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31 मार्च 2025 · MAR 31 , 2025

आवरण कथा/नजरियाः फूहड़ता का साया

सिर्फ सिनेमा का नहीं, पूरी संस्कृति का सवाल, भाषा के पुनरोद्धार के बिना भोजपुरी सिनेमा भी नहीं सुधरेगा
भड़काऊः बम बम बोल रहा काशी का दृश्य

वह भी एक समय था, जब भोजपुरी सिनेमा ने पूरे देश में अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाई थी। दुर्भाग्य से, समय के साथ उसकी यह पहचान छिन गई। अपने ही समाज की उपेक्षा से उसका न सिर्फ दर्शक वर्ग बदल गया, बल्कि गुणवत्ता में लगातार गिरावट आती गई। इस भाषा की मिठास को धीरे-धीरे अश्लीलता ने ढंक लिया और उसकी दुर्गति होने लगी। यह कहना गलत होगा कि भोजपुरी में अच्छी फिल्में और गाने नहीं बनते, लेकिन मुख्यधारा में अश्लीलता ने इतनी गहरी जड़ें जमा लीं कि गुणवत्तापूर्ण सिनेमा हाशिए पर चला गया। बंगाली, मराठी और पंजाबी भाषाओं ने अपने साहित्य और सिनेमा का लगातार विकास किया, लेकिन भोजपुरी अपने ही समाज की उपेक्षा की शिकार हो गई। बंगाल में हर दौर में बंकिमचंद्र और शरतचंद्र जैसे लेखक और कलाकार अपनी भाषा में सृजन करते रहे, मराठी और पंजाबी सिनेमा भी अपने साहित्य से प्रेरणा लेता रहा, लेकिन भोजपुरी भाषी समाज ने धीरे-धीरे अपनी मातृभाषा से दूरी बना ली। हिंदी का असर इतना बढ़ा कि भोजपुरी सिनेमा और साहित्य का स्वाभाविक विकास रुक गया। बिहार और उत्तर प्रदेश से आने वाले कितने लेखकों ने भोजपुरी में लिखा? सभी ने हिंदी में अपनी कलम चलाई।

आज भोजपुरी दर्शक वर्ग पूरी तरह बदल चुका है। पहले इसके साथ पढ़ा-लिखा समाज भी था, लेकिन जैसे-जैसे अच्छी भोजपुरी सामग्री कम होती गई, दर्शकों ने हिंदी को अपना लिया। अाज भी उन्हें अच्छी भोजपुरी फिल्में और गाने मिलें तो जरूर देखेंगे-सुनेंगे। लेकिन जब मुख्यधारा में केवल फूहड़ता परोसी गई, तो उन्होंने मान लिया कि भोजपुरिया मनोरंजन का स्तर यही है।

फूहड़ता और अश्लीलता सिर्फ भोजपुरी तक सीमित नहीं है, पंजाबी और हिंदी सिनेमा भी उसी ढर्रे पर है, लेकिन फर्क यह है कि वहां का पूरा उद्योग इसकी पहचान नहीं बना। पंजाबी म्यूजिक में गुरदास मान का नाम आज भी शीर्ष पर आता है, लेकिन भोजपुरी में ऐसा कोई नाम नहीं दिखता। अच्छे संगीत और सिनेमा की कमी ने ही पवन सिंह और खेसारी लाल यादव जैसे कलाकारों को भोजपुरी इंडस्ट्री में बड़ा स्थान दिला दिया।

मेरी मैथिली में बनी फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। फिर भी उसे अपने ही राज्य में कोई सिनेमाघर नहीं मिला। पटना जैसे शहर में भी भोजपुरी फिल्मों के लिए कोई थिएटर नहीं है। फूहड़ गाना गाने वाले लोग राजनीति तक पहुंच जाते हैं, लेकिन अच्छी फिल्में बनाने वालों को सराहना तक नहीं मिलती। मेरी फिल्में नेटफ्लिक्स, अमेजन, जी-5 या हॉटस्टार पर नहीं हैं, जबकि अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में वहां उपलब्ध हैं। वजह? भोजपुरिया लोगों में कोई भाषाई अस्मिता ही नहीं है या यों कहें कि उसे खत्म कर दिया गया है। प्रियंका चोपड़ा निर्मित फिल्म बम-बम बोल रहा काशी ने भोजपुरी में ‘बोलेरो के चाभी से खोद देला नाभी’ जैसे आपत्तिजनक गाने दिए, फिर भी कोई विरोध नहीं हुआ। रागिनी विश्वकर्मा को फूहड़ गानों के लिए दोष दिया जाता है, लेकिन क्या हमने उसे अच्छे गाने का अवसर दिया? भोजपुरी सिनेमा को बचाने के लिए हमें खुद उसकी गुणवत्ता को बढ़ावा देना होगा, वरना यह हमेशा फूहड़ता के साए में दम तोड़ता रहेगा।

