Advertisement
12 मई 2025 · MAY 12 , 2025

शहरनामाः गोंडा

तहजीब का शहर
यादों में शहर

बड़े दिल का छोटा शहर

हमारा शहर सिर्फ जिला या शहर नहीं है। यह उससे भी कहीं आगे है। अगर इसे तहजीब का शहर कहा जाए, तो भी गलत नहीं होगा। लेकिन तहजीब शब्द के साथ दूसरी पहचान जुड़ी होने से इस शहर को इसका फायदा नहीं मिल पाता। तहजीब बोलने से लखनऊ की छवि मन में उभरती है। लेकिन गोंडावासी भी बहुत विनम्र, सहृदय होते हैं। यहां बोली में अलग तरह की मिठास है। यहां लोग भोजपुरी भी बोलते हैं, लेकिन यहां की बोली अवधि की मिठास के ज्यादा करीब है। यहां का अलग ही इतिहास है, जो गांव की पगडंडियों से शहर की सड़कों तक फैला है। उत्तर प्रदेश के नक्शे पर यह शहर बहुत बड़ा नहीं दिखता, मगर यहां के लोगों का दिल बहुत बड़ा है।

इतिहास में गुम

गोंडा की पैदाइश के बारे में, इतिहास की किताबें भी पक्के तौर पर कोई जवाब नहीं दे पातीं। लेकिन इतना जरूर है कि जब रामायण लिखी जा रही थी, तब यहां की धरती भरत के कदमों की आहट महसूस कर रही थी। अयोध्या के एकदम नजदीक होने से यह शहर कोसल प्रदेश का हिस्सा था। कहानियां हैं कि भगवान राम ने जब राज्य विभाजित किया, तो यह इलाका भरत को मिला था। यहां की हवा में धार्मिक सौहार्द और आस्था घुली रहती है। यहां अयोध्या की तरह राम के नाम का शोर कम और उनकी शांत छवि का स्पर्श और श्रद्धा ज्यादा है।

सरयू की सरगम

इस शहर की जीवनदायिनी है, सरयू। यूं भी कहा जा सकता है कि यह नदी नहीं बल्कि यहां की धड़कन है। इसकी धारा इस शहर की नब्ज है। कहा जाता है कि नदियां बस पानी नहीं होतीं, वे इतिहास होती हैं उसकी गवाह भी। सरयू यहां के लिए ऐसी ही है। सरयू के तट ने यहां बहुत कुछ देखा है, संतों की साधना, गांव की छठ पूजा, गुड़िया पर्व और न जाने क्या-क्या।

गन्ना, गेहूं और गांव की गलियां

यहां सिर्फ गन्ना ही नहीं उगता, बल्कि किसानों की उम्मीद भी उगती है। धान की हरियाली हो या सरसों के फूल, यहां के खेत हर मौसम में इतने खूबसूरत दिखते हैं, जैसे दीवारों पर टंगी तस्वीर। यह शहर भले ही छोटा हो लेकिन फिर भी हम इसे कस्बा नहीं मानते हैं। यहां के कुछ इलाके गांव होने का भ्रम देते हैं। छोटी गलियां, घुमावदार संकरे रास्ते पर भले ही गांव का अहसास हो लेकिन जब ये रास्ते भीड़ और ट्रैफिक की सड़कों पर जुड़ते हैं, तो लगता है कि यह बढ़ता हुआ शहर ही है।

बोली-बानी

यहां अधिकांश लोग अवधी बोलते हैं। मीठी और अपनेपन से भरी यह भाषा सीधे दिल तक उतरती है। यहां, ‘‘कहां जात हौ भइया?’’ कहने में जो स्नेह है, वो अंग्रेजी के ‘हैलो’ कहने से कहीं ज्यादा है। एक-दूसरे से यह पूछना टोक नहीं बल्कि स्नेह का पर्याय है। यहां के सीधे-सच्चे लोग वास्तव में गंगा-जमुनी तहजीब के वाहक हैं। 

परसपुर मेला

यहां छोटे मेलों में भी खूब रौनक होती है। लेकिन परसपुर का मेला खास है। साथ ही पास ही झंझरी का शिव मंदिर और स्वामी नरहरिदास की तपोभूमि सिर्फ धार्मिक स्थल नहीं बल्कि शहर की संस्कृति की कहानी बयां करते हैं। यहां की रामलीलाएं आज भी रंगमंच से नहीं, दिल से खेली जाती हैं। कलाकार गांव-गांव से आते हैं, किरदारों के अनुसार खुद सजते हैं। मंच पर जब राम वनवास के लिए निकलते हैं, तो कई आंखें नम हो जाती हैं और लोग श्रद्धा से उन्हें नमस्कार करते हैं।

मौसम और स्वाद

यह शहर गर्मियों में आग का गोला बन जाता है। वहीं सर्दियों में इतना ठंडा हो जाता है कि धुंध और चाय की भाप के बीच अंतर करना मुश्किल होता है। बारिश भी यहां खूब झूम कर होती है। भीगी गलियां, मिट्टी की खुशबू और खेतों में लहराते गन्ने जैसे कोई लोकगीत गीत हवा में गूंज रहा हो। मिठाई यहां देसी ही होती हैं लेकिन स्वाद बिलकुल अलग। गुड़ की जलेबी, चटपटा समोसा, गर्मियों में चने के सत्तू का घोल, ये स्वाद न तो किसी फूड चेन में मिलेगा, न किसी ऐप पर डिलीवर होगा। यहां के स्वाद दिल से निकलते हैं और दिल तक पहुंचते हैं।

क्रांति से रिश्ता

कहा जाता है कि यहां के लोग भी 1857 की क्रांति का हिस्सा थे। इस पहले स्वतंत्रता संग्राम में यहां से कई लोग हिस्सा लेने गए थे। आजादी की अलख जगाने वाले आंदोलन में यहां के कई वीरों के नाम कहानियां दर्ज हैं। आज भले ही यह शहर तेजी से बदल रहा है, नई-नई सड़कें बन रही हैं, इंटरनेट आ रहा है, यहां के बच्चे अवसरों की तलाश में बड़े शहरों की तरफ जा रहे हैं, लेकिन यहां का मिजाज अभी भी वैसा ही है, धीमा और गहरा।

आखिरी बात...

यह शहर चिल्लाकर अपनी पहचान नहीं जताता, नक्शे पर यह बहुत प्रसिद्ध भी नहीं है लेकिन एक बार जो यहां की मिट्टी से होकर गुजर गया, वह यहां कुछ न कुछ छोड़ गया और यहां से ले गया ढेर सारा अपनापन। जब भी आप उत्तर प्रदेश की राह लें, तो इस शहर से जरूर मिलिए। यह शहर आपको किसी खेत में, किसी मंदिर की घंटी में, किसी बूढ़े हलवाई की दुकान पर मिल जाए, एक प्याली मीठी चाय और खूब सारी बातों के साथ।         

वंदना गुप्ता  

(गृहिणी)

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement