छोटी काशी
सात सौ साल पुराने हरियाणा के जिला मुख्यालय भिवानी का इतिहास गौरवपूर्ण रहा है। नगर में मंदिरों की संख्या के कारण लोग इसे ‘छोटी काशी’ भी कहते हैं। छोटे-से कस्बे से भरे-पूरे शहर के रूप में विकसित होने वाला भिवानी अपनी परंपरा से प्राप्त ऐतिहासिक भवनों तथा इमारतों का संरक्षण करने में विफल रहा है। अंग्रेजों के समय का ‘घंटाघर’ सत्तर के दशक में प्रशासन ने ही धराशायी कर दिया। सौन्दर्यीकरण के नाम पर सभी बारह दरवाजे, बीसीयों तालाब और बावड़ियां और बेजोड़ हवेलियां समाप्त हो गईं। शहर सुंदर तो नहीं हुआ, लेकिन अपने अनुपम स्थापत्य से वंचित जरूर हो गया। चार दशक पहले यहां कला, संगीत और साहित्य अभिजात्य की वस्तु नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक सलीका था। हमारी पीढ़ी के सभी कवियों ने काव्य शास्त्र की बारीकियां विश्वविद्यालयों में जाने से पहले नगर के हलवाइयों, कामगारों तथा दस्तकारों से सीख ली थीं। इतने सारे परिवर्तनों के बावजूद नागरिकों की सहृदयता तथा संवेदनशीलता आज भी बरकरार है।
भारत का क्यूबा
आज भी लोग चौपाल की सर्वस्वीकृत संस्कृति से अभिभूत हैं। स्वतंत्रता सेनानी पं. नेकीराम शर्मा, महान साहित्यकार माधव प्रसाद मिश्र तथा प्रतिष्ठित संगीतज्ञ पं. गोपालकृष्ण के चरण-चिन्हों पर चलने वाले उत्साही युवा अब भी मौजूद हैं। हालांकि रात-रात भर चलने वाले कवि सम्मेलनों, संगीत सम्मेलनों तथा ख्यालबाजी के दंगल अब नहीं होते। पुराने चलन के अखाड़े तथा कुश्ती की व्यायामशालाएं भले ही न रहीं, लेकिन मुक्केबाज, एथलेटिक्स और खेलों में भिवानी के नाम का डंका पूरी दुनिया में बजता है। ‘भारत का क्यूबा’ कहलाने वाले इस नगर ने अंतरराष्ट्रीय स्तर के बहुत से मुक्केबाज और खिलाड़ी दिए हैं।
पहलवान के दही-भल्ले
आज एक भरे-पूरे विश्वविद्यालय, दर्जनों महाविद्यालयों तथा कई शैक्षणिक संस्थाओं से सुसज्जित इस शहर में कभी पं. सीताराम शास्त्री की संस्कृत पाठशाला भी होती थी, जिसके विद्वानों का लोहा पूरा देश मानता था। बड़े अस्पतालों तथा स्वास्थ्य केंद्रों के बावजूद ‘कान्हीराम धर्मार्थ नेत्र चिकित्सालय’ की प्रसिद्धि आज भी है। लेकिन टेक्सटाइल उद्योग के लिए मशहूर इस शहर के लोग अब कपड़ा खरीदने दूसरे शहरों में जाते हैं। ‘गेटवे ऑफ राजस्थान’ कहलाने वाले इस शहर की गुड़ और खांडसारी मंडी की मिठास अब ढूंढ़ने से भी नहीं मिलती। खाने-पीने के शौकीनों का यह शहर अब दक्षिण भारतीय व्यंजनों, पिज्जा, बर्गर तथा चाउमीन के चटखारे भी लेने लगा है किंतु पुराने लोग आज भी हालू बाजार के देसी घी के पकवान, मालपुए तथा पं. निरंजन हलवाई का गाजरपाक, बनवारी लाल मस्ता के पेड़े, मोतीलाल का कढ़ाई वाला दूध, गंगूराम के छोले और पहलवान के दही-भल्ले आज भी याद करते हैं। एक उक्ति बड़ी प्रसिद्ध है कि भिवानी में जन्मा व्यक्ति देश-विदेश के किसी भी कोने में रहे, उसका मन रहता है इन्हीं गलियों, गलियारों, चौपालों तथा चौराहों में। हर शाम को दीया-बाती करते हुए एक दीपक वह अपने शहर की खुशहाली के लिए जरूर जलाता है।
आबोहवा का कर्ज
हर पुराने शहर का अपना मिजाज, रंग-रूप, अपनी छटा और छवि होती है। समय के साथ बहुत कुछ छूट जाता है तो काफी कुछ जुड़ता भी है। इस पुश्तैनी नगर के नागरिकों के मानस में वह पुराना शहर हमेशा जिंदा रहता है। उनकी रगों में खून के साथ दौड़ता है। कभी आवाज लगाता है तो कभी स्मृतियों के गलियारे में चुपचाप चहलकदमी करता है। ऐसा ही कुछ अनुभव पिछले दिनों ख्यातिप्राप्त कलाकार रामप्रताप वर्मा की डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘वैनिशिंग ट्रेजर ऑफ वॉल पेंटिंग्स’ देखकर हुआ था। इस फिल्म में भिवानी की पुरानी हवेलियों की दीवारों तथा छतों पर बने भित्तिचित्रों के माध्यम से नगर की सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक गरिमा और महिमा को संपूर्ण कलात्मकता के साथ दर्शाया गया है। इसी शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक रोमांचित करने वाली है।
अंधी दौड़ में धरोहर
कुछ दिनों के बाद यही अनुभव विचलित करने वाला सिद्ध हुआ। इन भग्न हवेलियों की इस धरोहर को संभालने वाला कोई नहीं है। जर्जर दीवारों पर महाभारत, रामायण, श्रीमद्भागवत तथा ऐतिहासिक प्रसंगों के चित्र, उनका रंग संयोजन, उनकी भाव-भंगिमाएं सब धीरे-धीरे नष्ट हो रहीं हैं मगर भौतिकवाद की अंधी दौड़ में शामिल समाज को इसकी फिक्र नहीं। शासन-प्रशासन तो वैसे ही कला, साहित्य और संस्कृति से सदा विमुख रहा है, उससे कुछ भी अपेक्षा रखना बेकार है। कमाल की बात तो यह है कि दीवारों पर चित्रित इन जीवंत कथानकों को आकार देने वाले कलाकार अधिकांशत: मुसलमान थे। यह फिल्म यह भी सिद्ध करने में सफल रही कि लोक कलाओं का विकास तथा उनका निवास सामान्य जन के हृदय में ही होता है।
शहरे-गुलशन की स्मृतियां
लगभग चार दशक से चंडीगढ़ जैसे सुनियोजित और सुंदर शहर में रहने के बावजूद भिवानी मेरी चेतना का अविभाज्य अंग है। मेरी बहुत-सी कहानियों के पात्र, घटनाएं तथा पृष्ठभूमि इसी नगर की हैं। कई गजलें, कविताएं तथा गीत इसकी आबोहवा की ऋणी हैं। जब भी अकेलापन सताने लगता है, स्मृतियों के इस खजाने से कुछ लम्हें चुरा लेता हूं। शहरे-गुलशन में भी जिसकी याद तड़पाती रही/कोई न कोई कशिश इस शहर की माटी में थी।
(माधव कौशिक चर्चित साहित्यकार हैं)