अरे, ना हम अमिताभ, ना दिलीप कुमार, ना किसी हीरो के बच्चे, हम हैं सीधे-सादे अक्षय... बैंकॉक में शेफ का काम छोड़कर मुंबई में हीरो बने अक्षय कुमार के लिए छब्बीस बरस पहले यह दावा मुमकिन था, लेकिन 2023 के बॉलीवुड में सितारों के बच्चों की नई पौध देखकर लगता नहीं कि किसी और के लिए यह दावा फिलहाल मुमकिन होगा। नया साल नए चेहरों की बाढ़ लेकर आने वाला है यानी बॉलीवुड में नई पीढ़ी के आगाज की आहट है, लेकिन हर चेहरा जिसकी चर्चा है वह किसी सितारे का बच्चा है या फिर सगा-संबंधी। फिल्म डेब्यू करने वालों की फेहरिस्त में अमिताभ बच्चन के नवासे अगस्त्य नंदा, शाहरुख खान की बेटी सुहाना खान, आमिर खान के बेटे जुनैद खान, श्रीदेवी और बोनी कपूर की बेटी खुशी कपूर, संजय कपूर की बेटी शनाया कपूर, सनी देओल के बेटे राजवीर, सैफ अली खान के बेटे इब्राहिम अली खान, पूनम ढिल्लों के बेटी पलोमा, सलमान खान की भतीजी अलीजे अग्निहोत्री के नाम फिल्मी रिपोर्टों में छाए हैं। ढूंढने से भी एक नाम नहीं दिखेगा जिसके मुंबई फिल्म उद्योग में पहले से ही तार न जुड़े हों। फिल्मी परिवारों से निकले इन नवांकुरों के प्रति अब माहौल में जिज्ञासा कम और झल्लाहट ज्यादा नजर आ रही है। नेपोटिज्म यानी भाई-भतीजावाद पर बहस के दौर में अभिनय में करियर शुरू करने वाले इन नए चेहरों ने अपनी किस्मत आजमाने का इरादा किया है तो यह देखना दिलचस्प होगा कि वे बायकॉट बॉलीवुड के जमाने की तल्खी का सामना किस तरह से कर पाते हैं। जाहिर है कि फिल्मी परिवारों से ताल्लुक रखने वाले इतने युवाओं का एक साथ मैदान में उतरना कई सवाल पैदा करता है। मसलन, क्या ‘पैदाइशी सितारा’ वाले अधिकारों से लैस बॉलीवुड की नई पीढ़ी लोकतांत्रिक समझे जाने वाले डिजिटल मीडिया और चुनौती का सामना कर रहे हिंदी सिनेमा के दौर में जगह बना पाएगी? ऐसा क्यों है कि स्टार-किड कहलाने वाले 21 से 24 बरस की उम्र के इन सभी युवाओं के बीच एक भी ऐसा नाम नहीं उभरा जिसका फिल्मी दुनिया में पहले से कोई न हो? निर्माता-निर्देशक विविध पृष्ठभूमि से प्रतिभाएं तलाशने की जगह अपनी पहचान के दायरे के भीतर ही फिल्म उद्योग को समेटकर कैसी फिल्में बना रहे हैं और किसके लिए?
