ऊंघता-सा शहर
इतिहास की गोद में ऊंघता-सा एक शहर है, उत्तर प्रदेश का जौनपुर। पुराने शहरों के साथ अक्सर ऐसा होता है कि वे किसी मील के पत्थर से यू टर्न लें और सभ्यता की सामान्य दिशा से उल्टी दिशा में चल पड़ें। जौनपुर के साथ भी यही हुआ है। अब यह भी कस्बाई तबीयत का हो चला है। नए पनपते शहरों के मॉल, मल्टीप्लेक्स और मल्टीस्टोरी हाउसिंग सोसाइटी के चमकीले वर्तमान के सामने संकरी सड़कों, बूढ़े मुहल्लों और खंडहर होती इमारतों से बुना जौनपुर का वर्तमान खासा बदरंग नजर आता है। शहरीकरण की अंधी दौड़ में कस्बाई होना, तो एक हासिल होता मगर हुआ यूं कि अब इसकी पहचान बेरोजगार नवयुवकों की भीड़ से है, अपराध से है।
मलिक सरवर का सपना
यह लगभग सात-आठ सौ साल पहले बसा। दिल्ली से कलकत्ता के ठीक बीचोबीच होने से इसे प्रशासन चलाने की जरूरतों की वजह से सुल्तान फीरोज शाह तुगलक के आदेश पर मलिक सरवर ने बसाया। कहानी है कि बंगाल से लौटते वक्त गोमती नदी के तट पर सैन्य छावनी में विश्राम के दौरान बारिश के दिनों में इस जगह की सुंदरता से मुग्ध हो गया था सुल्तान। यह बात शासकीय जरूरतों वाली बात से ज्यादा आकर्षक लगती है। गोमती त्रिविध मुखी बहती हुई शहर को दो बराबर हिस्सों में बांटती है। तट पर ही शाही किला है। किले के पास अटाला मस्जिद। वास्तुकला और अपने शानदार माजी पर इतराती और भी बहुत-सी इमारते हैं यहां। सिकंदर लोधी द्वारा नुकसान पहुंचाए जाने के बावजूद शर्की शासन काल में बनीं अनेक इमारतें, मस्जिदें, सूफी दरगाहें अपनी विशिष्ट शैली और पहचान के साथ आज भी खड़ी हुई हैं। इन इमारतों की अलग-अलग ऐतिहासिक हस्ती है जो तामीर करने वाले बादशाहों, अमीरों, मजदूरों के इतिहास के साथ घुलमिल गई है।
अकबर की छाप
इस शहर को सम्राट अकबर ने भी एक तोहफा दिया है। एक शाही पुल, जो दो सिरों को जोड़ने से ज्यादा, दो संस्कृतियों को बांधता हुआ आज भी खड़ा है। इस शहर में साझा संस्कृति का समन्वय सांस ले रहा है। क्या ये महज संयोग है कि सूफी प्रेमाख्यान काव्यों के पहले और सबसे मानीखेज रचयिता किसी न किसी तरह से जौनपुर से संबंधित रहे हैं। कुतुबन, मंझन, नूर मुहम्मद तो इस सरजमीं के हैं ही, जायसी भी अपने गुरु के माध्यम से जौनपुर की भूमि से ही रचनाधर्मिता ग्रहण करते हैं। उस्मान वर्तमान गाजीपुर से हैं, जो सूरी समय में जौनपुर का ही एक हिस्सा था। शेख निसार शेखूपुर के रहने वाले थे, जो फैजाबाद में है। ख्वाजा अहमद प्रतापगढ़, शेख रहीम बहराइच, कवि नसीर गाजीपुर के रहने वाले थे। सब जौनपुर के आस–पास।
तालीम से नाता
शिक्षा का मरकज रहा है यह शहर। शेरशाह सूरी को तालीम हासिल करने के लिए बिहार से यहां भेजे जाने की बात हो या शाहजहां द्वारा जौनपुर को ‘दारुलइल्म’ और ‘शीराज-ए-हिंद’ कहा जाना। शर्की शासनकाल में या उसके बाद भी यहां फारस और सीरिया के बहुत से विद्वान आए और शिक्षा-दीक्षा का कार्य किया। शहाबुद्दीन दौलताबादी, मौलाना सफी, मख्दूम सैय्यद अशरफ जहांगीर सेमनानी जैसे बहुत से नाम हैं, जिनकी विद्वत्ता का डंका न केवल उत्तर भारत बल्कि मध्य एशिया के देशों में भी बजता रहा। यहां बहुत से मदरसे खुले जहां पारंपरिक शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की भी तालीम दी जाती थी। मुल्ला मुहम्मद महमूद जैसे दार्शनिक कई वर्षों तक इस काम में लगे रहे। मध्यकाल में कवियों, बागों, शिक्षकों और शराब के शहर के रूप में विख्यात ईरान के शीराज की तर्ज पर इसे शीराज-ए-हिंद कहा गया। हिंदुस्तान का शीराज!
अतर के फाहे
शिक्षा की तरह ही यहां के अतर (इत्र) की खुशबू भी खूब फैली। अब भी शौकीन बूढ़े जौनपुरिये कान के घुमावदार किसी मोड़ पर अतर की भीनी खुशबू में भीगी रुई का फाहा खोंसे मिल जाते हैं। बॉलीवुड यहां के चमेली के तेल का जितना भी मजाक उड़ा ले लेकिन यह वही तेल है, जो जौनपुरियों के दिमाग को चमकाता है। कहन के हिसाब से जौनपुर मूली-मक्का-मक्कारी के लिए प्रसिद्ध था। मक्के के साथ-साथ जफराबाद की रेतीली जमीन पर उगने वाले खरबूजे आम से भी ज्यादा रसीले और स्वादिष्ट बताए जाते हैं। जौनपुर की आदम कद मूलियां सलाद से ज्यादा सब्जी और अचार के काम आती हैं। डेढ़ सौ से ज्यादा साल से मशहूर बेनीराम-देवीप्रसाद की इमरती भी जौनपुर का स्वाद दूर-दूर तक ले गई।
संगीत का नाद
खयाल गायकी के खलीफा हुसैन शाह शर्की शानदार संगीत अन्वेषक थे। उनके द्वारा ‘राग जौनपुरी’ या ‘आसावरी’ जैसा प्रचलित राग तो बनाया ही गया, रागिनियों में भी चौदह श्याम जैसे ‘गौड़ श्याम’, ‘मल्हार श्याम’, ‘भूपाल श्याम’ आदि की संकल्पना की गई। कालजयी है हफीज जौनपुरी, वामिक़ जौनपुरी, शफ़ीक़ जौनपुरी जैसे शायरों का कलाम। बनारसी दास की आत्मकथा, पं. राम नरेश त्रिपाठी, श्रीपाल सिंह क्षेम, पं. रूप नारायण त्रिपाठी की कविताई। भारत में डीएनए फ्रोफाईलिंग के जनक लालजी सिंह का योगदान भी मील का पत्थर है।
(आइपीएस अधिकारी)