राजसी ठाठ और सलीका
विंध्य पर्वत श्रेणी की गोद में बसा रीवा शहर समृद्ध विरासत का शहर है। रीवा शहर का नाम रेवा नदी के नाम पर पड़ा है, जो नर्मदा नदी का पौराणिक नाम है। पुरातन काल से ही यह महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग रहा है, जो कौशांबी, प्रयाग, बनारस, पाटलीपुत्र आदि को पश्चिम और दक्षिण भारत को जोड़ता रहा है। यह बादशाह अकबर के नवरत्नों तानसेन और बीरबल जैसी महान विभूतियों की जन्मस्थली भी रही है। बीहर और बिछिया नदी के आंचल में बसा यह शहर बघेल वंश के शासकों की राजधानी के साथ-साथ विंध्य प्रदेश की भी राजधानी रही है।
शेर वो भी सफेद
विश्वभर में रीवा को सफेद शेरों की जन्मस्थली के रूप में भी जाना जाता है। मोहन नाम का दुनिया का पहला सफेद शेर, यहीं पाया गया था। मोहन की कहानी भी बहुत दिलचस्प है। सबसे पहले रीवा के महाराजा मार्तण्ड सिंह ने 27 मई 1951 में रीवा स्टेट के बरगाढ़ी जंगल (सीधी जिला) में शिकार करते हुए एक सफेद शावक को पकड़ा था। इस शावक का नाम मोहन रखा गया। उन्होंने उसे गोविंदगढ़ के किले में रखा था। मोहन को तीन शेरनियों- बेगम, राधा और सुकेशी के साथ रखा गया। इससे उत्पन्न 34 बच्चों में से 21 सफेद थे। इसलिए यह कहा जा सकता है कि आज दुनिया भर में जितने भी सफेद शेर हैं, वो सभी मोहन की संतान हैं।
बघेली सलाम
अगर कोई आपको अभिवादन के रूप में साहेब सलाम कहे, तो आपको लगेगा ये कौन का मुगल काल है। लेकिन जब सामने कोई मिलता है, तो लोग दोनों हाथ जोड़कर हल्का सा झुककर कहते हैं, साहेब सलाम! लेकिन यह कोई मुगलिया रियासत का अभिवादन नहीं, बल्कि पारंपरिक बघेली तरीका है। सभी लोग ऐसे ही एक दूसरे का अभिवादन करते हैं।
स्वाद और परंपरा का खान-पान
यहां का खास व्यंजन रसाज कढ़ी, इंद्रहार, रिकमच, बगजा इत्यादि हैं। ये सब पारंपरिक खाना है और इनका स्वाद अनूठा होता है। सभी व्यंजन बेसन और कई तरह की दालों से मिलकर बनती हैं। इस तरह के भोजन की वजह यहां की भौगोलिक स्थिति भी है। रीवा मध्य प्रदेश का पठारी भाग है। पुराने समय में बहुत शाक-सब्जी यहां उपलब्ध नहीं होती थीं, तब यातायात के समुचित साधन न होने से यह और भी मुश्किल था। यही वजह थी कि दाल के विभिन्न स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थ इजाद हुए, जो कालांतर में यहां पारंपरिक रूप से हर आयोजन का जरूरी हिस्सा हो गए। मीठे में रीवा की खोये की जलेबी और खुरचन मिठाई बहुत प्रसिद्ध है।
समृद्ध विरासत
यहां एक किला है, जो आने वालों को आकर्षित करता है। इस किले में एक म्यूजियम भी है, जहां इस क्षेत्र से संबंधित वस्तुएं रखी हुई हैं। यह एक समृद्ध विरासत की धरोहर हैं। किले में ही एक महामृत्युंजय मंदिर है, जिसकी आसपास के क्षेत्रों में बहुत मान्यता है। आसपास ऐसी बहुत सी जगहें हैं, जो प्राकृतिक सौंदर्य से भरी हुई हैं। बरसात में यहां की सुंदरता कल्पना से परे होती है। पुरवा फॉल, चचाई फॉल, क्योटी फॉल, बहुती फॉल देख कर किसी का भी मन आनंदित हो सकता है। पास ही गोविंदगढ़ है, जहां वाइट टाइगर रिजर्व सफारी का आनंद लिया जा सकता है। पास ही बांधवगढ़ नेशनल पार्क, संजय गांधी नेशनल पार्क और पन्ना टाइगर रिजर्व है।
मुख्यधारा से दूर
यह शहर देश की मुख्यधारा से कटा हुआ उनींदा सा शांत शहर है। आधुनिकता की हवा जहां थोड़ी देर से पहुंची फिर भी यहां के बाशिंदों ने अपने पुराने ढर्रे और रिवायतों को नहीं छोड़ा। उन्हें अपनी पुरानी बातों से इतना मोह रहा कि उसे छोड़कर आगे बढ़ना उनमें एक तरह से अपराधबोध जगाता था। विकास की दौड़ में पीछे रहने की एक वजह इसका रेलवे ट्रैक से कटा हुआ होना भी रहा। रीवा रेलवे स्टेशन का शुभारंभ 1993 में हुआ था। बहुत समय तक यहां से ट्रेन नियमित भी नहीं थी। आज भी रीवा से बहुत कम जगहों के लिए ट्रेन की सुविधा है। एयरपोर्ट है, पर नियमित उड़ान सेवाएं नहीं हैं।
धीमे-धीमे बदलाव
उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, मेडिकल कॉलेज, वेटरनरी कॉलेज, पत्रकारिता महाविद्यालय की सुविधा से शहर कई दशकों से लैस है पर विडंबना कि किसी भी सरकार ने इस शहर को आगे बढ़ाने में रुचि नहीं दिखाई। शहर अपने दम पर ही धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है। यहां की सड़कों पर भी हर नई गाड़ी दौड़ती दिखती है, नित नए शॉपिंग मॉल और मल्टीप्लेक्स भी खुल ही रहे हैं। पहले चौड़ी लगने वाली सड़कें अब गाड़ियों की रेलमपेल में छोटी और संकरी लगने लगी हैं। पर कुछ हैं, जो पुरानी रिवायतों के साथ नएपन को जिंदगी में जगह दे रहे हैं, जिससे शहर में भी नयापन आता जा रहा है। रिवाजों को थोड़ा-थोड़ा बचाते हुए इस शहर को भी बदलना पड़ रहा है लेकिन इसकी चाल बहुत धीमी है। यहां से तरक्की की चाह में गया कोई व्यक्ति वापस आकर इस शहर की तासीर को आसानी से पहचान लेगा, क्योंकि कहीं बगल से आती साहेब सलाम की आवाज उसे आश्वस्त कर देगी कि वह अपने शहर में ही है।
(लेखिका)