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इस्लामिक नकाब के पीछे

इस्लामिक स्टेट की युवाओं को अपनी हिंसक विचारधारा से प्रभावित करने की क्षमता बन रही चिंता का सबब
आतंकी हमलाः श्रीलंका में बम धमाकों को अंजाम देने वाले आत्मघाती हमलवारों में से एक सीसीटीवी कैमरे में कैद

एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में पिछले सात दशक तक हिंसा के लंबे दौर से गुजरने के बावजूद श्रीलंका ने इस्लामिक आतंकवाद से निपटने के लिए कभी भी खुद को तैयार नहीं किया। देश के सुरक्षा तंत्र का ध्यान ज्यादातर इस बात पर रहा कि कहीं तमिल टाइगर्स फिर से सिर न उठाने लगे। समय-समय पर ऐसी खबरें आईं कि विदेशों में स्थित लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) के बाकी बचे लोग फिर से एकजुट होने और श्रीलंका पर हमले की योजना बनाने की कोशिश कर रहे। इसलिए श्रीलंकाई खुफिया एजेंसियों का ध्यान मोटे तौर पर एलटीटीई और उसके फिर से संगठित होने के प्रयासों की प्रगति पर ही लगा रहा। हालांकि, हाल के वर्षों में बौद्ध उग्रवादी समूहों और मुस्लिम कट्टरपंथियों के बीच बढ़ते तनाव की कई घटनाएं हुईं, लेकिन इस खतरे से आसानी से निबट लेने वाला ही माना गया।

श्रीलंका की कुल 2.2 करोड़ की आबादी में मुसलमानों की संख्या मात्र 10 फीसदी है और कुल मिलाकर श्रीलंकाई समाज में यह समुदाय शांतिप्रिय और एक-दूसरे से जुड़ा रहा है। ईस्टर संडे के सीरियल बम धमाकों में 250 से अधिक लोग मारे गए और 500 अन्य घायल हो गए थे। इस तरह की घटना के लिए श्रीलंका शायद ही तैयार था। दिलचस्प बात यह है कि कुछ मुस्लिम युवाओं के सीरिया और इराक की यात्रा से वापस देश लौटने की खबरें थीं। लेकिन किसी को भी यकीन नहीं था कि उनमें देश के भीतर किसी भी तरह के आतंकी हमलों की योजना बनाने और अंजाम देने की क्षमता है। लेकिन 21 अप्रैल के हमलों के बाद से श्रीलंका में तेजी से घट रही घटनाओं से अब एक अलग कहानी सामने आती है।

प्रधानमंत्री रणिल विक्रमसिंघे ने कोलंबो में बताया, “लगता है कि विदेशियों की मिलीभगत है।” उनके मुताबिक जांचकर्ताओं का मानना है कि कुछ हमलावर विदेश गए थे और फिर घर लौट आए। उन्होंने कहा कि शुरू से ही संदेह था कि आइएसआइएस से इनके संबंध हैं और अब “कुछ सबूत इस ओर इशारा कर रहे हैं।”

अब नजर एक स्थानीय इस्लामी गुट नेशनल तौहीद जमात (एनजेटी) पर है, जिसे अक्सर सभी नास्तिकों के खिलाफ कठोर भाषणों के लिए जाना जाता है। लेकिन ऐसे संकेत हैं कि श्रीलंकाई खुफिया एजेंसियों को उनकी गतिविधियों के बारे में पता था। फिर भी इस बात पर गंभीर संदेह बना हुआ था कि क्या उनके पास आर्थिक संसाधन, क्षमता और जैसा कि इस्लामिक स्टेट का दावा है, उस तरह का प्रशिक्षण भी था! राष्ट्रपति सिरिसेना के अनुसार, 2017 से ही एनजेटी पर नजर रखी जा रही थी। लेकिन उन्होंने संदेह जाहिर किया कि क्या इस गुट में रविवार ईस्टर बम धामकों जैसा कुछ करने की क्षमता थी। सिरिसेना ने कहा, “इस बात के बहुत कम संकेत थे कि यह गुट इतने बड़े पैमाने पर और सुनियोजित हमलों को अंजाम देने की क्षमता हासिल करेगा, जो हमारे समाज और हर वर्ग को प्रभावित कर सके।” उन्होंने आगे कहा, “इस गुट ने बेहद अप्रत्याशित तरीके से इन क्षमताओं को हासिल किया।”

हालांकि, श्रीलंका में हिंसा का लंबा इतिहास रहा है। 1970 और 80 के दशक में वामपंथी समूह जनता विमुक्ति पेरामुना विद्रोह की वजह से हिंसा फैली थी। इसके बाद, अगले 26 वर्षों तक स्वतंत्र तमिल राज्य के लिए एलटीटीई के खूनी अभियान से लंबे अरसे तक हिंसा और अस्थिरता का दौर चलता रहा। श्रीलंकाई इतिहास में यह हिंसक अध्याय 2009 में उस वक्त समाप्ति के करीब पहुंच गया, जब श्रीलंकाई सेना एलटीटीई के प्रमुख वेलुपिल्लई प्रभाकरन सहित उसके अधिकांश लड़ाकों को खत्म करने में सफल रही। 21 अप्रैल को हुए सिलसिलेवार बम धमाकों से राजधानी कोलंबो और अन्य हिस्सों में चर्चों और ऊंची इमारतों वाले होटलों की हालत जर्जर हो गई। इसलिए यह श्रीलंका और द्वीप के बाहर रहने वाले लोगों के लिए एक बड़ा झटका और खौफ बनकर आया। इन धमाकों को विस्फोटक से लैस आत्मघाती हमलावरों ने उस वक्त अंजाम दिया, जब लोग ईसाई कैलेंडर के सबसे शुभ त्योहारों में एक ईस्टर संडे का जश्न मना रहे थे।

सवाल यह है कि इन जगहों पर पहले से मौजूद ईसाई भीड़ पर हमला क्यों किया गया? पिछले कुछ समय से उग्रवादी बौद्ध समूहों और मुस्लिम समुदाय के बीच तनाव बढ़ रहा है। लगभग सात प्रतिशत आबादी वाले ईसाई श्रीलंका में काफी हद तक हिंसक गतिविधियों से दूर रहे हैं, जबकि अन्य समुदायों- बहुसंख्यक बौद्धों के साथ अल्पसंख्यक हिंदुओं और मुसलमानों को निशाना बनाया जाता रहा है- लेकिन ईसाइयों को कभी निशाना नहीं बनाया गया। अब उन पर हमले क्यों हो रहे हैं? इस्लामिक स्टेट (आइएस) की समाचार एजेंसी अमाक की ओर से जारी बुलेटिन में दावा किया गया कि इस हमले को “इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों” ने अंजाम दिया। इसमें कहा गया कि बम धमाके ईसाई और उन सभी देशों के खिलाफ थे, जो आइएसआइएस से लड़ने वाले गठबंधन का हिस्सा थे। इसके बाद, इसने धमाका करने वाले सात लोगों की पहचान की और साथ ही यह कि कौन से हमलावर ने किस लक्ष्य को अंजाम दिया। बाद में, इसने एक वीडियो भी जारी किया, जिसमें आठ लोगों को आइएस सरगना अबू बकर अल-बगदादी के प्रति निष्ठा दिखाते हुए देखा गया।

सवाल यह भी है कि भारत और पश्चिम के स्रोतों से हमलों के बारे में मिली खुफिया सूचना के बावजूद श्रीलंकाई अधिकारियों ने कार्रवाई के प्रति अनिच्छा क्यों दिखाई

