रिचीबुरु
मुंडारी भाषा के इस शब्द में छुपी हुई है, हमारे शहर के नामकरण की कहानी। पहाड़ी रिचीबुरु के कारण शहर का नाम रांची पड़ा। मुंडारी में रिची का अर्थ होता है, बाज और बुरु मतलब पहाड़। पहाड़ी पर बाज पक्षियों के डेरे के कारण इसे रिचीबुरु कहा जाता था। रिचीबुरु से यहां के गांव का नाम पड़ा, रंचगांव। अपभ्रंश होता हुआ अरांची हुआ और रांची में बदल गया। एक कहानी यह भी है कि यहां एक छोटी सी बस्ती थी, जहां लोहार रहते थे। पास के गांव और बस्तियों के लोग लोहे के औजार बनाते थे। ये लोग अरची बनाने में बड़े निपुण थे। लोग अरची बनवाने के लिए बड़ी संख्या में यहां आया करते थे। इस कारण बस्ती का नाम अरची टोली पड़ गया। अरची शब्द का परिवर्तन आ-रची, रंची तथा रांची के रूप में हुआ।
लंदन से संबंध
स्वर्णरेखा नदी के तट पर बसा रांची पहले बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी के रूप में विख्यात था। विभाजन के बाद यह झारखंड की राजधानी बन गया। सेहतमंद जलवायु के लिए प्रसिद्ध इस शहर के आसपास के जलप्रपात इसकी सुंदरता में चार चांद लगाते हैं। आदिवासियों के जीवन को समझने के लिए भी यह शहर नृ-शास्त्रियों के लिए महत्वपूर्ण है। यहां केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान भी है। उसकी स्थापना प्रथम विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश सेना में बढ़ते मनोरोगियों की संख्या की वजह से की गई थी। 17 मई 1918 को इसका उद्घाटन हुआ था। 210 एकड़ में फैला ब्रिटिश भारत में यह अकेला संस्थान था, जो लंदन विश्वविद्यालय से संबद्ध था और मनोचिकित्सा में पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री देता था। देश को पहला मनोचिकित्सक (डॉ. एल.पी. वर्मा) इसी से मिला था।
योग केंद्र
परमहंस योगानंद ने 1917 में रांची में योगदा सत्संग सोसायटी ऑफ इंडिया की स्थापना की थी। वह ऐसा समय था, जब प्रचार-प्रसार के बहुत साधन नहीं थे। उस वक्त तक देश भी आजाद नहीं हुआ था। तब रांची से योग की धारा निकली थी। परमहंस योगानंद ने 1925 में अमेरिका के लॉस एंजेल्स के फिल्हामार्निक ऑडिटोरिम में योग के बारे में लोगों को बताया। उसके बाद विश्व भर में इसके प्रचार-प्रसार के लिए काम किया गया।
टैगोर हिल
रवीन्द्रनाथ टैगोर के बड़े भाई ज्योतिन्द्रनाथ ने यहां अपने लिए खूबसूरत विश्राम स्थल बनवाया था। इसके लिए उन्होंने यहां 15. 80 एकड़ जमीन 23 अक्टूबर 1908 में ली थी। ज्योतिन्द्र नाथ ने 1924 में इसी पहाड़ी पर रह कर बाल गंगाधर तिलक ने मराठी में लिखित गीता रहस्य का बांग्ला में अनुवाद किया था। बाद में इस पहाड़ी का नाम टैगोर हिल हो गया।
कर्क रेखा
रांची देश का एकमात्र प्रमुख नगर है, जो ठीक कर्क रेखा पर स्थित है। शायद इसी कारण इस क्षेत्र को प्राचीन काल में कर्कखंड भी कहा जाता था। यहां एक और अनूठा संस्थान है, भारतीय विधिक माप विज्ञान संस्थान। यह संस्थान पूरे दक्षिण एशिया में अपनी तरह का अकेला संस्थान है, जहां माप तौल विज्ञान के सांस्थानिक शिक्षण की व्यवस्था है। सात एकड़ भूखंड में स्थित इस संस्थान में राज्य या देश ही नहीं, कई देशों के छात्रों को प्रशिक्षण दे रहा है।
तितली पार्क
ओरमांझी में देश का सबसे बड़ा तितली पार्क है। 20 एकड़ भूभाग में फैले इस पार्क में 88 से अधिक प्रजाति की रंग-बिरंगी तितलियों का खूबसूरत संसार है। उनके भोजन के लिए होस्ट एवं नेक्टर प्लांट लगाए गए हैं, वहीं करीब 800 वर्ग फुट की कंजर्वेटरी बनाई गई है। कभी यह शहर चाय और लीची के लिए भी प्रसिद्ध था। यहां दो चाय बागान थे। एक दलादली में और दूसरा नामकुम में। दलादली में बागान 60 एकड़ में फैला था। 1983 तक चाय की खेती होती थी। कभी रातू रोड, पिस्का मोड़ और बरियातु हाउसिंग कॉलोनी के पास लीची के बागान थे।
जगन्नाथ मंदिर
झारखंड में ऐतिहासिक और धार्मिक परंपरा का काफी पुराना इतिहास रहा है। रांची शहर के दक्षिण में 250 फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित जगन्नाथ मंदिर उसी समृद्ध और ऐतिहासिक परंपरा का अंग है। इस ऐतिहासिक जगन्नाथ मंदिर की स्थापना संवत 1748 यानी 25 दिसंबर 1691 में ठाकुर ऐनी नाथ शाहदेव के द्वारा विधिवत रूप से की गई थी।
शहीद स्थल
रांची के शहीद स्थल में 16 अप्रैल, 1858 और 21 अप्रैल, 1858 को विश्वनाथ शाही और गणपत राय को एक कदंब के पेड़ पर लटका कर फांसी दी गई थी। यहां देश की अनेक विभूतियां श्रद्धांजलि दे चुकी हैं। खान अब्दुल गफ्फार खान, जवाहर लाल नेहरू, बाबू जगजीवन राम, जयप्रकाश नारायण, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी शमिल हैं।
खान पान
यहां के मूल निवासियों के खान पान में अईरसा पीठा, खपड़ा पीठा, धुसका, गुलगुला, झिल्ली, छिलका, मूढ़ी, घुघनी, हड़िया, कुदरूम की चटनी आदि विशेष है।
(लेखक, कला समीक्षक)