है उस पर धर्म-पूर्व धर्मों की पूरी छाप है। अब ये जो हिंदू धर्म है, यह कोई धर्म नहीं है। यह संस्कृति है। इस संस्कृति के राइट और लेफ्ट दो भाग हैं। मतलब एक प्रगतिशील है और दूसरा यथास्थितिवादी। या कह सकते हैं एक अवैदिक है और दूसरा वैदिक। इसको समझाने के लिए मैंने एक गाना भी लिखा था। कुछ लोग हिंदू कल्चर को ब्राह्मण से जोड़ देते हैं। ब्राह्मण नहीं बोलना चाहिए क्योंकि यह एक जाति है। मेरे बहुत सारे दोस्त ब्राह्मण हैं। मूवमेंट के दोस्त हैं। कुछ ने जान दी है। यह कोई जाति का मसला नहीं है, कल्चर का है, विचार का मसला है। तो ये जो संविधान के इक्कीस संकल्प हैं, उसकी बुनियाद इस देश में ही है, बेशक बाहर का कुछ प्रभाव भी है। बाबा साहब खुद लिखते हैं कि वे जब संविधान लिख रहे थे तो इस देश की समतावादी परंपराएं उनके सामने थीं, जैसे बौद्ध, जैन, शिवाजी का स्वराज, इसलिए उन्हें ज्यादा तकलीफ नहीं हुई।
वैसे तो संविधान कागज पर है, लेकिन हमको इससे कुछ मिला क्या? सत्तर साल में हमको किधर जाना था? अगर हम लोग उत्पादन के उपलब्ध साधनों की ही बात करें, तो हमें इस संविधान के साथ अब तक सोने की चिड़िया बन जाना चाहिए था न? लेकिन नहीं बने। इसका मतलब कि संविधान को लागू ही नहीं किया गया। सिर्फ कागज पर एकता है, वह भी लोग सह नहीं सकते। कागज पर लिखी हुई एकता से ही उनको डर लगता है, कि वास्तव में आ जाए तो क्या होगा? इसलिए संविधान नहीं चाहिए, ऐसा कुछ लोग छुप-छुप कर बोलते हैं। खुलकर बोलने वाले लोग कम हैं, जैसे कर्नाटक का अनंत हेगड़े। एक यूपी में अयोध्या का कोई नेता बोला था कि चार सौ से ऊपर सीट चाहिए ताकि संविधान हटा सकें। ऐसे लोग संविधान को हटाना चाहते हैं और इसके लिए छुप-छुप कर बहुत काम हुआ है। उन्होंने संविधान जलाया है। ये तो पाप है। मेरे पास और कोई शब्द नहीं। ऐसा करने वालों में सिर्फ आरएसएस ही है क्या? ना, सिर्फ आरएसएस नहीं है।
हमारे देश में जो पॉलिटिकल कम्युनिटी है, उसमें कभी कोई विरोधी पक्ष बना ही नहीं। इसका कारण यह है कि हमारी पूरी राजनीति ही वैचारिक रूप से एक है। लागू करना तो छोड़िए, कांग्रेस ने कभी संविधान के प्रचार-प्रसार का काम भी किया क्या? कभी नहीं। उलटा संविधान का उल्लंघन उनके राज में हुआ, उन्होंने खुद किया। अब क्या बोल रहे हैं, कि हम संविधान को बचाएंगे। जब संविधान जलाया तब तो कुछ नहीं बोले? अब देखिए, ये सुप्रीम कोर्ट का जाति के वर्गीकरण का जो फैसला आया है, तो मुलायम सिंह यादव के सुपुत्र कुछ नहीं बोलते, राजीव गांधी के सुपुत्र भी कुछ नहीं बोलते हैं। शरद पवार कुछ नहीं बोले, उद्धव ठाकरे चुप हैं। सिर्फ चुनाव के टाइम संविधान का मुद्दा इन्होंने उठाया। यह कर्मकांड है। संविधान बचाने का रिचुअल चल रहा है। अलग-अलग पार्टियां अपनी जीवनरक्षा के लिए इसका इस्तेमाल कर रही हैं।
