दिल्ली की जनता ने खारिज कर दिया, तो भाजपा संसद में विधेयक लाकर चुनी हुई सरकार की शक्तियां कम करना चाह रही है और एलजी को ही “सरकार” बता रही है।
अरविंद केजरीवाल, मुख्यमंत्री, दिल्ली
डिप्लोमेसी नहीं मैत्री
कोविड-19 का टीका दुनिया के 70 देशों में मुहैया कराके मोदी सरकार अपनी पीठ ठोक रही है। मगर विपक्ष का कहना है कि सरकार भारतीय नागरिकों की अनदेखी कर डिप्लोमेसी के नाम पर दिखावा कर रही है। ऐसी ही एक चर्चा सत्ताधारी पार्टी के नेताओं के बीच चल रही थी, जिसमें भारत की वैक्सीन डिप्लोमेसी की चर्चा हो रही थी। लेकिन इस बीच एक वरिष्ठ नेता ने टोकते हुए कहा भाई, यह डिप्लोमेसी नहीं मैत्री है। क्योंकि डिप्लोमेसी में तो दोनों का फायदा होता है। यहां तो ऐसा कुछ नहीं है। खैर यह तो वक्त बताएगा कि इस मैत्री से क्या हासिल हुआ।
प्राइवेसी का सवाल
झारखंड के रांची शहर के प्राइम इलाके में बिल्डर ने जमीन का इंतजाम किया। तमाम औपचारिकताओं के बाद बिल्डिंग बनानी शुरू की। कहीं किसी कमी की गुंजाइश नहीं छोड़ी। काम चालू हो गया। अचानक एकदिन इंजीनियर साहब का फोन आ गया। आपका प्रोजेक्ट ठीक नहीं है। यह आगे नहीं बन सकता। बिल्डर परेशान। बाद में पता चला कि बगल में नेताजी का आवास है। नेताजी पद में बहुत बड़े कद काठी के हैं। इंजीनियर साहब का संदेश था कि आपकी बिल्डिंग काफी ऊंची होगी। ऐसे में साहब के आवास की गोपनीयता भंग होगी। अब बिल्डर को समझ में नहीं आ रहा कि करे तो क्या करे। परेशान बिल्डर महाशय अब पता लगाने में जुटे हैं कि वास्तव में नेताजी को आपत्ति थी या इंजीनियर साहब को। खैर यह उन्हें कब पता चलेगा, यह किसी को नहीं पता लेकिन इस चक्कर में उनका प्रोजेक्ट तो रुक ही गया।
खेल हो गया
फूड पार्क झारखंड के लिए महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट था। जल्द उपलब्धि दिखाने के लिए काम पूरा होने के पहले ही इसका मुख्यमंत्री महोदय ने उद्घाटन भी कर दिया। लेकिन न कोई फैक्ट्री लगी और न ही उत्पादन शुरू हुआ। अफसरशाही और चंद तकनीकी कारणों से फूड पार्क खुलने के पहले ही बंद हो गया। करीब 125 करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट की आधी रकम भी खर्च हो गई मगर कभी बाबा टाइप लोगों ने इसे चालू करने का सपना दिखाया तो कभी किसी और ने। अब नीलामी की बारी आ गई है। उसमें भी खेल चल रहा है। एक साल पहले जिस पार्क का मूल्यांकन पचास करोड़ रुपये किया गया था, एक साल में ही घटाकर करीब 19 करोड़ कर दिया गया। इसे समझने वाले अब परेशान हैं कि कहां खेल हो गया।
रणनीतिकार से डर
चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को लेकर पंजाब कांग्रेस में सुगबुगाहटें बढ़ने लगी हैं। 2022 के विधानसभा चुनाव से ठीक 10 महीने पहले मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने प्रशांत को अपना प्रधान सलाहकार नियुक्त किया तो कई कांग्रेसी नेता असहज हो गए हैं। दरअसल पहले तय यह हुआ था कि 2022 के चुनाव प्रदेश नेताओं की रणनीति के आधार पर ही लड़े जाएंगे। लेकिन अब लगता है कि बंगाल की तरह पंजाब में भी प्रशांत किशोर की ही चलेगी। प्रशांत किशोर पहले भी कैप्टन के साथी रहे हैं। इससे कई नेताओं को अपने टिकट कटने का भी डर सता रहा है।
दिन फिरने का इंतजार
कप्तान साहब को बड़ी वाली कुर्सी से बेदखल कर दिया गया। यह उन्हें नागवार गुजरा। साहब की नौकरी भी ज्यादा नहीं है। जब उन्हें बेदखल किया गया तब मीडिया में उछला कि बस आजकल वे सेवा को ही अलविदा कह देंगे और खेती-बारी संभालेंगे। मगर ऐसा हुआ नहीं। वर्दी वाले साहब दूसरे महकमे में अपना दिन काट रहे हैं। साहब के एक करीबी ने कहा कि बाद में उन्हें गलती का एहसास हुआ। आखिर इस्तीफे का मतलब नेतृत्व की नाराजगी जो है।
सीट के लिए विरोध वापस
मध्य प्रदेश के पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव कई मौकों पर कमलनाथ की खुली आलोचना करते रहे हैं, लेकिन अब उन्होंने कमलनाथ से मुलाकात कर अपनी कड़वाहट दूर कर ली है। अब वे विरोधी न होकर सहयोगी के रूप में काम करेंगे। इस बदलाव को खंडवा संसदीय सीट से जोड़कर देखा जा रहा है। वहां के सासंद नंदकुमार सिंह चौहान का निधन हो गया है सो दोबारा चुनाव होना है। वहां से टिकट लेना है तो सहयोग के बिना तो संभव होगा नहीं।