अब वह बात कहां !
राजस्थान का एक छोटा-सा कस्बा है संगरिया, जहां मैं पला-बढ़ा। रेतीली जमीन, जिस पर नहर के आने से हरा रंग उगा, पेड़ आए। यहां से वह कालीबंगा करीब 60 किमी. दूर है, जहां हजारों साल पहले समृद्ध और विकसित सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष मिले हैं। यह घग्घर नदी का इलाका है, जो अब छोटी और मौसमी नदी ही रह गई है लेकिन कहते हैं कि हजारों साल पहले बड़ी थी! जब मैं 1990 के आसपास होश संभाल रहा था, तब हरियाली तो आ रही थी लेकिन रेत भी खूब थी। रेत के टीले थे जिन पर से फिसलने का सुख मुझे आज भी याद है। गर्मियों में धूल भरी तेज आंधियां उठती थीं, जो अब भी आती हैं लेकिन जैसा बुजुर्गों को अक्सर लगता है, अब वह बात कहां!
आखिरी सिरे की तहजीब
अगर सरहदों को देखो तो संगरिया, हरियाणा की सीमा पर राजस्थान का आखिरी सिरा है। और दूसरी ओर थोड़ा-सा चलो तो पंजाब आ जाता है। एक यह भी वजह है कि इस कस्बे और पूरे इलाके की एक मिली-जुली संस्कृति भी है, मुझे बाद में पता चला कि इसे कॉस्मोपॉलिटन कहते हैं। इसी दुनिया में खेलते-कूदते हम सब कई भाषाएं, त्योहार और जीने के ढंग सीखते गए। कहते हैं, बीसवीं सदी की शुरुआत में यह इलाका लगभग खाली, बंजर और बीकानेर राज्य का आखिरी किनारा था। बीकानेर के राजा की एक बटालियन यहां रहती थी। कस्बे का मुख्य बाजार चार बड़े दरवाजों से घिरा है, जो किसी किले के दरवाजे लगते हैं। शायद यह सब उसी बटालियन ने बनाया हो। उसके कुछ बाद यहां रेलवे स्टेशन बना और फिर कस्बा बसता चला गया।
पढ़ाई का अतीत
2011 में संगरिया की आबादी 36,000 थी। लेकिन जो बात उसे किसी भी आम कस्बे से अलग करती है, वह है वहां पढ़ाई-लिखाई का माहौल। इतने छोटे-से कस्बे में छह कॉलेज हैं और स्कूल तो जाने कितने ही होंगे। इनकी जड़ें आजादी के पहले की हैं। 1917 में यहां इलाके का पहला स्कूल खुला था। वह करीब दो दशक बाद बंद होने को था, तब उसके डायरेक्टर स्वामी केशवानंद ने गांव-गांव घूमकर चंदा इकट्ठा करना शुरू किया। स्कूल बचा, बड़ा हुआ और उसका नाम रखा गया ग्रामोत्थान विद्यापीठ। यह संस्था बड़ी होती गई और बाद में उसमें और भी कॉलेज-स्कूल खुलते गए। उनमें पढ़ने और पढ़ाने दूरदराज से लोग आते रहे। उत्तर प्रदेश से बहुत लोग आए। मेरे पिता भी।
सांगरी पेड़ों तले संस्कृति
स्वामी केशवानंद ने ही वहां एक म्यूजियम भी बनाया था। उसी में मैंने पहले पहल तलवारें देखीं और पुराने जमानों के बरतन और सिक्के। वह सब कुछ जो खास था, हमें तब आम लगता था। हमें लगता था कि शायद सब कस्बे ऐसे ही होते होंगे। अब लगता है कि सिर्फ किसानी ही जहां का मुख्य काम था, जिसका नाम शायद सांगरी के पेड़ों के नाम पर पड़ा था, उसे शिक्षकों और विद्यार्थियों का घर बनाना कितना खूबसूरत परिवर्तन था! और शायद पढ़ाई और किताबें ही अलग-अलग बोलियां बोलने वाले, अलग-अलग मिट्टी से आए लोगों को जोड़ती रहीं। हम राजस्थान में थे पर जालंधर का पंजाबी दूरदर्शन देखते थे और ‘रुकावट के लिए खेद है’ का अंदाजा लगाते-लगाते गुरमुखी के अक्षर जाने कब सीखते चले गए। बारिश कम होती थी पर ज्यादा क्या है, यह देखा भी नहीं था, तो सब ठीक लगता था। दो-चार ही रेलगाड़ियां आती थीं दिन भर में, पर हमें लगता था कि दुनिया की कोई भी जगह ज्यादा दूर नहीं।
आक के पौधे, यादों के आंगन
हमारे घर की छत से ‘वितान विहार’ दिखाई देता था, कस्बे के दो सिनेमाघरों में से एक। उसी में मैंने बचपन की कई फिल्में देखीं। फिल्मों के बदलते पोस्टरों को घटना की तरह महसूस किया, सपने देखे। सिनेमाहॉल, बाजार सब रेलवे लाइन के उस पार था। कभी-कभी
मालगाड़ियों के डिब्बे लाइनों पर खड़े होते थे और उनके नीचे से गुजरकर जाना पड़ता था। पहचान के कुछ पेड़ थे, नीम और कीकर के! सड़क पर और घर में, रेत हर उस जगह थी जहां हवा के झोंके जा सकते हैं। पिछले दिनों मुंबई में आक ढूंढ़ रहा था तो उस मैदान की याद आई, जहां हम क्रिकेट खेला करते थे। उस मैदान में और जाने कितनी खाली जगहों में जहां-तहां आक के पौधे उगे हुए थे।
भूली-बिसरी
कितनी सारी यादें हैं! घर से निकलने की और लौटने की! खाली दोपहरों की, घास और तारों की! आंखें बंद करो तो कितना कुछ दिखता है, पर छू कुछ भी नहीं सकते। स्मृति के बाहर सब कुछ बदल जाता है, पहचाने हुए चेहरे, दुकानों की सीढ़ियां, तुम्हारे समय के कुत्ते और टूटी हुई दीवारें जिन पर कुछ खुरचकर तुम अपना होना दर्ज कराते थे। स्मृति के भीतर भी कितना कुछ बदल जाता है, बस उसका ठीक से पता नहीं चलता।