बमुश्किल छह-सात साल की फातिमा हाथ में तिरंगा लिए, गाल पर एक तरफ तिरंगा पेंट कराए अपनी पतली आवाज में नारा लगाती है, “जिंदा है, जिंदा है” तो शायद ही उसे एहसास हो कि वह जिस फातिमा बेगम शेख के लिए नारा लगा रही है, वे आजादी के आंदोलन के भी पहले स्त्री-शिक्षा और अधिकारों की लड़ाई का झंडा बुलंद करने वाली अहम शख्सियत थीं। इसी तरह अपने पिता के साथ दिल्ली के शाहीन बाग पहुंची लगभग दस साल की सावित्री तेवतिया को भी कहां अंदाजा होगा कि वह जिस सावित्री बाई फुले के लिए “जिंदा है, जिंदा है” की ऊंची आवाज में टेर लगा रही है, वे उसी दौर में स्त्री और दलित उत्पीड़न तथा उनकी शिक्षा के अधिकारों की आवाज बुलंद करने की राह में ईंट-पत्थर तक झेल चुकी हैं।
15 दिसंबर 2019 को नागरिकता संशोधन कानून और एनपीआर तथा एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन करने निकले जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र-छात्राओं पर पुलिस दमन की मुखालफत में दिल्ली के दक्षिणी-पूर्वी छोर पर यमुना किनारे बसे शाहीन बाग की महिलाएं धरने पर बैठीं तो शायद ही किसी ने यह सोचा था कि यह आज के दौर में प्रतिरोध का जीवंत प्रतीक बन जाएगा। न यह सोचा था कि दिल्ली के उस नामालूम-से मोहल्ले की लौ देश के हर कोने में जल उठेगी और वाशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, गार्डियन, बीबीसी, सीएनएन जैसे दुनिया भर के तमाम प्रतिष्ठित अखबार और चैनल उसे कवर करने को तत्पर हो उठेंगे।
जरा सोचिए, आज करीब महीने भर बाद देश में शाहीन बाग कहां-कहां उग आए हैं? अभी तक की जानकारी के मुताबिक दिल्ली में ही जाफराबाद-सीलमपुर, तुर्कमानगेट, बल्लीमारान। उत्तर प्रदेश में लखनऊ के हुसैनाबाद, कानपुर, प्रयागराज। बिहार में पटना के सब्जीबाग, गया। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के पार्क सर्कस मैदान। कर्नाटक के मेंगलूरू। तेलंगाना के हैदराबाद। झारखंड के रांची। महाराष्ट्र के मुंबई। और जहां सबसे पहले, बल्कि शाहीन बाग के तवारीख बनने से भी पहले अनोखा प्रदर्शन शुरू हुआ, उस असम के गुवाहाटी से लेकर कई जिलों में सड़कों पर महिला शक्ति की उठ रही ऊंची आवाज हर जगह गूंज रही है। अलबत्ता, उसे हमारा तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया सुर्खियों से ओझल बनाए हुए है।
सुर्खियों से दूर करने या गलत रंग में पेश करने या घटिया किस्म के मनगढंत आरोपों से बदनाम करने की कोशिशें तो शाहीन बाग को लेकर भी हुईं और हटाने-उजाड़ने की पुलिसिया हरकत दिल्ली से लेकर लखनऊ तक में हुई। लेकिन महिला शक्ति के उसके भव्य नजारे और देश भर में जगी लौ के साथ आयोजकों की एहतियात भी गौरतलब है।
सावधानी भी ऐसी कि जब शाहीन बाग को लेकर यह आरोप उछला कि 500 रुपये पर महिलाएं बुलाई जा रही हैं तो उसके पहले ही मंच से लेकर चारों ओर ‘नो कैश, नो पेटीएम’ के पोस्टर लग गए। 19 जनवरी को कश्मीरी पंडितों को लेकर अफवाह उड़ाई गई तो शाहीन बाग में पहुंचे कश्मीरी पंडितों को मंच मुहैया कराया, कश्मीरी पंडितों की हत्या और जुल्मो-सितम के लिए दो मिनट का मौन रखा गया, ‘भारत माता की जय’ के नारे लगे। यही नहीं, आयोजकों ने हर तरह के कट्टरपंथियों, खासकर मुस्लिम पहचान पर जोर देने वालों को दूर रखा। मशहूर नाटककार एम.के. रैना ने मंच से कहा, “शाहीन बाग अब भारत का आईना है। महात्मा गांधी के सत्याग्रह के बाद पहली बार इतने गरीब, वंचित लोग और महिलाएं देश और संविधान बचाने के लिए उठ खड़ी हुई हैं।” कश्मीरी पंडितों के पहले पंजाब से भारतीय किसान यूनियन के लोग भी वहां पहुंचे हैं और सिखों ने वहां लंगर भी लगा रखा है। सो, ‘जो बोले सो निहाल’ का जयकारा भी जब-तब गूंज उठता है। वहां, एक साथ हवन, गुरुग्रंथ साहिब का पाठ, यीशु की प्रार्थना और नमाज अदा की गई। यानी भारत की समावेशी संस्कृति पर जैसे दोबारा मुहर लगाने का शाहीन बाग प्रतीक बन गया है।
बेशक, शाहीन बाग में छात्रों पर पुलिस दमन के खिलाफ माताओं-बहनों-दादी-नानी, करीब 90 साल की बुजुर्ग भी, ने कंपकंपाती ठंड में सड़क को अपना एक और ठौर बना लिया, मगर इसके आयोजन में दिन-रात एक कर देने वाले जामिया, अलीगढ़ विवि, जेएनयू, आइआइटी बांबे, टाटा सोशल साइंसेज इंस्टीट्यूट के छात्र-छात्राओं की सावधानी और तत्परता देखने लायक है। इनमें कुछ लड़कियों के नामों का जिक्र जरूरी है, जो देश में नई स्त्री शक्ति का प्रतीक बनकर उभरी हैं। अख्तारिस्ता अंसारी, चंदा यादव, लदीदा फरसाना, आएशा रेन्ना, ये सभी जामिया की बीसेक साल की लड़कियां आज नई नायिकाएं बन कर उभरी हैं। इनमें आप जेएनयू की छात्र संघ अध्यक्ष ओइशी घोष का नाम जोड़ लें तो मानो, देश की नई परिभाषा गढ़ने का जिम्मा लड़कियों-स्त्रियों ने ठीक उसी तरह अपने कंधों पर उठा लिया है, जैसे आजादी के दौर में महात्मा गांधी ने महिलाओं को घरों से निकाल कर प्रतिरोध और अहिंसा का प्रतीक बना दिया था।
यकीनन, शाहीन बाग हमारे गणतंत्र के 70वें वर्ष में जैसे देश और लोकतंत्र की रूपरेखा को नए सिरे से व्याख्या करने का प्रतीक बन गया है। या यह भी कह सकते हैं कि 'हम भारत के लोग' अपने गणतंत्र की उस आधारशिला को नए सिरे से हासिल करने में जुटे हैं, जो इन 70 वर्षों में कई तरह के सियासी थपेड़ों और झटकों से हिलने-डुलने लगी है।