“अगर आलाकमान कहेगा तो मैं इस्तीफा देने के लिए तैयार हूं”
बी.एस.येदियुरप्पा, मुख्यमंत्री, कर्नाटक
दिल्ली छोड़ बुरे फंसे
जिस चौंकाने वाले अंदाज में वह दिल्ली में ब्यूरोक्रेसी को छोड़कर उत्तर प्रदेश में नेता बने थे, उसके बाद से ही उनको लेकर बड़े-बड़े दावे हो रहे हैं। बात उप मुख्यमंत्री बनने तक पहुंच गई। लेकिन लगता है कि केंद्र के मुखिया के करीबी होने का दांव काम नहीं कर रहा है। क्योंकि प्रदेश में उनकी दाल नहीं गल रही है। उनको मंत्रिमंडल में लेने की काफी कोशिशें हुई, लेकिन प्रदेश के मुखिया के आगे कुछ नहीं चली। हालांकि पूर्व नौकरशाह ने उम्मीदें नहीं छोड़ी हैं। उन्हें दिल्ली का पूरा भरोसा है, ऐसे में देखते हैं आने वाले दिनों में राजनीति क्या रंग दिखाती है।
सिपाही जी का असमंजस
बिहार में इनकी अलग पहचान रही। खुद को पार्टी का सिपाही कहते नहीं थकते थे। एक समय था जब फूल वाली पार्टी के बड़े नेताओं से इनका करीबी संबंध था। सुरक्षा के कारोबार से उबरे तो पार्टी को भी सुरक्षा देने लगे। 2014 के संसदीय चुनाव में इन्हीं का एक कार्यालय आर्थिक गतिविधियों का केंद्र था। संसदीय चुनाव लड़ना चाहते थे, पर उनके ही शहर से बिरादरी के दूसरे नेता ने सीट झटक ली। उनका गुबार निकला तो पिछले दरवाजे से संसद का रास्ता भी बंद हो गया। बिहार विधानसभा चुनाव में भी पूरी तरह किनारे रहे। पार्टी के कैडर संगठन समर्थित मीडिया हाउस की आर्थिक बागडोर अपने हाथों में ले ली थी। लेकिन राजनीतिक मोर्चे पर निराशा हाथ लगी तो नाराजगी में मीडिया हाउस से भी हाथ समेट लिया। अब खुद दुविधा में हैं, उम्र के इस पड़ाव पर करें तो क्या करें।
घर वापसी से दिक्कत
भाजपा के एक वरिष्ठ नेता लंबे समय बाद मध्य प्रदेश में सक्रिय दिख रहे हैं। उनकी सक्रियता ने राजनीतिक हलकों में अटकलों का बाजार गर्म कर दिया है। सत्ता और संगठन के बड़े पदाधिकारियों से उनकी मुलाकात को बड़े राजनीतिक बदलाव से भी जोड़ कर देखा जा रहा है। हालांकि पूछे जाने पर वे केवल यही कहते हैं कि काफी समय बाद लौटा हूं तो हाल-चाल वाली मुलाकात है। पर बात केवल इतनी है नहीं। बंगाल चुनावों से खाली होने के बाद नेता जी अपने लिए नई भूमिका तलाश रहे हैं, जिसकी संभावना न के बराबर है। निगम-मंडलों में अपनों की नियुक्ति भी तलाश रहे हैं। बंगाल चुनाव में जीत की उम्मीद के बाद यहां मुखिया बनने का सपना देख रहे थे, लेकिन अब तो खेल बिगड़ चुका है।
अपनी-अपनी दुकान
फूल वाली पार्टी झारखंड में सत्ता से बेदखल होने के बाद भी सीख नहीं ली है। हालत नारंगी की तरह है। ऊपर से एक मगर भीतर में फांक-फांक। कोरोना काल में ऐसे भी जमीन पर कम, सोशल मीडिया पर विपक्ष का आक्रमण ज्यादा दिखता है। पार्टी का सेल सक्रिय है, मगर दो पूर्व मुख्य मंत्रियों का सेल भी अलग-अलग चलता है। उनके अलग वाट्सएप ग्रुप हैं। पार्टी मंच पर ही साथ दिखते हैं। पार्टी के भीतर गुट और भी हैं। ऐसे में वापसी आसान नहीं लगती।
संघम शरणम्
मध्य प्रदेश के एक वरिष्ठ आइएएस अधिकारी संघ से करीबी बढ़ाने में लगे हैं। इस काम में अपने करीबी लोगों को भी लगा रखा है। पहले इस ओर ध्यान नहीं देते थे। मुख्यममंत्री का करीबी होने के चलते मनमानी करते थे। अब स्थिति बदल गई है। माना जा रहा है कि उनकी नजर मुख्य सचिव पद पर है। इसमें भाजपा और संघ की ओर से अड़चन न आए, इसलिए लगे हैं। वर्तमान मुख्य सचिव एक साल बाद रिटायर होंगे। बाद में कोई चूक न हो, इसलिए साहब अभी से सेटिंग में लग गए हैं।
मुकदमे हटने का राज
नेता जी अब मंत्री नहीं, मगर उनके लोग उन्हें मंत्रीजी ही कहते हैं। उनका जलवा अब भी मंत्री से कम नहीं है। पत्नी भी विधायक रहीं, अब बेटी परंपरा को आगे बढ़ा रही है। झारखंड की पिछली सरकार से कभी बनी नहीं, सो इन पर दो दर्जन से अधिक मुकदमे हैं। तड़ीपार भी हुए। अब सरकार अपनी आई तो मुकदमों की समीक्षा होने लगी। आधा दर्जन मामलों में मान लिया गया कि सबूत नहीं हैं। समय अनुकूल रहा तो आने वाले दिनों में और मुकदमों से भी राहत मिल सकती है।