हालांकि, तथाकथित आइएस लड़ाकों में से अधिकांश मारे गए, क्योंकि उन्होंने आत्मघाती मिशन को अंजाम दिया था। बाद में, देशव्यापी छापों में कई लोगों को गिरफ्तार किया गया। आतंकवादियों द्वारा इस्तेमाल किए गए सुरक्षित घरों की पहचान की गई और भारी मात्रा में हथियारों और विस्फोटक बरामद किए गए। हालांकि, इस त्रासदी का सबसे पेचीदा हिस्सा यह है कि भारत और पश्चिमी देशों के अन्य स्रोतों से हमलों के बारे में मिली खुफिया चेतावनी के बावजूद श्रीलंकाई अधिकारियों ने कार्रवाई के प्रति अनिच्छा क्यों दिखाई। इसका एक कारण देश के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना और उनके प्रधानमंत्री रणिल विक्रमसिंघे के बीच चल रही लड़ाई को माना जा सकता है। दोनों पिछले साल तब से गुत्थमगुत्थी कर रहे हैं, जब सिरिसेना ने विक्रमसिंघे को सत्ता से बेदखल करने और महिंदा राजपक्षे को उनकी जगह लाने का प्रयास किया था।  प्रधानमंत्री ने दावा किया है कि तब से उन्हें राष्ट्रपति द्वारा सुरक्षा और खुफिया ब्रीफिंग के दायरे से बाहर रखा गया है। वह ही इनके प्रभारी हैं। हालांकि, सिरिसेना ने एजेंसियों और रक्षा मंत्रालय की गंभीर खामियों को स्वीकार करते हुए देश की सुरक्षा में भरोसा जताया। उन्होंने यह भी कहा कि भारत और अन्य विदेशी स्रोतों से आए कार्रवाई योग्य सबूत उनके साथ कभी साझा नहीं किए गए।

देश की सुरक्षा और खुफिया तंत्र में उलटफेर किया गया है और कई वरिष्ठ अधिकारियों को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया। श्रीलंका में घटनाक्रम अभी और मोड़ ले रहे हैं, लेकिन इस्लामिक स्टेट की मौजूदगी और युवाओं के बड़े हिस्से को अपनी हिंसक विचारधारा से प्रभावित करने की क्षमता ने सरकारों के साथ-साथ दक्षिण एशिया के लोगों को भी गंभीर रूप से चिंतित किया है। आइएस को लेकर इस क्षेत्र में कई देशों के युवा पुरुषों और महिलाओं तथा इसके बड़े पैमाने पर मुस्लिम आबादी के बीच आकर्षण होने की खबरों के बाद से अब खतरा बड़ा लग रहा है। श्रीलंकाई हमलों की एक और विचलित करने वाली बात यह है कि आत्मघाती हमलावरों और इस्लामिक स्टेट के कट्टर समर्थकों में से कई समाज के कुलीन वर्ग के युवक और युवतियां थीं। इससे पहले, अधिकांश विशेषज्ञों का मानना था कि इस तरह की विचारधारा के प्रति आकर्षण वंचित युवाओं, गरीबों और अशिक्षित वर्गों में अधिक थी। लेकिन अब यह साफ तौर पर जाहिर हो रहा है कि समाज के किसी भी वर्ग को ऐसी खतरनाक विचारधारा के प्रति आकर्षित किया जा सकता है। इनमें से अधिकांश को सोशल मीडिया के जरिए नियमित रूप से प्रचारित किया जा रहा है।

बड़ी संख्या में विदेशियों को निशाना बनाकर किए गए हमले 10 साल पहले मुंबई के 26/11 के हमलों की पुनरावृत्ति की तरह लग सकते हैं। तब भारत की अर्थव्यवस्था को पटरी से उतारने के लिए उसकी व्यावसायिक राजधानी को निशाना बनाया गया था। 86 अरब डॉलर वाली श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था में पर्यटन का हिस्सा पांच फीसदी है और 21 अप्रैल के हमलों ने पर्यटन व्यापार को प्रभावित किया और आगे भी प्रभावित करेगा।

लेकिन चिंता की सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने कैसे श्रीलंकाई समाज पर एक गहरा दाग छोड़ दिया और देश को धार्मिक आधार पर विभाजित करने का प्रयास किया। इस साल के अंत में श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनाव होने हैं। सिरिसेना, विक्रमसिंघे और राजपक्षे इस प्रतिष्ठित पद के संभावित दावेदार हैं। उनकी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता क्या आकार लेती है और जांच को कैसे प्रभावित करती है, इस पर श्रीलंका और दूसरे देशों की पैनी नजर बनी हुई है।

लेकिन, श्रीलंका एक सामंजस्यपूर्ण, सौहार्द्र और खुला समाज बना रहे, यह सुनिश्चित करना कोलंबो में लीडरशिप के लिए एक बड़ी चुनौती होगी।

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