छावनी की यादें
गंगा के किनारे बसा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी दिशा में स्थित है। फरूर्खाबाद जिले का फतेहगढ़ शहर सेना की छावनी होने के नाते और आस-पास के गांवों में आलू की बहुतायत पैदावार होने के नाते पूरे देश में जाना-पहचाना जाता है। इसी छोटे से शहर की छावनी यादों में बसी है। फतेहगढ़ का किला और फतेहगढ़ का घटियाघाट मेरी शिद्दत के साथ अंतरचेतना में मौजूद रहता है।
विजय किला
1720 में गंगा नदी को पार करने के लिए मोहम्मद खान ने यह किला बनवाया था। उस समय किले के बारह बुर्ज थे और किले के चारों ओर एक खाई थी। 1751 में नवाब अहमद खान ने इस किले का नाम फतेहगढ़ यानी ‘विजय का किला’ रखा। आगे चलकर अंग्रेजों ने इस किले पर अपना अधिकार कर लिया और आजादी के बाद से किला भारतीय सेना का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बन कर उभरा।
मुक्तिबोध की कविता
फतेहगढ़ के सेंट्रल स्कूल के अध्यापक आज भी मेरी चेतना में मौजूद हैं, जिनकी हर चंद कोशिश रहती थी कि उनके स्कूल के छात्रों का नाम देश की मेरिट सूची में आए। बैरक में जंगली झाड़ियों के बीच मौजूद स्कूल में पढ़ाई से ज्यादा आस-पास की झाड़ियों में रेंगते सांपों पर रहती थी। आज भी मुक्तिबोध की ‘ओ काव्यात्मक फणिधर’ कविता की लाइनें ‘सर-सर करता छत चढ़ा, फांद दीवार बढ़ा, वह नाग’ पढ़ते वक्त फतेहगढ़ में देखे गए सांप चेतना में दस्तक देने लगते हैं।
साइकिल की सवारी
फतेहगढ़ में गंगा नदी के किनारे स्थित मशहूर घटिया घाट के किनारे के तरबूज, खरबूजे और ककड़ियां का स्वाद एक बार चख लिया, तो फिर कहीं और के तरबूज-खरबूज-ककड़ी खाने का मन नहीं करेगा। एक वक्त था, जब अलसुबह उठकर साइकिल से इस घाट पर जाना और आस-पास के खेतों से थैले भर-भर तरबूज, खरबूजे और ककड़ियां लाना फतेहगढ़ के लोगों का प्रिय शगल था। यहीं एक और घाट है, किला घाट। इस घाट के किनारे स्वामी जी की कुटिया की यादें मन में आज भी ताजा हैं। यहां आकर गंगा में तैरने और नहाने का मौका मिलता था।
महादेवी से रोशन इलाका
इस शहर के आसपास के इलाके में साहित्य जगत की कुछ ऐसी शख्सियतें हुईं जिनके जिक्र के बिना साहित्य के इतिहास और संस्कृति पर चर्चा करना बेमानी-सा है। छायावाद की मशहूर कवयित्री महादेवी वर्मा, ऊर्दू शायरी में अपनी धाक जमाने वाले मशहूर शायद जनाब गुलाम रब्बा्नी तांबा, ख्याल गायकी के मशहूर गायक इतवारी लाल और नौटंकी कला में इतिहास रचने वाली गुलाब बाई की कर्मस्थरली भी फतेहगढ़ के आसपास की रही है।
आल्हा और आलू की कथाएं
यहां पग-पग पर आल्हा और ऊदल की वीरता भरी कथाएं भरी हैं। बावन युद्धों के महानायक आल्हा-ऊदल की बहादुरी की कथाओं को लोकगीतों के माध्यम से सुनाने की परंपरा इस शहर में भी थी। उनकी वीरता भरी कहानियां हर पीढ़ी के लोग अपने बच्चों को सुनाते हैं। बचपन में सुनी इन कहानियों में मौजूद साहस और रोमांच की धारा आज भी शरीर में वेग से दौड़ती हैं। आल्हा-ऊदल की वीरता भरी कथा, स्मृतियों का वह हिस्सा है, जो अमिट है।
आल्हा-ऊदल की कथाओं की तरह ही यहां आलू के भी कई किस्से हैं। दरअसल यहां आलू बहुतायत में होता है। यहां देश की सबसे बड़ी आलू मंडी है। जैसा आलू इस शहर में होता है वैसा देश के किसी और भाग में नहीं होता। यहां की स्थानीय परिस्थितियां और आबोहवा आलू का स्वाद बदल देती है। बातचीत में आलू भी एक विषय होता है और खानपान में भी। जिस तरह भारत के दूसरे शहरों में समोसा खाया जाता है, उसी तरह यहां गली-मुहल्ले में आपको भुना हुआ आलू मिल जाएगा। शादी समारोह में आइसक्रीम खाने के बाद भुने आलू खाना एक तरह से कहें, तो रस्म बन चुका है।
इमरजेंसी के कैदी
यहां एक केंद्रीय कारागर है। फतेहगढ़ जेल में इमरजेंसी के दौरान पकड़े गए राजनीतिक लोगों को रखा गया था। किसी जमाने में इसी जेल प्रांगण में क्रांतिकारी शहीद मणिन्द्र नाथ बनर्जी की प्रतिमा लगाई गई थी। लेकिन अब यह कस्बा भी आधुनिकीकरण की भेंट चढ़ रहा है। जोश और उमंग का संचार करने वाले आल्हा ऊदल की गीतात्मक कहानियां सुनाने वाले लोग कहीं दिखाई नहीं देते। खुशी का आह्वान करने वाली रामलीला का वैभव कहीं गुम गया है। जेठ की दुपहरी में राहत देने वाले प्याऊ की रवायत तबाह हो गई है। इक्कीसवीं सदी के बाजार ने बहुत कुछ नष्ट कर शहर के वैभव को ध्वस्त कर दिया है। फतेहगढ़ के बदले रूप पर मीर का कहा हुआ याद आता हैः
दिल वह नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके,
पछताओगे, सुनो हो यह बस्ती उजाड़ के
(साहित्यकार)