संविधान के संदर्भ में जो संसदेतर ताकतें हैं- चाहे वे लेफ्ट की हों या रैडिकल आंबेडकरवादी- उनका नजरिया यह था कि इस देश में इस संविधान को लागू करना बिना डेमोक्रेटिक रिवॉल्यूशन किए मुश्किल है। उनका मानना था कि पहले देश में डेमोक्रेटिक रिवॉल्यूशन करते हैं, उसके बाद डेमोक्रेटिक वैल्यू सिस्टम के बारे में सोचेंगे। उनका मानना था कि जनवादी क्रांति के बगैर डेमोक्रेसी आ ही नहीं सकती। नामदेव ढसाल या दिलीप चित्रे की कविताओं में आपको यही बात देखने को मिलेगी। इनमें नक्सल, पैंथर्स, जाति का उन्मूलन करने वाले लोग, ये सारे दिखते हैं लेकिन इन सब का संविधान की मूल्य व्यवस्था से कोई विरोध नहीं था। इन्हें सेकुलरिज्म से, समाजवाद से, स्वतंत्रता से कोई विरोध नहीं था। आइडिया ऑफ इंडिया से इनका विरोध नहीं था। जो आरएसएस या राइट विंग का नजरिया है, वह इससे अलग है। इनको तो संविधान ही नहीं मांगता है। उनको मनुस्मृति टाइप चीज चाहिए। यह फर्क है दक्षिणपंथी ताकतों और संसदेतर वाम और आंबेडकरी मूवमेंट के बीच। इसे हमें समझना चाहिए।
अब मैं वापस पूंजी पर आऊंगा, जिसका मैंने पहले जिक्र किया था। नब्बे के दशक के बाद जिस किस्म की उत्पादन व्यवस्था पनप रही है या पनपी है उसका विश्लेषण करने की विचारधारात्मक ताकत वाम और आंबेडकरी ताकतों में नहीं रही। मैं यह नहीं कह रहा कि सब के सब लोग खत्म हो गए, लेकिन लेफ्ट और आंबेडकरी ताकतें भारतीय समाज को विश्लेषित करने का नया औजार बनाने में असफल रहीं। लेफ्ट और आंबेडकरवादी मूवमेंट में विचारधारात्मक नैतिकता का तो पतन हुआ ही है, लेकिन मुझे लगता है कि विश्लेषण का सही उपकरण ये लोग नहीं बना पाए। इसीलिए आइडियोलॉजी का सवाल मुझे प्राथमिक लगता है। कोई दूसरा आंबेडकर या मार्क्स या एंगेल्स हमारे देश में पैदा नहीं हुआ। नए तरीके से जो समाज की परिस्थिति खड़ी हुई है उसको विश्लेषित करने का तरीका हमारे पास नहीं है, इसी वजह से नैतिक पतन की शुरुआत हो चुकी है। इसका कोई अंत नहीं है।
आनंद तेलतुम्बडे जैसे लोगों ने बहुत कोशिश की इस दिशा में, लेकिन उनको उसका ईनाम भी मिला है। आज के जमाने में यह काम किसी एक दिमाग का नहीं है। ज्ञान के क्षेत्र में, संस्कृति के क्षेत्र में, अलग-अलग दार्शनिकों और बौद्धिकों का यह सामूहिक काम है। औद्योगिक पूंजीवाद को समझना आसान था, वहां शत्रु स्पष्ट था, स्टेट बहुत साफ दिखता था। आज चीजें बहुत बदल गई हैं।
जो मैंने हिंदू संस्कृति में लेफ्ट और राइट कहा, वह अवैदिक और वैदिक है। आरएसएस हिंदू नहीं है। उसकी विचारधारा वैदिक है। इसलिए आरएसएस हिंदू के बजाय सनातन पर जोर देता है। ऐसा नहीं है कि वैदिक फिलॉसफी लोगों को पकड़ती नहीं। इसका दर्शनिक दांव-पेंच बहुत गहरा है। बौद्ध मत को ऐसे ही नहीं उखाड़ के खत्म कर दिया गया यहां से। इसलिए आरएसएस सनातन का चोला पहन कर संविधान बदलेगा। जिसे वह युनाइटेड हिंदुइज्म कहता है, वह वैदिक परंपरा है। वे उसकी तरफ ही जाएंगे, लेकिन जैसा मुस्लिम धर्मराष्ट्र होता है वैसा धर्मराष्ट्र वे नहीं बनाएंगे। उनका स्टाइल बहुत गहरा है। उसके खिलाफ लड़ना और भी मुश्किल होता है। सामान्य लोग इसकी पकड़ में आसानी से आ जाते हैं। इसीलिए मैंने कहा कि यह कल्चरल पॉलिटिक्स है- वैदिक कल्चरल पॉलिटिक्स। इसके खिलाफ हमको अवैदिक या अलग-अलग तरह के मतों को इकट्ठा कर के एक प्रगतिशील कल्चरल विकल्प खड़ा करना पड़ेगा। यह लंबी बहस है। यह बहस अभी चलेगी।