हिंदी सिनेमा में शाहरुख, सलमान और अक्षय के नाम पर डिस्ट्रीब्यूटर पैसा लगा देते हैं, लेकिन भोजपुरी में वही काम पवन सिंह और खेसारी लाल कर रहे हैं, जिन्होंने इस सिनेमा को एक खास दिशा में मोड़ दिया है। हालांकि, भोजपुरी भाषा का संकट सिर्फ सिनेमा तक सीमित नहीं है। पटना के किसी बड़े रेस्तरां में लिट्टी-चोखा नहीं मिलेगा, यह सिर्फ ठेलों तक सीमित है। यही हाल भोजपुरी का भी हो रहा है। जब घरों में ही बच्चों से भोजपुरी की बजाय हिंदी में बात होगी, तो इस भाषा का अस्तित्व कैसे बचेगा? कहीं भी दो ओडिया, बंगाली, पंजाबी और मराठी भाषी मिलेंगे तो वे अपनी मातृभाषा में ही बात करेंगे, लेकिन दो भोजपुरिया समाज से आने वाले लोग कब भोजपुरी का इस्तेमाल करते हैं?

मैंने भोजपुरी सिनेमा के कथित सुपरस्टार दिनेश लाल यादव ‘निरहुआ’ से पूछा क्या आप अपनी फिल्में परिवार के साथ बैठ कर देख सकते हैं? तो उन्होंने कहा था कि मैं भोजपुरी सिनेमा देखता भी नहीं हूं। हरिहरन, उदित नारायण और श्रेया घोषाल जैसे प्रतिष्ठित गायकों ने भी भोजपुरी में गाया, लेकिन उनके गीत आपके कानों तक क्यों नहीं पहुंचे? क्योंकि फूहड़ गानों ने पूरी इंडस्ट्री पर ऐसा कब्जा जमा लिया है कि वे समाज में ‘कूड़े के पहाड़’ की तरह फैल गए हैं।

हमारी सबसे बड़ा चुनौती इसी स्थिति को बदलना है, जो आसान नहीं है। बिहार से ही अनुराग कश्यप, प्रकाश झा और नीरज पांडे जैसे लोग निकले, लेकिन उन्होंने यहां के गिरते सिनेमाई स्तर पर कब आवाज उठाई? इसके लिए क्या किया? बिहार की सरकारी भाषा हिंदी और उर्दू है, जबकि बिहारी लोगों की मातृभाषा न तो हिंदी है और न ही उर्दू। इस स्थिति ने भोजपुरी, मगही और अवधी जैसी भाषाओं को लगभग खत्म कर दिया है। न कोई स्कूल है, न कॉलेज, न किताबें, न साहित्य, न कोई सरकारी संरक्षण। जब भाषा को कोई औपचारिक पहचान नहीं मिलेगी, तो उसमें अच्छा सिनेमा या साहित्य कैसे विकसित होगा?

जरूरी है कि भोजपुरी को सिर्फ मनोरंजन का माध्यम न माना जाए, बल्कि उसे एक भाषा और संस्कृति के रूप में पुनर्जीवित किया जाए। बिहार के स्कूलों में भोजपुरी, मगही और मैथिली जैसी भाषाओं को पढ़ाया जाए, ताकि नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ा जा सके। सरकारी नौकरियों में इन भाषाओं की जानकारी को अनिवार्य बनाया जाए। यह सिर्फ सिनेमा का नहीं, बल्कि पूरी संस्कृति का सवाल है।

 नितिन चंद्रा

(फिल्म मिथिला मखान के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता)

 

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