नाम में बहुत कुछ है!
बिहार का सहरसा जिला मिथिला का क्षेत्र है। सहरसा नाम के कई सुंदर अर्थ हैं यथा सहर+सा यानी सुबह जैसा, सहर्ष+आ यानि हर्ष सहित आइए, शहर+सा यानी नगर-सा इत्यादि। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सहरसा को गांव बताया था। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपने संस्मरण में सहरसा को कस्बा लिखा है। सहरसा में अब भी दो वार्ड सहरसा बस्ती के नाम से जाने जाते हैं। इतिहासकार डॉ. अमोल झा ने उल्लेख किया है कि बौद्ध काल में सर्वा ढाला के निकट एक सहरबा मठ था, वही अपभ्रंश होकर सहरसा हो गया होगा। सहरसा गांव 1 अप्रैल को भागलपुर से अलग होकर जिला बना और 2 अक्टूबर 1972 को प्रमंडल बना।
शंकराचार्य से शास्त्रार्थ
सहरसा मुख्यालय से पश्चिम में महिषी मां उग्रतारा का प्राचीन मंदिर है। जनश्रुति है महर्षि वशिष्ठ की तपस्या से प्रसन्न होकर मां भगवती ने उन्हें यहीं साक्षात दर्शन दिए थे। भगवती ने प्रत्यक्ष पूजा के लिए कन्या के रूप में इस शर्त पर रहना स्वीकार किया कि कोई उनके बारे में जान न पाए। ऐसा संभव न हो पाया तो वे एक वृक्ष के नीचे शिला रूप में स्थित हो गईं। बौद्धों ने महासंचिका नाम से नौ विद्यालय खोले, जिसमें एक महिषी भी था। राज लाइब्रेरी नेपाल में सुरक्षित चीना तंत्र में भी महिषी का उल्लेख है। सहरसा के कन्दाहा में पूर्वाभिमुख सूर्य मंदिर है। इस प्राचीन मंदिर का निर्माण 1345 से 1556 के मध्य मिथिला के राजा हरि सिंह देव ने कराया था। विराटपुर का चंडिका स्थान, महपुरा का संत कारू बाबा का मंदिर, दिवारी का विषहरा मंदिर, बनगांव में संत लक्ष्मीनाथ गोसांई की कुटी, भी श्रद्धा के केंद्र हैं। महिषी में ही आदि शंकराचार्य ने कर्मकांड के विद्वान मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ किया और मंडन मिश्र की विदुषी पत्नी भारती ने उन्हें पराजित किया था।
माधो सिंह की मजार
माधो सिंह के इस्लाम धर्म कबूल करने पर बंगाल के नवाब ने उन्हें पांच परगना सौंप दिए थे। हिंदू राजाओं को जानकारी मिलने पर लदारी घाट पर युद्ध छिड़ा और माधो सिंह की गर्दन काट दी गई। लेकिन उनका वफादार घोड़ा उसी हालत में उन्हें लेकर नवहट्टा पहुंच गया। मरणासन्न अवस्था में भी मुस्लिम महिला के हाथों से ही उसने पानी पिया। इस स्वामीभक्ति के कारण लोगों ने उसे माधो सिंह की मजार के पास ही दफनाया।
गांधी की विज्ञप्ति
यहां के स्वतंत्रता सेनानियों ने असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। गांधीजी जब 2 अप्रैल 1934 को भूकंप पीडि़तों से मिलने सहरसा आए तो मौन व्रत होने के कारण उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित करने का विचार विज्ञप्ति के रूप में लिखकर साझा किया था। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने वहां उपस्थित कांग्रेस के साथियों को वह विज्ञप्ति पढ़कर सुनाई थी। विज्ञप्ति 7 अप्रैल को पटना से जारी की गई थी जिसका उल्लेख डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी आत्मकथा में किया। उस समय सहरसा में समाचार प्रेषण की सुविधा नहीं थी। अगस्त क्रांति के दौरान सहरसा के धीरो राय, चूल्हाय यादव, हीरा कांत झा, पुलकित कामत, भोला ठाकुर, कालेश्वर मंडल, केदारनाथ तिवारी, बाजा साह ने प्राणों की आहुति दी थी और दर्जनों लोग घायल हुए थे। चांदनी चौक स्थित शहीद स्मारक आज भी इन का पुण्य स्मरण कराता है।
भूदान आंदोलन की भूमि
हिंदी और मैथिली साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर राजकमल का पैतृक गांव सहरसा के महिषी में है। वे अपनी कविताओं में मुक्तिबोध और धूमिल की अनुभूतियों से गुजरते अवश्य हैं परंतु रास्ता अलग अपनाते हैं। मुक्ति प्रसंग, मछली मरी हुई, ताश के पत्तों का शहर, ललका पाग (मैथिली) सहित उनकी 100 से ऊपर कहानियां प्रकाशित हुई हैं। प्रो. मायानंद मिश्र को मंत्रपुत्र उपन्यास के लिए 1988 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। सहरसा की ही शेफालिका वर्मा को भी साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है। सहरसा से साठ के दशक में प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका लाल सितारा में डॉ. बेचन, नागार्जुन, सत्य नारायण पोद्दार आदि प्रमुख साहित्यकारों की रचनाएं छपती थीं। सहरसा के साहित्यिक और सामाजिक महत्व के कारण ही विनोबा भावे ने इस भूमि को भूदान आंदोलन का क्षेत्र बनाया और बरसों अपने सहयोगियों के साथ सहरसा में रहे।
चूड़ा-दही-चीनी और माछ
सहरसा के निवासी अच्छे खानपान के बहुत शौकीन हैं। दाल-भात, सब्जी, बड़ी, सामान्य भोजन है। सकरौड़ी, सिहौल की टिकड़ी, सिमरी बख्तियारपुर के गुलाबजामुन आदि लोगों की खास पसंद हैं। पंडित-पुजारी और पुरोहित चूड़ा दही-चीनी पसंद करते हैं। यह क्षेत्र पान, मच्छी और मखानों के लिए चर्चित है। हवलदार त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक में कोसी नदी में पाई जाने वाली 134 प्रकार की मछलियों का उल्लेख किया है। पिछले दो दशक से कोसी में मछलियों की उपलब्धता में कमी आने से आंध्र प्रदेश से आई मछलियां हाट-बाजार में मिलती हैं। यहां गले में कंठी धारण करने वाले यादव मांसाहारी नहीं होते। धोती-कुर्ता और गमछे का पहनावा पुरुषों की पहली पसंद है। लोक संगीत इस क्षेत्र की महत्वपूर्ण पहचान है और यहां के निवासी सदियों से परिछन, विवाह गीत, सोहर, समदाउन, बटगमनी, झूमर, सामा-चकेवा, कोसी गीत आदि गाकर आनंद लेते रहे हैं।
(लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता)