कभी शांत सुरम्य हिल स्टेशन मनाली गर्मियों में पर्यटकों से भरा रहता था, आज भूतिया शहर जैसा दिखता है। ऐसी तबाही की किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। यह विनाशलीला और लोगों का दुख-दर्द प्रलय के पूर्वाभास जैसा है। 10 जुलाई को ब्यास नदी में आई विनाशकारी बाढ़ के उतरने के बाद भी मनाली पहुंचना भगीरथ प्रयास जैसा है। अब तक की सबसे अधिक रिकॉर्डतोड़ बारिश और अभूतपूर्व बाढ़ की तबाही के निशान सिर्फ मनाली में नहीं, ब्यास और उसकी सहायक नदियों के प्रकोप से कुल्लू और मंडी जिलों में बरपा कहर भी भयावह है। छह दिनों में ही 6 से 11 जुलाई के बीच मूसलाधार बारिश, अचानक बाढ़, बादल फटने, भूस्खलन और घर ढहने से 117 से अधिक मौतें हुईं। इस छोटे पहाड़ी राज्य की कमर टूट गई है। राज्य पहले ही पर्यटन उद्योग और बागवानी में कोविड-19 और जलवायु परिवर्तन से भारी मुसीबत झेल रहा था।
थुंग क्षेत्र में बहता मलबा
सबसे बड़ी क्षति बुनियादी ढांचे को हुई है। बंजार की बड़ी आबादी और कुल्लू के दूरदराज के इलाकों के लिए अहम कनेक्टिविटी का साधन औट में 50 साल पुराना पुल पलक झपकते ही बह गया। बाढ़ की विभीषिका में बारह अन्य पुल गायब हो गए। हिमाचल की दो जीवन रेखाएं चंडीगढ़ से मनाली और परवाणू-शिमला के बीच की सड़क पूरी तरह से बर्बाद हो गई है। ब्यास नदी के उफान में कुल्लू और मनाली के बीच की सड़क बह गई। बिजली आपूर्ति टूटने से ये शहर अंधेरे में डूब गए। 48 घंटों या उससे भी अधिक समय तक ये शहर बिना बिजली-पानी के रहे। राजमार्ग के धंसने या बड़े पैमाने पर भूस्खलन और चट्टानों के कारण आवाजाही लगभग बंद हो गई। नदी किनारे को तोड़कर सड़क पर बह निकली और शहरों को उसने अपनी चपेट में ले लिया। पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के सेराज निर्वाचन क्षेत्र के एक महत्वपूर्ण शहर थुनाग में बादल फटने के डरावने वीडियो वायरल हुए। यहां पानी की तेज लहरें रास्ते में आने वाली हर चीज, लकड़ी के कुंदे, पत्थर, मिट्टी और चट्टान को बहा ले गईं।
विशिष्ट शिखर वास्तुकला शैली में निर्मित भगवान शिव के पांच सिर वाली मूर्ति का ऐतिहासिक पंचवाक्त्र मंदिर पूरी तरह से जलमग्न हो गया, हालांकि सौभाग्य से उसे बचा लिया गया क्योंकि कथित तौर पर स्थानीय लोगों ने उग्र ब्यास को शांत करने के लिए प्रार्थना की। लोग इस तबाही की तुलना उत्तराखंड में केदारनाथ हादसे से कर रहे हैं।
कुल्लू में डेरा डाले मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने पीडि़त परिवारों से मिलने के बाद कहा, ‘‘मैं कह सकता हूं कि तबाही बहुत बड़े पैमाने पर हुई थी। ऐसी प्राकृतिक आपदा करीब 50 साल बाद आई है, हालांकि मौत के आंकड़े केदारनाथ हादसे के बराबर नहीं हैं, लेकिन हर मृत्यु दुखद है। फिर, जो लोग इस आपदा से बच गए लेकिन अपने घर, जमीन, दुकानें, होटल और संपत्ति खो बैठे हैं, उनके सामने जिंदगी का एक नया संघर्ष है। सरकार संकट की घड़ी में राहत पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी।’’
शिमला में कहर
उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हिमाचल प्रदेश में आई बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने और फौरन राज्य को राहत पैकेज देने की मांग की है। राज्य सरकार का अनुमान है कि 4,000 करोड़ रुपये तक का नुकसान हुआ है, हालांकि इसमें पर्यावरण से संबंधित नुकसान और पर्यटन उद्योग को हुए आर्थिक नुकसान शामिल नहीं हैं। सैकड़ों परिवार बेघर हो गए हैं और वर्तमान में वे कुल्लू और मंडी जिलों में अस्थायी आश्रय घरों, स्कूलों और परिसरों में रुके हुए हैं।