खुशी कपूर
अंग्रेजी भाषा के एक प्रमुख बिजनेस अखबार ने 2017 में नेपोटिज्म इंडेक्स प्रकाशित किया था। उसमें बताया गया था कि रिश्तेदारियों और संबंधों के आधार पर फिल्मों में लीड रोल देने वाली दस बड़ी फिल्म निर्माण कंपनियों में साजिद नाडियाडवाला ऐंड ग्रैंडसन, अजय देवगन फिल्म्स और शाहरुख खान की रेड चिली एंटरटेनमेंट पहले तीन स्थान पर रहीं। बड़ा बैनर और बड़े बजट वाली फिल्मों में फिल्मी परिवारों के बच्चों पर ही दांव लगाने की प्रवृत्ति दिखाई दी। यानी वित्तीय जोखिम को कम करने के लिए किसी जाने-पहचाने नाम की बैसाखी को जरूरी उपाय के तौर पर देखा जाता है।
शनाया कपूर
ऐसा नहीं है कि सितारों की छांव में पले-बढ़े बच्चे अपनी जुबान तलाशने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। यह सिलसिला पहले से ही चल रहा है। आलिया भट्ट, सुहाना खान से लेकर हाल ही में फिल्मी पारी की शुरुआत करने वाले बबिल खान ने लगातार सोशल मीडिया पर परिवार, पहुंच, त्वचा के रंग समेत तमाम मुद्दों पर झेली आलोचनाओं का जवाब देकर नए जमाने के नए सितारे जैसी छवि गढ़ने की कोशिश की है मगर अंदरूनी पहुंच और पहचान के फायदों का असर इतना गहरा है कि दूसरे सामाजिक मसलों की परत लपेटकर उन्हें धुंधला नहीं किया जा सकता।
इब्राहिम अली खान
बॉलीवुड की सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था और ‘स्टार-किड’
सिनेमा में ‘स्टार-किड’ यानी सितारों के बच्चों की मौजूदगी परंपरागत रूप से रही है, लेकिन इसका इतना व्यापक और विराट रूप पिछले कुछ दशकों में उभरा है। यूं तो पिता के नाम का सहारा राज कपूर ने भी लिया था जब वे करियर के शुरुआती दिनों में देविका रानी की अगुआई वाले बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो में नौकरी की तलाश में गए थे। इसका जिक्र उनकी बेटी ऋतु नंदा की किताब में मिलता है, लेकिन पंहुच और पहचान के इन समीकरणों को खुले तौर पर नेपोटिज्म कहने का साहस पहली बार कंगना रनौत ने किया। 2017 में रनौत ने करण जौहर के शो ‘कॉफी विद करण’ में जाकर उन्हीं पर उंगली उठाते हुए उन्हें नेपोटिज्म का संरक्षक बताया। एक तल्ख टिप्पणी से शुरू हुआ यह सिलसिला सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद सोशल मीडिया मुहिम के जरिये कथित राष्ट्रवादी सुर में डूब गया, हालांकि वह यहां चर्चा का मुद्दा नहीं है। कंगना ने जिस रूप में नेपोटिज्म की चर्चा छेड़ी थी, वह फिल्म उद्योग और पहचान के तारों पर टिकी व्यवस्था पर चोट थी जिसमें स्टार-किड एक अहम पहलू होते हैं। नेपोटिज्म शब्द के मूल में ही लैटिन भाषा का शब्द नेपोस है, जिसका अर्थ है भतीजा।
पलोमी ढिल्लो