संसदीय प्रणाली की चुनावी राजनीति कुछ हद तक तो ठीक है, कि राजीव गांधी या बाल ठाकरे के सुपुत्र आ जाएंगे, लेकिन इन लोगों की समझदारी इन चीजों के बारे में बिलकुल नहीं है। वे सिर्फ पावर सीकर हैं। इन्हें मैं उपहिंदू कहता हूं। उपहिंदू माने, आरएसएस जो गहरी चीजें निकाल कर लाता है, उसके ऊपर से ये लोग सॉफ्ट लाइन लेते हैं और उसी का इस्तेमाल कर कुछ जगहों पर सत्ताधारी बन जाते हैं। आज ये उपसत्ताधारी हैं। ये उपराज्यकर्ता हैं। ये अपोजीशन भी नहीं हैं।
अभी राजीव गांधी के सुपुत्र संसद में जो कर रहे हैं, वे एकदम लाइन पर चल रहे हैं और एक विपक्ष खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी खुद की विचारधारा ही बाद में जा कर लफड़ा करने वाली है। कांग्रेस की पूरी विचारधारात्मक समझदारी ही उनके लिए दिक्कत पैदा करेगी। इसलिए राहुल गांधी को कांग्रेस के भीतर ही बड़ी विचारधारात्मक जंग छेड़नी पड़ेगी। मैं बंबई में उनसे पंद्रह बीस मिनट मिला और बात की। मैंने पूछा कि विचारधारात्मक लड़ाई करने की आपकी ताकत कितनी है। उन्होंने कहा कि देखो, कांग्रेस पूरा फ्यूडल (सामंती) गढ़ है। सब के सब सामंत हैं। ये कल भाजपा में जाने वाले हैं। वे जाएंगे और हम कुछ नहीं कर सकते क्योंकि कांग्रेस बनी ही ऐसे है। इसी की वजह से तो सनातनी लोग आए। इनकी कोई अलग वैचारिक समझदारी नहीं है। अरे, लेफ्ट और आंबेडकराइट इतने जुझारू लोग हैं, जब वे इतने गहरे विचारधारात्मक संकट में हैं तो ये कौन हैं?
मेरा भरोसा इसीलिए जनता पर है। पार्टी छूट भी जाए तो जनता मां होती है। जनता के पास जाना चाहिए। आज जनता हिंदुत्ववादियों के पास जाएगी क्योंकि क्राइसिस है। भयंकर क्राइसिस है। वह जाएगी, लेकिन कल को जरूर यही जनता मुक्ति की बात करेगी इस पर मेरा तगड़ा भरोसा है। अगर विकल्प नहीं खड़ा हुआ तो सिविल वॉर होगा, लेकिन यहां का संकट बांग्लादेश से बहुत अलग है। आज हम लोग जो उत्तर भारत का संकट देख रहे हैं, कि कांवड़िये पुलिस की गाड़ी जला दे रहे हैं, आप क्या बोलेंगे उसको? यह संकट का सिस्टम है, जो एकदम टॉप पर आ गया है। इसमें नौ लोग मर गए। ये जो सारी चीजें हो रही हैं, ये सब क्राइसिस के लक्षण हैं। अंदर जो सड़ गया है, यह उसका लक्षण है।
सिविल वॉर होगा, ऐसा कहने का मतलब है कि कोई मिथकीय किस्म की जंग नहीं होने वाली है। अंतरराष्ट्रीय पूंजी की दिशा पर यह सब निर्भर है, कुछ भी हवा में नहीं होगा। ये जो बांग्लादेश में अभी हुआ है, अंतरराष्ट्रीय पूंजी के संकट के साथ उसका क्या संबंध है उस पर अध्ययन करना पड़ेगा। उसके अंदर कम्यूनल ताकतें भी हैं। क्या संकट है वहां का, बांग्लादेश में जल, जंगल, जमीन की क्या परिस्थिति है, अंतरराष्ट्रीय पूंजी वहां क्या करना चाहती है, यह सब देखना होगा। भारत में तो हम लोग थोड़ा बहुत स्टडी कर भी रहे हैं, वहां का तो कुछ भी हम नहीं जानते।
मुझे दिखता तो यही है कि ये सब कुछ अंतरराष्ट्रीय कैपिटलिज्म के संकट का परिणाम है, लेकिन इसके ठोस साक्ष्य खोजने पड़ेंगे। मेरे खयाल से बहुत जल्द ही यह संकट हमारे यहां भी आने वाला है। यह सरकार पांच साल पूरे कर पाएगी, इस पर मुझे शक है। जैसे दृश्य बदलता है तो नेपथ्य भी बदलता है वैसे ही अगर भाजपा आने वाले संकट को संभाल न सकी तो राजनीति के रंगमंच पर भी वही होगा। आरएसएस कुछ भी कर सकता है। जैसे बयान आ रहे हैं, मुझे लगता है कि दोनों की आपसी समझदारी में कुछ लोचा है।
अगले पांच साल के भीतर प्रगतिशील ताकतों की कोई नई वैचारिक समझदारी बनेगी। चालीस-पैंतालीस के लपेटे में जो लोग हैं, ये कुछ नया समाधान निकालेंगे। सीपीआइ-सीपीएम तो विचारधारात्मक रूप से बूढ़े हो गए लेकिन नए तरीके से मार्क्सवाद, आंबेडकरवाद, फुलेवाद को समझने वाले जो लोग हैं, महिलावादी हैं, पर्यावरणवादी हैं, ये लोग मिल कर कुछ नया खड़ा करेंगे।
सन पच्चानबे के बाद पैदा हुई पीढ़ी का वैचारिक संकट बहुत बड़ा है। यह पीढ़ी विचारधारा के अंत की प्रोडक्ट है। इनको कोई वैचारिक बात समझने में बहुत दिक्कत आती है, लेकिन इनका एक मजबूत पक्ष टेक्नोलॉजी है। अगर टेक्नोलॉजी के ज्ञान के साथ आइडियोलॉजी मिल जाए तो वे बहुत काम कर सकते हैं। नई पीढ़ी का आर्थिक संकट बड़ा है। यूपी में अभी बयालीस लाख लोग पुलिस भर्ती में गए थे। उसमें उनका सिलेक्शन नहीं हुआ तब? लफड़ा होगा न? जैसे आज बांग्लादेश में तमाम बेरोजगार युवा उठ खड़े हुए हैं- भले ही उनमें कुछ सांप्रदायिक हों- वैसे ही ये भी सिविल वॉर में फंस जाएंगे, मार खाएंगे। तब उनके वैचारिक रूप से सुधरने का चांस ज्यादा होगा।
संविधान सभा की बहसों से...
संविधान भारत के लोगों के प्रति एक उदात्त संकल्प है कि विधायिका ऐसा हर संभव काम हाथ में लेगी जिससे समाज का नए सिद्धांतों के आधार पर जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण किया जा सके। - के.एम. पणिक्कर
संविधान सभा की बहसों से...
पंचायतें इसलिए आवश्यक हैं क्योंकि उनसे जनता को शासन का प्रशिक्षण मिलता है। लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं होगा अगर किसी अवसर विशेष पर चंद लोग किसी खास उद्देश्य के लिए इकट्ठा हो जाएं और सभा में एक्स, वाइ या जेड को निर्वाचित कर के रफा-दफा हो जाएं। - एम.ए. आयंगर
(आंबेडकरवादी संस्कृतिकर्मी, महाराष्ट्र में लोकशाहिर के नाम से पुकारा जाता है। कोर्ट फिल्म के लिए गोल्डन लोटस पुरस्कार से सम्मानित। ) (अभिषेक श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित)