शहर एक नाम दो
झारखंड राज्य के इस शहर के दो नाम हैं- जमशेदपुर और टाटा नगर। 1919 में लॉर्ड चेमस्फोर्ड ने जमशेद जी के सम्मान में नाम बदलने से पहले इस शहर का नाम साकची था। दरअसल यह शहर नहीं, छोटा-सा गांव था। यहां की मिट्टी में अन्य खनिज के अलावा लोहा प्रचुर मात्रा में पाया जाता था। कलकत्ता के पास होने के कारण जमशेद जी नौशरवान जी टाटा ने 1907 में ‘टाटा आयरन ऐंड स्टील’ की स्थापना की। इस स्टील कंपनी ने ही इस शहर में संस्कृति की विविधता को बसाया। इस तरह यह गांव, नगर में तब्दील होकर टाटा नगर कहलाया!
मिश्रित संस्कृति
बंगाली और बिहारी संस्कृति से प्रभावित होने के बाद भी इस शहर की मिली-जुली तहजीब है। टाटा समूह की कंपनियों के विस्तार से रोजगार के मौके बढ़े, काम की तलाश में देश के कोने-कोने से आकर लोग बस गए। यहां सभी एक-दूसरे की संस्कृति का सम्मान करते हैं और उत्सवों में एकजुट हो बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। जमशेदपुर निवासियों में प्रांतों का भेद-लोप हो गया है। दुर्गा पूजा के दिनों में समूचा शहर एक ही रंग में ढल कर उत्सवी हो जाता है। शहर भर में इतने पंडाल सजते हैं कि एक दिन में उन्हें देख पाना किसी के लिए संभव नहीं होता।
सब एक जैसा
इस शहर की सड़कें और मोहल्ले ही नहीं मन भी, लगता है, डिजाइन किए हुए हैं। टिस्को में काम करने वालों के बच्चे टिस्को स्कूल में पढ़ते हैं, टेल्को में काम करने वालों के बच्चे टेल्को में और सरकारी नौकरों के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में। टेल्को क्वार्टर्स में रहने वालों के घरों में लगभग एक जैसे फर्नीचर, टीवी फ्रिज और दोपहिया वाहन देखने को मिलेगें। ठीक ऐसा ही टिस्को क्वार्टर्स में रहने वालों के साथ भी है। अधिकतर लड़कियों की शादी इसी शहर में होती है और घर के बड़े बेटे को कंपनी में पिता की जगह मिलना तय होता है। अतः भविष्य को लेकर संजीदगी कम ही देखने को मिलती है। हालांकि बाद के वर्षों में बदलते वक्त के साथ स्थितियां पहले जैसी नहीं रहीं।
हमारा बॉम्बे
बंबई का क्रेज किसी सूरत में कहीं भी रह लो कम नहीं होता। हम जमशेदपुरवासियों में भी यही भावना है। छोटे शहरों में गिना जाने वाला टाटा नगर उच्च महानगरीय जीवन शैली की वजह से मिनी बॉम्बे नाम पहचाना जाता है। हर पखवाड़े परिवार सहित बाहर खाने का चलन, नया फैशन सब कुछ यहां है। ऐसा नहीं कि सब चमक-दमक वाला है। ठेलों पर भी यहां स्वादिष्ट खाने की चीजें मिलती हैं, जिनमें से डोसा है। डोसे का ठेला घर तक आया करता था!
भाषा की मिठास
बंगाली प्रभाव वाली बिहारी हिंदी की मिठास भी यहीं की विशेषता है। जिसमें ‘श, स, ष’ से कोई भेदभाव नहीं किया जाता। ‘र’ और ‘ड़’ का प्रयोग भी अपनी सुविधा अनुसार किया जा सकता है और मजे की बात इसे सब समझ लेते हैं। जैसे डोसा को ढोंसा और इडली को इटली कहने पर कोई किसी को गंवई नहीं कह सकता। ठेठ जमशेदपुरिया भाषा में जेंडर न्यूट्रल हो जाता है। सामान्य रहन- सहन में एकरूपता पाई जाती है। पुणे के बाद सबसे अधिक दुपहिया वाहन जमशेदपुर की सड़कों पर पाए जाते हैं। फैक्ट्री की ओर जाने वाले वर्कर्स हों या कोचिंग के लिए जाने वाले स्टूडेंट्स, अमूमन सभी घरों में एक से दो टू व्हीलर जरूरी साधन के रूप में पाए जाते हैं। यहां सागवान और बेंत के फर्नीचर बेहद लोकप्रिय हैं और साड़ियों में तांत खूब पहनी जाती है। स्ट्रीट फ़ूड में गोलगप्पा (पानी पूड़ी) चाट की तो बात ही क्या है। जुबली पार्क के बाहर बारह-मास मेला-सा लगा रहता है।
जुबली पार्क की संस्कृति
जुबली पार्क को मात्र पार्क कहना गलत होगा, दरअसल यह जमशेदपुर संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। मध्य दिसंबर से लेकर मध्य जनवरी के दौरान इस पार्क में पैर रखने की जगह नहीं मिलती। नए साल में लगभग सभी परिवार दोस्त-साथी संग समूह में पिकनिक का कार्यक्रम महीनों पहले तय कर रखते हैं। पांच सौ एकड़ में फैला टाटा स्टील द्वारा बनाया गया यह पार्क शहर का मुख्य आकर्षण है। दो वर्षों में तैयार हुआ यह पार्क भारत के सबसे खूबसूरत पार्कों में से एक है। केंद्र में जमशेद जी टाटा की मूर्ति है। इर्द गिर्द फैली है रोज गार्डन, मुगल गार्डन, झील, एम्यूजमेंट पार्क और वन्य जीव उद्यान। झील में नौका विहार की सुविधा भी उपलब्ध है। रंग-बिरंगे, छोटे बड़े फ़व्वारों से सजा यह पार्क तीन मार्च, स्थापना दिवस पर दुल्हन की तरह सजाया जाता है।
कार्बन की काली छाया
यूं यह शहर टाटा के नाम से गौरवान्वित होता है किंतु कंपनियों और वाहनों से निकलने वाला कार्बन किसी प्रेत की छाया-सा आकाश में मंडराता रहता है। गर्मी के दिनों में तापमान 47 से 49 डिग्री तक जाता है। किंतु एक दो बारिश होने पर ठंडक दो दिनों तक बनी रहती है। बेनकाब बाहर निकलने से चेहरे पर एक काली परत चढ़ आती है। नॉइज पोल्यूशन और एयर पोल्यूशन के मामले में जमशेदपुर छोटे शहरों में अग्रणी है।
(लेखिका)