यहां यह समझना जरूरी है कि ‘स्टार-किड’ का जिस रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है उसका मतलब सिर्फ फिल्मी सितारों के बच्चों तक सीमित नहीं है। इसकी परिभाषा के दायरे में अंदरूनी पहुंच रखने वाले निर्माता-निर्देशकों और हर उस परिवार से ताल्लुक रखने वाले भी आते हैं जिन्हें पहचान के दायरे के भीतर फिल्मों में बिना किसी संघर्ष के काम मिल गया। मसलन, अगस्त्य नंदा सीधे तौर पर किसी फिल्मी सितारे की संतान नहीं हैं लेकिन अमिताभ बच्चन का नवासा होना ही पहली फिल्म पाने के लिए काफी है। स्टार-किड की फिल्म और किरदार के इर्द-गिर्द कौतूहल का ऐसा माहौल खड़ा किया जाता है जिसे आधिकारिक ‘लॉन्च’ यानी आगमन की संज्ञा दी जाती है। याद करिए 2000 में ह्रिितक रोशन की पहली फिल्म कहो ना प्यार है की रिलीज के पहले का माहौल। उनके पिता और निर्माता-निर्देशक राकेश रोशन ने ह्रिितक को सदी का सितारा बनाकर पेश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इसी तरह का लॉन्च आलिया भट्ट और डेविड धवन के बेटे वरुण धवन को करन जौहर के धर्मा प्रोडक्शंस ने दिया। लॉन्च एक तरह से स्टार-किड का करियर शुरू करने का हथियार बन चुका है जो हर आम डेब्यू करने वाले को नसीब नहीं होता। फिल्म इतिहास में झांकें तो इसका असर समझा जा सकता है।
अगस्त्य नंदा
ज्यादा पीछे न जाते हुए, 1981 से 1983 को देखें तो तीन सबसे चर्चित नाम औपचारिक तौर पर लॉन्च हुए। 1981 में रॉकी से संजय दत्त और लव-स्टोरी से कुमार गौरव जबकि 1983 में सनी देओल ने सुपरहिट फिल्म बेताब से शुरुआत की। इन कलाकारों का बाद में क्या हुआ वह मसला नहीं है, लेकिन उनका आना उस वक्त एक हलचल जैसा था जबकि 1981 में ही सई परांजपे की फिल्म चश्मे बद्दूर से रवि वासवानी और 1983 में अर्ध-सत्य से सदाशिव अमरापुरकर ने भी हिंदी फिल्म उद्योग में कदम रखा, लेकिन इन कलाकारों का आना उन फिल्मी सितारों के बच्चों के कहीं आसपास भी नहीं ठहरता। लॉन्च का इस्तेमाल पहले नए कलाकारों को दर्शकों तक लाने में होता रहा था। इधर कुछ दशकों से यह एक विशेषाधिकार के तौर पर इस्तेमाल हो रहा है जो फिल्म उद्योग में ‘अंदरूनी’ और ‘बाहरी’ के अंतर को बरकरार रखने का काम करता है। इस पहलू से देखा जाए तो स्टार-किड कुछ चेहरों, स्टाइल और फैशन की चमक में लिपटे नाम नहीं, बल्कि बॉलीवुड की वर्तमान ‘सितारा अर्थव्यवस्था’ की ढांचागत असमानता का प्रतीक है।
टैलेंट बनाम पारिवारिक पहुंच
फिल्म उद्योग से जुड़े परिवारों के बच्चों और रिश्तेदारों को आसानी से काम मिलने की परंपरा सिर्फ हिंदी फिल्मों तक सीमित नहीं है। हॉलीवुड हो या दक्षिण भारतीय सिनेमा, माता-पिता, सगे-संबंधियों की पहुंच का फायदा फिल्में हासिल करने में काम आता रहा है। इस बहस में एक अहम बिंदु अक्सर उभरता है कि क्या फिल्मी परिवार से आने वाले प्रतिभावान नहीं हो सकते। फिर उन्हें फिल्म मिलने पर इतनी हाय-तौबा क्यों? दरअसल यह सवाल प्रतिभा शब्द का मनमाना इस्तेमाल कर भाई-भतीजावाद से जुड़ी बहस को गलत दिशा में मोड़ता है। यहां मसला प्रतिभा ढूंढने से ज्यादा दबाने का है। अगर सवाल प्रतिभा से फिल्म मिलने का ही है तो सिर्फ रसूख और पहुंच रखने वाले परिवारों से ही इतनी प्रतिभाएं कैसे और क्यों आ रही हैं? इस चलन के केंद्र में है प्रतिभा के नाम पर असमानता को कायम रखने की परिपाटी। फिल्मी परिवारों से बाहर किसी नए चेहरे को तलाशने के कारगर तरीके इस्तेमाल किए बिना ही रोल रेवड़ियों की तरह ‘अपनों’ में बांटे जा रहे हों, तो यह कहने के लिए ज्यादा शोध करना नहीं पड़ेगा कि पहचान ही योग्यता का काम करती है। निर्माता-निर्देशक और फिल्मी सितारों का नाम इस औद्योगिक ढांचे में सीढ़ियां चढ़कर ऊपर जाने की मेहनत को कम करते हुए लिफ्ट का काम करता है।