भारत मौसम विज्ञान विभाग के शिमला केंद्र के निदेशक सुरेंद्र पॉल ने खुलासा किया कि 24 जून को मानसून की शुरुआत के बाद से राज्य में अचानक आई बाढ़ की कम से कम 29 घटनाएं दर्ज की गई हैं और इनमें से कम से कम 50 फीसदी 8 जुलाई से 10 जुलाई के बीच हुईं। एनडीआरएफ, पुलिस, होमगार्ड और स्वयंसेवकों के सहयोग से अब तक के सबसे बड़े ऑपरेशन में कसोल, तोश, मणिकरण, उल्गा और जिभी में फंसे 60,000 से अधिक पर्यटकों को बचाया गया और सुरक्षित निकाला गया। लाहौल-स्पीति जिले के ऊंचाई वाले पर्यटक स्थल चंद्रताल में फंसे 200 लोगों को निकालने के लिए छह हेलीकॉप्टर लगाए गए।
सवाल उठता है कि क्या यह प्राकृतिक आपदा थी या मानव निर्मित? और इससे क्या सबक सीखे गए? ये प्रश्न इसलिए प्रासंगिक हो गए हैं क्योंकि वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् लगातार कह चुके हैं कि राज्य में अतार्किक और अंधाधुंध विकास के खतरों के बारे में बार-बार दी गई चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया गया है। यह विकास टिकाऊ नहीं है और पहाड़ों की नाजुक पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिए खतरा है।
शिमला के पूर्व उप-महापौर तथा शहरी नियोजन विशेषज्ञ कहते हैं, ‘‘कुल्लू और मंडी जिलों या शिमला में जो कुछ भी हुआ, वह पूरी तरह से प्रकृति का प्रकोप नहीं है। इसकी बड़ी वजह हिमालय के शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में अंधाधुंध बुनियादी ढांचे का विकास है। इस कथित विकास के कारण साल-दर-साल भारी नुकसान हो रहा है, जिससे पूरे क्षेत्र में संपत्ति, सड़कें, पुल, घर, इमारतें, कस्बे और गांव प्रभावित हो रहे हैं।’’
पहाड़ों के लिए टिकाऊ विकास मॉडल पर कभी सोचा ही नहीं गया है, न कोई कोशिश दिखती है। इसके लिए स्थानीय पहाड़ी संरचना तथा पर्यावरण पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए बुनियादी ढांचे, संसाधन प्रबंधन और भूमि-उपयोग नीतियों की सावधानीपूर्वक योजना बनाने की दरकार है।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने हिमाचल प्रदेश में अवैज्ञानिक तरीके से मलबा डालने या उसे नदियों या ढलानों पर फेंक देने के खिलाफ कई बार सलाह दी है, लेकिन उसे नजरअंदाज कर दिया गया है। किरतपुर-मनाली फोर-लेन से मलबा और चट्टानें ब्यास में बहाई गई हैं, जिससे उसका प्रवाह कम हो गया है। नदी पर बने बांध भी उसमें गाद और कंक्रीट भर रहे हैं। ब्यास नदी का पाट सिकुड़ने और गहराई कम हो जाने से जल स्तर बढ़ा। मंडी जिले के औट में 50 साल और पंडोह में 100 साल पुराने लोहे के पुल के ढहने का यही मुख्य कारण है। मंडी के अनुभवी पत्रकार बीरबल शर्मा कहते हैं, ‘‘दोनों पुल इतने लंबे समय से ब्यास की मार झेल रहे थे। पंडोह शिवाबदार पुल 100 वर्षों से ब्यास का प्रकोप झेल रहे थे।’’
ऊना में डूबती कार
कुल्लू घाटी में नदी किनारे होटल और होमस्टे बनाने के लिए अवैध निर्माण हो रहा है। नदियां और नाले अपना रास्ता बदल रहे हैं, जिससे भारी तबाही मची हुई है। ब्यास नदी के किनारे अतिक्रमण कर पांच सितारा होटल बनाने की होड़ मच गई है। नदी के मूल प्रवाह से छेड़छाड़ की गई है, जो इस बार विनाश का कारण बना।
नदी के बहाव पर बने भंडारण क्षमताविहीन गोविंद सागर और पौंग बांधों की जलविद्युत परियोजनाएं भी विनाश की कहानी लिख रही हैं। पार्वती और ब्यास नदी के अलावा उनकी सहायक नदियों पर भी कई परियोजनाएं बनाई गई हैं। कांग्रेस की पूर्व मंत्री आशा कुमारी कहती हैं कि राष्ट्रीय राजमार्गों और नदी तटों पर बड़े पैमाने पर अवैध और बेतुके निर्माण ‘‘मानव निर्मित’’ आपदाओं को बुलावा दे रहे हैं। मलबा डालने से सबसे अधिक नुकसान होता है और बेहिसाब और बेतरतीब बनीं व्यावसायिक इमारतें बारिश के पानी के बहाव को अवरुद्ध कर रही हैं। ये ही इस आपदा के लिए जिम्मेदार हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने कांग्रेस सरकार पर मानसून की बारिश, भूस्खलन और बाढ़ से निपटने के लिए तैयारियों की कमी का आरोप लगाया। यह अळग बात है कि उनके अपने क्षेत्र में सबसे अधिक तबाही हुई है। वे बताते हैं कि मुख्यमंत्री के स्तर पर दो से तीन बैठकें करने की पुरानी व्यवस्था का कांग्रेस ने पालन नहीं किया।