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24 जून 2024 · JUN 24 , 2024

शहरनामा: बैकुंठपुर

सघन वनों और दुर्गम पहाड़ियों का क्षेत्र
यादों में शहर

नदियों के बीच

छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले का मुख्यालय है बैकुंठपुर। यहां एक अलंग पर गेज नदी बहती है, तो दूसरे अलंग पर झुमका नदी। गेज नाम झाग या उसके स्थानीय पर्याय गेजा या फेना और झुमका नदी की इठलाती अदाओं को इंगित करता है। ये अदाएं ही दरअसल बैकुंठपुर की आवाज है, सुरीली ध्वनि वाली आवाज। अब दोनों नदियों पर बांध आकर्षण का केंद्र है। प्रगतिशील कोरिया रियासत की राजधानी जब नगर और सोनहत होती हुई यहां पहुंची, तब यहां का नाम हुआ, बैकुंठपुर। सोनहत वही स्थान है, जहां से कर्क रेखा भी गुजरती है। कभी यह बंगाल प्रांत की रांची कमिश्नरी में था और बंग–भंग के बाद सी.पी. और बरार वाले क्षेत्र की तरफ आया। कोरिया की प्रगतिशीलता इतनी कि, उद्योग–खनन, शिक्षा, विद्यालय में भोजन, बालिका शिक्षा, रियासत की उपयोगिता और आर्थिक सर्वेक्षण, वन विकास न्यूनतम मजदूरी दर आदि बातें तब यहां मौजूद थीं, जब छत्तीसगढ़ इनसे अनभिज्ञ था। आपस में संबद्ध तालाबों की जुड़ी हुई कड़ी का निर्माण भी यहां का एक महत्वपूर्ण पहलू था।

विमल मित्र का ठिकाना

खनिज, विशेषकर कोयले से भरा है यह इलाका। गायमाड़ा (चरचा) कभी इसका पर्याय हुआ करता था। पर अब, तो चारों तरफ कोयलरी ही कोयलरी हैं। यही रोजगार और अर्थव्यवस्था का भी मुख्य साधन रहा। इसने मिश्रित संस्कृति को जन्म दिया। बंगाल से बहुतायत में लोगों के आने से उत्सवों की परंपरा विकसित हुई। रेलवे विस्तार के दौरान विमल मित्र भी यहां रहे और ‘लेडी डाक्टर’ जैसी कहानी भी लिखी। खनिज उत्खनन बीसवीं सदी की पहली चौथाई में ही टाटा, अबीर चंद, बिड़ला, थापर (किर्लोस्कर) जैसे लोगों को इस क्षेत्र में आकर्षित करने में सफल रहा, इसके पीछे-पीछे रेल लाइन आनी ही थी और आई भी।

शिकार और हांका

यह शुरू से ही सघन वनों और दुर्गम पहाड़ियों का क्षेत्र रहा है। कंदराओं में मानव चिन्ह इस क्षेत्र में आज भी मौजूद हैं। जंगली जानवरों से भरे और घिरे रहे इस क्षेत्र में शिकार को भी खूब बढ़ावा मिला। पड़ोसी रियासत सरगुजा के समान नाम (रामानुज) वाले शासक के साथ शिकार की बहुत ख्याति थी। यहां के लोगों का बाघ का शिकार और हांका बहुत प्रसिद्ध था। यह वही दौर था, जब भारत का अंतिम चीता यहां मारा गया। डॉ. सालिम अली की जीवनी ‘फ़ॉल ऑफ ए स्पैरों’ में नकारात्मक उल्लेख के साथ इस घटना का जिक्र भी है। आज भी कोरिया पैलेस में जानवरों के शिकार का प्रदर्शन  पर्यटन के आकर्षण का केंद्र है। भवानी प्रसाद मिश्र ने शेर/बाघ संबंधित कविताएं यहीं लिखीं। दिलचस्प है कि भवानी भाई और आचार्य रामचंद्र शुक्ल दोनों के भाई यहां पदस्थ थे इस वजह से दोनों यहां आए थे। कहा जाता है कि यहां के वातावरण में कविता प्रस्फुटित होती है। यहां रहने वाले ऊंट सेठ के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपना जीवन काफियाबंदी में ही बिता दिया था। घने वन, पहुंचने में दुर्गम और मच्छर (मलेरिया) के कारण यहां कहावत ही बन गई थी, ‘‘जहर होए न माहुर खाए, मरे का होए तो कोरिया जाए।’’ यानी यदि मरने के लिए जहर हो, तो मरने के लिए कोरिया भी जाया जा सकता है। 

दिल का पता

अगर आप बैकुंठपुर में हैं और किसी से पता पूछें, तो हो सकता है वह व्यक्ति आपको स्कूटर पर बैठाकर उक्त पते तक छोड़ आए। बाहरी लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि यहां हर कोई हर किसी को जानता है! सभी का एक-दूसरे के घर पर आना-जाना है। किसी की मृत्यु पर शहर शवयात्रा में शामिल होता है। यहां लोगों के पते एक-दूसरे के दिल में अंकित रहते हैं।  

और ये गोल...

फुटबॉल पूरे शहर को उद्वेलित रखता रहा है। हालांकि अब लगातार घटते मैदानों और क्रिकेट की लोकप्रियता ने इस खेल को यहां चुनौती दी है। पर आज भी फुटबॉल मैच पूरे शहर को जीवंतता प्रदान करता हैं। बैकुंठपुर का रामानुज स्कूल फुटबॉल की नर्सरी भी रहा। एक समय स्कूल फुटबॉल की आधी राष्ट्रीय टीम इस स्कूल के खिलाड़ियों से बनी थी। इस नर्सरी को ऊंचे पायदान पर पहुंचाने में स्कूल पी. टी. आई. के अप्रतिम योगदान को शहर भुला नहीं पाया है। उनकी आसामियक मृत्यु से हतप्रभ यह शहर हर साल उनके नाम पर के. पी. सिंह वृहत ओपन फुटबाल प्रतियोगिता कराता है, वह भी बिना अनुदान के। शहर का मेलजोल और एक-दूसरे के याद रखने का गुण इस पूरे क्षेत्र में देखने को मिलेगा। होली, तजिया, दुर्गा पूजा एक-दूसरे से मिलने के निमित्त बनते हैं।

भाजी और चटनी 

हर खाने में यहां स्थानीयता का पुट है। पत्तेदार भाजियां, चटनी, पुटू, खुखड़ी से लेकर कटहल कोवा, तेंदू, चार, कोसम, तूत, सीताफल हर दिन के भोजन में शामिल रहते हैं। यहां की टिकिया या टिक्की का कोई मुकाबला नहीं है। तवे पर धैर्यपूर्ण हल्की-हल्की सिकाई की कला अब विलुप्त होती जा रही है। सिकाई वाली टिक्की का सीधे तवे पर तल देने वाली टिक्की से क्या मुकाबला। इससे स्वाद के साथ प्रतीक्षा का धैर्य भी कमजोर हुआ है। छत्तीसगढ़ी, बघेली और सरगुझिया से बनी क्रियोल भाषा ने सभी को एक-दूसरे से बांध कर रखा है।

संजय अलंग

(संभाग आयुक्त, रायपुर)

 

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