Advertisement

राजद्रोह, राष्ट्रवाद और लोकतंत्र

देश में कत्ल की रपट लिखवाने में नाकों चने चबाने पड़ते हैं, वहीं राजद्रोह की रपट बिना देरी दर्ज हो जाती है
देश में आतंकवाद से लड़ने और कानून-व्यवस्था को बिगाड़ने की कोशिश करने वालों के खिलाफ पर्याप्त  कानून हैं, लेकिन उनका इस्तेमाल करने के बजाय पुलिस को राजद्रोह कानून का इस्तेमाल करना सबसे आसान लगता है

पंद्रह फरवरी को एक बीमार मित्र से मिलने और उनका हाल-चाल पूछने गया तो वहां जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार मिल गए। उनसे मेरी पहले कभी मुलाकात नहीं हुई थी। एक दिन पहले ही उन्हें पीएचडी की डिग्री मिली थी। उनसे मिलने पर याद आया कि तीन साल पहले फरवरी के इन्हीं दिनों में उन पर और कुछ अन्य छात्रों पर राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया गया था। इन छात्रों पर ही नहीं बल्कि समूचे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय पर राष्ट्रद्रोही होने का आरोप लगा दिया गया था। हमारे अखबार और टीवी चैनल राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह को पर्यायवाची शब्द समझते हैं और पुलिस सुबूत हो या न हो, राजद्रोह के आरोप में निर्दोष लोगों को जेल में ठूंसती रहती है। अक्सर सुबूत नहीं ही होता, क्योंकि राजद्रोह के अपराध में इक्का-दुक्का लोगों को ही सजा हो पाती है और अधिकांश आरोपी बाइज्जत बरी हो जाते हैं।

राजद्रोह का कानून अंग्रेज शासकों ने गुलाम भारतीयों की गुलामी को सुनिश्चित करने के लिए बनाया था, ताकि जो कोई भी उनकी गुलामी को स्वीकार करने से इनकार करे, उस पर राजद्रोह का मुकदमा चला कर उसे जेल की सलाखों के पीछे भेजा जा सके। इसीलिए इस कानून का दायरा भी बहुत व्यापक रखा गया। लेकिन 1962 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसके दायरे को छोटा करते हुए स्पष्ट किया कि जब तक हिंसा के लिए साफ तौर पर भड़काया न जाए, जब तक सरकार या किसी भी सरकारी पदाधिकारी के खिलाफ चाहे जितनी कड़ी भाषा का इस्तेमाल करते हुए आलोचना की जाए और चाहे इस क्रम में कुछ गलत तथ्यों का सहारा भी लिया जाए, तब भी राजद्रोह का आरोप नहीं बनता। लेकिन हमारे देश की पुलिस इस कानून का आए दिन धड़ल्ले से इस्तेमाल करती रहती है और उस पर किसी का कोई अंकुश नहीं है। निचली अदालतें भी पुलिस पर किसी तरह का नियंत्रण लगाने के बजाय ऐसे मामलों को विचारार्थ स्वीकार कर लेती हैं। नतीजा यह होता है कि आरोपी बरसों जेल में सड़ते हैं और बाद में बरी हो जाते हैं। वर्ष 2014 और 2016 के बीच यानी सिर्फ दो साल में पूरे देश में राजद्रोह के 112 मामले दर्ज किए गए। इनमें से केवल दो मामलों में मुलजिमों को सजा हुई। ये मामले देश में तथाकथित राष्ट्रवादी सरकार के सत्ता में आने के बाद दर्ज हुए।

कुछ ही दिन पहले अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पंद्रह छात्रों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया। एक सप्ताह बाद स्वयं वहां के पुलिस अधीक्षक को यह कहना पड़ा कि इन छात्रों के खिलाफ राजद्रोह का अपराध साबित करने वाला एक भी प्रमाण नहीं मिला है। उन्हें तो इसलिए गिरफ्तार करना पड़ा क्योंकि उनके खिलाफ शिकायत की गई थी। जैसा कि पूरे भारत में अनेक वर्षों से होता चला आ रहा है, ऐसी शिकायतें करने वाले अधिकांशत: अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद या संघ परिवार के किसी अन्य आनुषांगिक संगठन के सदस्य ही होते हैं। जिस देश में कत्ल की रपट लिखवाने में नाकों चने चबाने पड़ते हों, वहां ऐसी रपट न सिर्फ बिना किसी देरी के दर्ज की जाती है, बल्कि उस पर आनन-फानन में कार्रवाई भी कर दी जाती है और बिना किसी सुबूत के लोगों को गिरफ्तार भी कर लिया जाता है। उसके बाद पुलिस चार्जशीट दाखिल करने में बरसों लगा देती है और मुकदमा कछुए की चाल भी नहीं पकड़ पाता।

सर्वोच्च न्यायालय और सोली सोराबजी जैसे जाने-माने कानूनविद का मानना है कि राजद्रोह का कानून संवैधानिक दृष्टि से ठीक है और उसे बने रहना चाहिए क्योंकि केवल दुरुपयोग होने की आशंका के कारण उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। सैद्धांतिक दृष्टि से यह बात भले ही सही हो, लेकिन इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय का यह दायित्व भी बनता है कि वह इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कारगर कदम उठाए और दुरुपयोग करने वालों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई किए जाने के निर्देश दे। वरना अभी तो यह स्थिति है कि राजद्रोह का आरोप किसी पर भी लगाया जा सकता है, चाहे वह व्यक्ति सरकार की आलोचना कर रहा हो, चाहे किसी स्थान पर आणविक संयंत्र लगाए जाने का विरोध कर रहा हो, चाहे खनन माफिया का विरोध कर रहा हो और चाहे पर्यावरण संरक्षण के लिए आंदोलन कर रहा हो।

देश में आतंकवाद से लड़ने और कानून-व्यवस्था को बिगाड़ने की कोशिश करने वालों के खिलाफ पर्याप्त कानून हैं, लेकिन उनका इस्तेमाल करने के बजाय पुलिस को राजद्रोह कानून का इस्तेमाल करना सबसे आसान लगता है। इस कानून का इस्तेमाल उन लोगों पर कभी नहीं किया जाता जो खुलेआम सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले भाषण देते हैं, वीडियो दिखाते हैं और सोशल मीडिया के अन्य मंचों के माध्यम से झूठी खबरें और फर्जी फोटो प्रसारित करते हैं। यह प्रश्न पूछने का अर्थ केवल राजसत्ता के दोहरे चरित्र को सामने लाना है, यह मांग करना नहीं कि इन तत्वों पर राजद्रोह का आरोप लगाया जाए। अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस एंथोनी कैनेडी ने तो यह व्यवस्था तक दी है कि अमेरिका के राष्ट्रीय ध्वज को जलाना भी राजद्रोह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि लोकतंत्र में इसकी भी आजादी होनी चाहिए। भारत में राजद्रोह के कानून का जिस व्यापक पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है, उसे देखते हुए यह मांग करना अनुचित न होगा कि इसे भारतीय दंड संहिता से बाहर किया जाए।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

Advertisement
Advertisement
Advertisement