ताले तो अलीगढ़ के
गंगा किनारे वाले छोरे की बंद अकल का ताला भले ही बनारसी पान से खुल जाता होगा लेकिन वह ताला निश्चित रूप से बना इसी शहर में होगा। उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर की यही पहचान है। तालों के लिए अलीगढ़ विश्वप्रसिद्ध है। इसे ताला नगरी भी कहा जाता है। यहां के बारे में कहा जाता है कि 1870 में एक ब्रिटिश व्यापारी ने एक छोटी-सी फैक्ट्री खोली थी। शुरू में ताले में लगने वाले पुर्जे इंग्लैंड से आते थे। बाद में यहां के लोगों का हाथ ताला बनाने में ऐसा जमा कि सारे पुर्जे यहीं तैयार होने लगे। अब तो हाल यह है कि छुटकू सा 30 ग्राम का ताला हो या भारी-भरकम 400 किलो का हर रूप के ताले मौजूद हैं। यहां की लगभग 5000 ताला फैक्ट्रियों से गुजर कर हाथ से बने तालों से लेकर ऑटोमेटिक मशीनों से बनने वाले तालों ने लंबा सफर तय किया है। अब तो सिर्फ ताले का नाम लीजिए- पेडलॉक, साइकिल लॉक, मॉडिस लॉक, ऑटोमेटिक डोर लॉक हर नई तकनीक यहां तुरंत पहुंचती है। यहां बने ताले विदेशों तक निर्यात होते हैं। एक बड़ी आबादी इसी उद्योग पर निर्भर है।
तालीम का भी शहर
यहां ताले बनते हैं, तो तालीम की चाभी भी मौजूद है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की तर्ज पर ब्रिटिश राज के समय बनाया गया यह पहला उच्च शिक्षण संस्थान था। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बनने से पहले यह मुस्लिम एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज था। 1920 में सर सैयद अहमद खान द्वारा स्थापित इस विश्वविद्यालय को 1921 में भारतीय संसद के एक अधिनियम के तहत केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया। यहां के पूर्व छात्रों की सूची देख कर ही उसकी ऐतिहासिकता और महत्व को समझा जा सकता है। इसके प्रमुख छात्रों में पूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन, पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान, पूर्व उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी, प्रमुख हाकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद, क्रिकेट खिलाड़ी मुश्ताक अली, इतिहासकार इरफान हबीब, फिल्म निर्देशक के. आसिफ, नसीरुद्दीन शाह, अनुभव सिन्हा, दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा शामिल हैं। और भी अनेक नाम और ऐतिहासिकता इससे जुड़ी है।
प्राचीन नगरी कोइल
अलीगढ़ का प्राचीन नाम कोइल या कोल था। लगभग 200 साल पहले अलीगढ़ को कोल या कोइल नाम से जाना जाता था। पौराणिक कथा के अनुसार, यहां के शासक रहे कौषिरिव का नाम महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में वर्णित है। कौषिरिव को पराजित कर कोल नाम का एक दैत्यराज यहां शासक बना। उसने अपने नाम पर यहां का नाम बदलकर कोल कर दिया। बाद में सैय्यद वंश के कार्यकाल में कोल अलीगढ़ नाम से जाना जाने लगा। 1753 में जाट शासक सूरजमल और मुस्लिम सेना ने जयपुर के जय सिंह के साथ मिलकर कोइल के किले पर कब्जा कर लिया और उसका नाम रामगढ़ कर दिया। बाद में एक फारसी मुगल शिया कमांडर नजफ खान ने इस पर कब्जा किया और नाम अलीगढ़ रख दिया। हालांकि अलीगढ़ के पुराने नाम हरिगढ़ को लौटाने की कोशिशें लगातार जारी हैं।
घंटाघर की शान
घंटाघर इस शहर की जान है। इसका निर्माण 1893 में पूरा हुआ और अलीगढ़ के ब्रिटिश अधिकारी तथा जिला मजिस्ट्रेट जेएच हैरीसन के नाम पर इसका नामकरण हुआ। यह घंटाघर उत्तर भारत में ब्रिटिश काल की बेहतरीन वास्तुकला का शानदार नमूना है। इसी तरह शानदार अलीगढ़ के ऊपरकोट में स्थित तीन दरवाजों और पांच गुंबदों वाली जामा मस्जिद है। उसका निर्माण 1724 से 1728 तक कोल के गवर्नर साबित खान ने कराया था। शहर की ऊंचाई पर स्थित इस मस्जिद में एक साथ पांच हजार लोग नमाज पढ़ सकते हैं।
अचल ताल
अचल ताल आस्था का प्रतीक है। शहर के बीच में अचल ताल का संबंध महाभारत से बताया जाता है। मान्यता है कि शिवरात्रि के दिन इस ताल में नकुल और सहदेव ने स्नान किया था। अचल सरोवर के ठीक बीच में 20 फुट ऊंची शिव प्रतिमा है। चारों ओर मौजूद फव्वारे इसकी सुंदरता में चार चांद लगाते हैं। खूबसूरत परिक्रमा मार्ग, आरती घाट इसकी भव्यता को और बढ़ा देते हैं। रामलीला के समय यहां की सरयू पार की लीला का आनंद ही अद्भुत होता है। इसके अतिरिक्त खेरेश्वर मंदिर और जैन तीर्थ स्थल मंगलायतन भी लोगों का ध्यान खींचते हैं।
खालिस स्वाद का शहर
लोगों की सुबह कचौड़ी और जलेबी के नाश्ते से होती है। शिब्बो जी कचौड़ी वालों की देसी घी की कचौड़ी नहीं खाई तो क्या मतलब है। हरिओम शर्मा का परिवार 1951 से कचौड़ी बना रहा है। मजाल की जायके में जरा फर्क आया हो। टिंकू यादव के समोसे, रेलवे रोड की टिक्की, आलू के बरुले, खस्ता गजक, नुमाइश का हलवा-पराठा मुंह में पानी लाने के लिए काफी है।
मीठी ब्रजबोली
मीठी ब्रजभाषा में पगे इस शहर में घूमने के लिए होली का मौसम सबसे बढ़िया है। यहां की रंगीन होली का आनंद जिसने उठा लिया वह अलीगढ़ को भूल नहीं पाएगा। होली पूरे पखवाड़े चलती है। यहां आएंगे ही तो पीतल की मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध शहर से अलग परिचय होगा।
(हिंदी लेखिका)