एक बात यह भी उठती है कि एक फिल्म मिल जाने से क्या हासिल, गाड़ी तो आगे तभी बढ़ेगी जब काम दिखाई देगा। यह कुछ हद तक सही भी है क्योंकि ट्विंकल खन्ना, उदय चोपड़ा, हैरी बवेजा और तुषार कपूर जैसे उदाहरण भी सामने हैं। फिलहाल जो युवा चेहरे फिल्मी परिवारों से निकलकर आ रहे हैं उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती अपना दर्शक वर्ग तैयार करने की होगी। सिनेमाई दर्शक इस कदर बंट चुका है कि अब करियर शुरू करने वाले हर अभिनेता/अभिनेत्री को पर्दे के साइज और उस पर पहले से मौजूद सितारों का मुकाबला करना होगा। कुछ खास तरह के किरदारों पर माध्यम और कलाकारों की छाप पहले से ही मौजूद है। सिनेमा में एक तरफ दक्षिण भारतीय फिल्मों की धमक, फैंटेसी और गरीब लेकिन जांबाज हीरो छाया है तो दूसरी ओर छोटे शहर की हिंदी कहानियों में आयुष्मान खुराना, राजकुमार राव, पंकज त्रिपाठी, सान्या मल्होत्रा, रसिका दुग्गल, विक्रांत मैसी जैसे चेहरों ने ओटीटी पर अपनी धाक जमाई है। वहीं अपने दम पर अपनी पहचान बनाने वाले युवा चेहरों में कार्तिक आर्यन की जबरदस्त लोकप्रियता भी यह जताती है कि दर्शक सिनेमा स्क्रीन पर ‘आम’ से लगने वाले चेहरे देखना चाहते हैं। मध्य प्रदेश के रहने वाले कार्तिक आर्यन की सफलता धीमी लेकिन सतत सिनेमाई यात्रा की मिसाल है जिसमें सपनों के सच होने वाली उम्मीद जिंदा है। 2022 में रिलीज हुई भूल भलैया 2 की जबरदस्त सफलता के रथ पर सवार कार्तिक आर्यन की चुनौती नए चेहरों के लिए कायम है जिनकी दो फिल्में- शहजादा और सत्यप्रेम की कथा 2023 में रिलीज होंगी। कार्तिक के पास ‘पड़ोस के लड़के’ वाला जाना-पहचाना आकर्षण भी है और दर्शकों का चहेता सितारा होने का भरोसा भी, जो इस वक्त हिंदी सिनेमा में किसी और के पास नहीं दिखता।
राजवीर देओल
फिलहाल ओटीटी खासा दिलचस्प माध्यम है और जोया अख्तर ने नेटफ्लिक्स पर ‘द आर्चीज’ के जरिये सुहाना खान समेत कई चेहरों को लॉन्च करने का जो जिम्मा उठाया है, यह रणनीति थियेटर का जोखिम उठाने से बचने की हो सकती है लेकिन इसकी जड़ में ‘मास’ से हटकर ‘क्लास’ में अपना दर्शक खोजने का इरादा भी है- वह वर्ग जिसका ‘इंडिया’ से संबंध तो है पर ‘भारत’ से वास्ता नहीं। लेकिन जो नए नाम थियेटर में फिल्में रिलीज करने की तैयारी कर रहे हैं उनके सामने यह सच भी मौजूद है कि आमिर खान भी अब दर्शकों को सिनेमाघर तक खींच पाने के गारंटी नहीं दे सकते। वैसे भी 2023 शाहरुख खान की पुरजोर वापसी का साल लगता है, ऐसे में नए चेहरों के लिए मुकाबला चौतरफा है जहां प्रतियोगिता माध्यम की भी है और उन पर पहले से मौजूद सितारों से भी।
