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19 फरवरी 2024 · FEB 19 , 2024

शहरनामा: धार

राजा भोज की नगरी
यादों में शहर

भोज राजा की शान

‘मालवा की रानी’ के रूप में प्रसिद्ध मध्य प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र में गुजरात राज्य की सीमा से सटा आदिवासी बहुल जिला धार अर्ध शहरी जिला मुख्यालय है।  यहां के राजा भोज शौर्य और बाहुबल के साथ न्याय, शांति मां सरस्वती के उपासक थे। सम्राट भोज संभवतः इकलौते शासक थे, जिन्होंने शस्‍त्र और शास्‍त्र दोनों में पारंगत होकर लोगों को प्रभावित किया। राज्य में संस्कृत को राजभाषा का दर्जा दिया, जिसके प्रमाण भोजशाला और विजय स्तंभ में दिखाई देते हैं। उन्होंने महान कान्हन, माग, भारवी, भट्ट, गोविंद जैसे अनेक मूर्धन्य लेखकों को राज्यश्रय दिया। धार राज्य और भोजपुरी की ख्याति भोपाल सूबे से लेकर जम्मू-कश्मीर के कोटेर गांव तक थी, जहां राजा ने कंपटेश्वर महादेव का मंदिर और फूटा तालाब बनवाया था। केदारनाथ मंदिर बनवाने के साथ-साथ, भोपाल का बड़ा तालाब, भोजपुर का विशाल शिवलिंग राजा भोज के ही साहस और पराक्रम का बेजोड़ नमूना आज भी मौजूद है।

अतीत से अलग

भोज को वास्तुशास्‍त्र और स्थापत्य कला में महारत हासिल थी। उन्होंने शहर में एक चौराहा बनवाया, जो सांसारिक जीवन की 84 योनियों में भटकने के पश्चात प्राप्त होने वाली मनुष्य योनी को दर्शाता था। चार वेदों पर आधारित 84 चौराहा का निर्माण करने वाले भोज आज जब हर चौराहे पर अस्त-व्यस्त ट्रैफ्रिक, गाड़ियों की चिल्ल-पों देखते सुनते होंगे, तो किसी भी कोण से घूम कर वापस उसी चौराहे पर आ जाने वाले विशेषता से भरे चौराहे को बनाने की उनकी खुशी भी काफूर हो जाती होगी। इतिहास की विशेषताओं से भरी यह जगह अब अर्ध विकसित शहर से ज्यादा कुछ नहीं है।

किले से क्रांतिकारी तक

यहां शहर के उत्तर में छोटी पहाड़ी पर लाल बलुआ पत्थर से बना, समृद्ध इतिहास की झलक देता एक किला है। 14वीं शताब्दी के आसपास सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने इसे बनवाया था। 1857 के विद्रोह के दौरान क्रांतिकारियों ने इस किले पर कब्जा कर लिया था। अफगान शैली में बने इस किले के अलावा, एक खरबूजा महल है जहां पेशवा बाजीराव द्वितीय का जन्म हुआ था।

भोजशाला मंदिर अपनी ऐतिहासिकता और विवाद दोनों वजह से पूरे भारत में पहचना जाता है। मूल रूप से यह देवी सरस्वती का मंदिर है, जिसे राजा भोज ने बनवाया था। भोजशाला मंदिर में संस्कृत में खुदे अभिलेख इसके मंदिर होने का प्रमाण देते हैं। यहीं से देवी अंबिका की मूर्ति को ब्रिटिश ले गए, जो अब वहां एक संग्रहालय में रखी हुई है। यहीं के एक क्रांतिकारी, राव बख्तावर को 10 फरवरी 1858 में इंदौर छावनी में 1857 की क्रांति का नेतृत्व करने के जुर्म में फांसी दे दी गई थी।

शैव, वैष्णव, बौद्ध और रुक्मिणी हरण

यहां से 40 किलोमीटर दूर अमझेरा शैव और वैष्णव संप्रदाय के अनेक प्राचीन मंदिर हैं। अधिकांश शैव मंदिर महादेव, चामुंडा, अंबिका को समर्पित हैं। लक्ष्मीनारायण और चतुभरुजंता मंदिर वैष्णव संप्रदाय के प्रसिद्ध मंदिर हैं। जोधपुर के राजा राम सिंह राठौर ने 18-19वीं शताब्दी के बीच यहां एक किला भी बनवाया था। मान्यता है श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी हरण यहीं किया था। पूर्व-उत्तर बने अमका-झमका मंदिर में रुक्मिणी हर रोज पूजा के लिए जाती थीं।

पास ही आदिवासी इलाका, बाग है। यहां की गुफाएं बहुत प्राचीन हैं। इन गुफाओं का संबंद्ध बौद्ध मत से है। यहां कई बौद्ध मठ और मंदिर हैं। 1818 में खोजी गई इन गुफाओं में अजंता और एलोरा की गुफाओं जैसी समानता है। गुफाओं के भीतर बनी चित्रकारी हैरत में डालती है। यहां कपड़ों पर की जाने वाली छपाई को बाग प्रिंट नाम से जाना जाता है, जो पूरे भारत में प्रसिद्ध है।

अमर प्रेम की कहानी

धार से मात्र 35 किलोमीटर की दूरी पर है, ऐतिहासिक स्थल मांडू। बाज बहादुर और रानी रूपमती की प्रेम कहानी के लिए चर्चित आनंद नगरी मांडू अपने जहाज महल के लिए बहुत उल्लेखनीय है। यहीं पर प्रभु श्रीराम का ऐतिहासिक चारभुजा मंदिर, नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर, बाज बहादुर महल, होशंग शाह का मकबरा, चंपा बावड़ी, बूढ़ी मांडव और चांदी की एक लकीर की तरह चमकती नर्मदा नदी के दर्शन वाला रानी रूपमती का महल भी है।

भगोरिया की भव्यता

आदिवासियों के सबसे बड़े त्योहार भगोरिया की धूम अब विदेशों तक में है। मांदल की थाप पर नाचते आदिवासी युवा, नवयुवतियों को कनखियों से निहारते हैं। जो पसंद आ जाती है, उसे पान खिला कर भगा कर ले जाते हैं। बाद में दोनों परिवार की रजामंदी से शादी कर लेते हैं। 

अभाव के खाने का स्वाद

धार अब भले ही शहरी रंग में रंग गया हो, लेकिन एक वक्त था, जब आदिवासी बहुल क्षेत्र में गेहूं खरीदना रईसी हुआ करती थी। तब दाल-पानिये बना कर वे अपनी भूख मिटाते थे। मक्की के आटे की बाटीनुमा गोलों को खाखरे के पत्ते में लपेट कर उपलों में सेंका जाता है, मसाले डाल कर छौंकी दाल के साथ खाया जाता है। अब यह डिश होटलों में मिलने लगी है। इसके अलावा लाल-मिर्च और लहसुन की चटनी, ज्वार की रोटी, कढ़ी खाने का भी रिवाज है।

देवेन्द्र काशिव

(फ्रीलांस लेखक)

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