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शहरनामा/त्रिशूर

जगतगुरु आदि शंकराचार्य की कहानी भी त्रिशूर से शुरू होती है
यादों में शहर

शिव की नगरी

दरअसल त्रिशूर का नाम मूलत: तिरु शिव पेरूर था यानी यह शिव की नगरी है। आध्यात्म, कला, साहित्य, नृत्य और संगीत इसकी गोद में खेलते हैं और इसी कारण से त्रिशूर को केरल की सांस्कृतिक राजधानी होने का श्रेय प्राप्त है। पुराणों के अनुसार धरती को क्षत्रियों से विहीन करने के पश्चात परशुराम ने अपने हाथ की कुल्हाड़ी को समुंदर में फेंक दिया, जिसके प्रभाव से समुंदर का पानी पीछे चला गया। इसी उद्धरित स्थान को केरल कहते हैं। परशुराम ने वहां अपने आराध्य शिव और पार्वती का आह्वान किया। शिव जहां स्वयंभू रूप में प्रकट हुए वह स्थान आज त्रिशूर कहलाता है। और इस शहर का केंद्र बिंदु वडक्कुनाथन शिव मंदिर है। मंदिर कितना पुराना है इसका अनुमान लगाना मुश्किल है पर विशेषज्ञ इसको लगभग 1600 साल पुरातन मंदिर मानते हैं।

शंकराचार्य की भूमि

जगतगुरु आदि शंकराचार्य की कहानी भी त्रिशूर से शुरू होती है। शंकराचार्य के माता-पिता अर्याम्बा और शिवगुरु ने वडक्कुनाथन मंदिर में उपासना के बाद पुत्र-रत्न प्राप्त किया। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार यहीं शंकराचार्य की समाधि है। हालांकि अन्य ग्रंथों के अनुसार उनकी समाधि केदारनाथ में बताई जाती है। शंकराचार्य ने देश के चार भागों में चार मठों की स्थापना तो की ही, त्रिशूर में भी चार मठ स्थापित किए। इनमें तीन मठ आज भी मौजूद हैं। आज भी उन मठों की वेद पाठशालाओं में दिन भर वेद मंत्र गूंजते रहते हैं। मठ से वडक्कुनाथन मंदिर पैदल जाया जा सकता है। शहर के बीचोबीच बसे इस मंदिर के अंदर मानो समय थम सा गया है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे सदियों पहले भी यहां सब कुछ वैसे ही रहा होगा, जैसे आज दिखता है। यकीन नहीं होता कि हजारों साल पुराने इस मंदिर के शांत प्रांगण के बाहर 21वीं सदी का कोलाहल है। गोलाकार में नियोजित शहर के मध्य स्थित यह शिव मंदिर वैसा ही है जैसे शरीर के आंतरिक कोष में आत्मा, जो अनादि है, सनातन है। 

कला का पुनर्जन्म

केरल के सांस्कृतिक कलाओं का पतन 1920 के दशक में शुरू हो गया था। नम्बूतिरी और नायर परिवारों के अपकर्ष के साथ ही कथकली के कद्रदान भी कम हो गए। अंग्रेजी हुकूमत ने मोहिनीअट्टम को अश्लील करार दिया और उन्हें प्रस्तुत करने वाली देवदासियों पर भी शिकंजा कसने लगे। ऐसे में त्रिशूर के उत्तरी छोर में निला नदी के तट पर एक छोटे कस्बे में इन कलाओं को नवजीवन प्राप्त हुआ। 1930 के दशक में महाकवि वल्लत्तोल नारायण मेनोन और मुकुंद राजा ने यहां कलामंडलम की स्थापना की, जहा कथकली, मोहिनीअट्टम और अन्य पारंपरिक कलाओं का पुनरुद्धार हुआ। अगले छह दशकों में यहीं से शिक्षा पाकर उच्च कोटि के कलाकार केरल के बाहर जाकर इन कलाओं का प्रचार करने लगे और धीरे-धीरे विदेशों में भी कथकली और मोहिनीअट्टम के कलाकार पाए जाने लगे। अब कलामंडलम का पहले जैसा रुतबा तो नहीं रहा पर आज भी त्रिशूर की सांस्कृतिक राजधानी कहलाने में कलामंडलम का बड़ा योगदान है।

नाच्यो बहुत गोपाल

कथकली को विश्व ख्याति प्राप्त हुई लेकिन इससे मिलती-जुलती एक नृत्य शैली के बारें में लोग कम ही जानते हैं। त्रिशूर में स्थित गुरुवायुर कृष्ण मंदिर लोक प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि जब यादवों का नाश हुआ और द्वारका नगरी जल में समा गई, तब यहां स्थित विष्णु की मूर्ति को प्रलय जल से उठाकर देव गुरु बृहस्पति और वायु देव त्रिशूर के इस पुण्य स्थान में ले आए थे। गुरु और वायु से इस स्थान को गुरुवयूर नाम मिला। 17 वीं सदी में इसी मंदिर के प्रांगण में कृष्णनाट्टम नामक नृत्य शैली का जन्म हुआ। श्री कृष्ण के जन्म से लेकर स्वर्गारोहण तक पूरी भागवत कथा को नृत्य नाटिका के रूप में पेश किया जाता है। रात को जैसे ही गर्भगृह बंद होता है, मंदिर में कृष्णनाट्टम का मंचन शुरू होता है, जो रात 1 बजे तक चलता रहता है। मंचन के बाद कृष्ण, रुक्मिणी और बलराम का वेश धारण करने वाले नर्तकों के चरण छूकर लोग आशीर्वाद भी लेते हैं।

कहानी घर-घर की

शहर का इंडिया कॉफी हाउस काफी लोकप्रिय था। बचपन में शाम को बहुत बार हमने यहां नाश्ता किया है, कॉफी पी है। दीवारों पर वामपंथी नेताओं की वही पुरानी तस्वीरें लटकी हैं, लेकिन अब यहां की न कॉफी में वह बात है, न कटलेट में। हर छोटे शहर की तरह त्रिशूर भी काफी बदल गया है। 1980 और 1990 के दशक में खाड़ी देशों से आए पैसों ने नए आर्थिक वर्ग को जन्म दिया। सऊदी अरब, दुबई और मस्कट में रहने वालों ने यहां अपने पुरखों की जमीन पर नए घर बनाना शुरू किए हैं। इसके बाद यहां के रियल एस्टेट बाजार ने तेजी पकड़ ली है। शहर में पुराने सुंदर बंगलों की जगह अट्टालिकाओं ने ले ली है। बड़े घर तो बन गए पर अधिकतर घरों में वृद्धों की संख्या बढ़ती जा रही है और उनके बच्चे नौकरी की तलाश में चेन्नै, बेंगलूरू और दुबई चले जाते हैं। अकेलेपन का साया संपन्नता की दोपहरी में भी छा रहा है। केरल में खाड़ी देशों के पैसे ने विलासिता को भी जरूरत बना दिया है। सरकार भले ही मार्क्सवादियों की हो पर बाजार मैकडोनाल्ड के हाथ में ही है।

अर्जुन नारायणन

(लेखक, फिल्म शोधकर्ता)

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