विशेषाधिकार या मिथक
इंडस्ट्री के अंदर का शख्स होने का फायदा कितना है, इस पर कलाकारों के बयान लगातार आते रहते हैं। जहां आलिया भट्ट समेत फिल्मी परिवारों से आने वालों की आम राय है कि स्टार-किड होने का अलग दबाव और संघर्ष होता है, वहीं अपनी खास शैली के लिए पहचाने जाने वाले अभिनेता राजकुमार राव ने कुछ महीने पहले एक बातचीत में कहा कि भाई-भतीजावाद तो रहेगा लेकिन अब इंडस्ट्री में मौके सभी के लिए मौजूद हैं। गु़़ड़गांव से मायानगरी का सफर तय करने वाले राव अपने करियर में अब उस मुकाम पर हैं जहां से स्थिति का ऐसा आकलन करना मुमकिन है, लेकिन इसमें सबकी आवाज शामिल नहीं है। निर्माता-निर्देशक अनुराग कश्यप के भाई अभिनव कश्यप ने 2020 में सलमान खान और उनके परिवार पर आरोप लगाया कि बॉलीवुड में ‘बांद्रा-कार्टल’ काम करता है जो उनकी तरह इंडस्ट्री से बाहर से आने वालों के करियर तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ता, हालांकि अभिनव खुद अनुराग कश्यप के भाई हैं लेकिन उनका दावा रहा है कि उन्हें भी एक बाहर वाले की तरह ही देखा जाता है।
जुनैद खान
भाई-भतीजावाद का नकारात्मक असर झेलने की बात स्वीकार करते हुए अभिनेत्री कृति सैनन कह चुकी हैं कि यह सहूलियत सिर्फ फिल्मी परिवारों से आने वालों को होती है कि पहली फिल्म रिलीज होने से पहले ही दूसरी फिल्म का ऑफर आ जाए या किसी नामी-गिरामी मैगजीन के कवर पर आपकी तस्वीर छप जाए। संबंधों और संपर्कों के तार, काम मिलने के एक समान मौकों को शून्य बनाते हुए एक ऐसा माहौल पैदा करते हैं जिसमें किसी बाहरी कलाकार के लिए एक ऑडिशन हासिल करना भी संघर्ष बन जाए। यूं तो फिल्म उद्योग में संघर्ष की कहानियों की अपनी रूमानियत है लेकिन उस संघर्ष की शर्तें तय करने वाली व्यवस्था चंद हाथों में सिमटी है। जोखिम न उठाने का इरादा, नए कलाकारों के साथ प्रयोग से परहेज और एक-दूसरे की पीठ खुजलाते रहने की परिपाटी का ही नतीजा है कि बॉलीवुड चंद नामों की स्टारडम का मोहताज उद्योग बन कर रह गया। कुछ हाथों में सिमटी सत्ता से लोकतांत्रिक व्यवस्था की उम्मीद नहीं की जा सकती। हर नया चेहरा जो किसी ‘अंदरूनी परिवार’ से निकल कर आसानी से पहली फिल्म हथिया लेता है, वह फिल्मी अर्थव्यवस्था में ताकत के इसी असंतुलन को आगे बढ़ाता है। देखने वाली बात है कि क्या दर्शक इस असंतुलित व्यवस्था को नकारेंगे या नए साल में ‘स्टार-किड’ वाकई में चमक बिखेर पाएंगे।
(स्वाति बक्शी वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय, लंदन में हिंदी सिनेमा पर शोध कर रही हैं और सम-सामयिक मुद्दों पर लिखती हैं।)
2023 की नई स्टार पौध
1. खुशी कपूर
मां: श्रीदेवी
2. सुहाना खान
पिताः शाहरुख खान
3. शनाया कपूर
पिताः संजय कपूर
4. पलोमा ढिल्लों
मां: पूनम ढिल्लों
5. अगस्त्य नंदा
नानाः अमिताभ बच्चन
6. राजवीर देओल
पिताः सनी देओल
7. जुनैद खान
पिताः आमिर खान
8. इब्राहिम अली खान
पिताः सैफ अली खान
9. पश्मीना रोशन
पिताः राजेश रोशन
10. अलिजेह अग्निहोत्री
मामाः सलमान खान