अबकी दीपावली के मौके पर ब्रिटेन में कंजरवेटिव पार्टी के सांसद ऋषि सुनक के प्रधानमंत्री बनने की खबर ने भारत में अच्छा-खासा उत्साह पैदा किया। ऋषि सुनक की पारिवारिक जड़ें हिंदुस्तान में होना और उनका हिंदू धर्म का अनुयायी होना भारत में गर्वबोध का बायस बन कर आया। खुद ब्रिटेन के लिए हालांकि ऋषि सुनक एक स्थानापन्न से ज्यादा कुछ नहीं हैं, जिन्हें बीते 5 सितंबर को उनकी ही पार्टी के सांसदों ने लिज़ ट्रस के मुकाबले चौदह पर्सेंट वोट से हरा दिया था। इसके बाद सुनक का राजनीतिक कैरियर समाप्त माना जा रहा था। ऐसे में प्रधानमंत्री लिज़ ट्रस का ‘विनाशक’ मिनीबजट सुनक के लिए एक अदृश्य वरदान बन के आया। सुनक को दूसरा लाभ यह मिला कि पार्टी के भीतर उनके दो प्रतिद्वंदियों, पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और पेनी मोरदौन ने प्रधानमंत्री पद की रेस से खुद को बाहर कर लिया। इस पृष्ठभूमि में 24 अक्टूबर को कंजरवेटिव पार्टी के 195 सांसदों ने भारतीय मूल के सांसद 42 वर्षीय ऋषि सुनक को अपना नेता चुन लिया।
राजनीति में प्रतीकों की अहमियत होते हुए भी उनकी कोई अपनी ताकत नहीं होती है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि सांसद से प्रधानमंत्री पद की सबसे तेज यात्रा करने वाले ऋषि सुनक ने अब तक ब्रिटेन को आसन्न मंदी से उबारने का अपना सियासी नजरिया जाहिर नहीं किया है। उनकी राजनीति और आर्थिकी को उनकी नस्ल या धार्मिक मान्यताओं से नहीं बल्कि एक हेज फंड मैनेजर की उनकी पृष्ठभूमि और मौजूदा आर्थिक संकट के आईने में समझा जाना होगा।
बीते 23 सितंबर को यूके के वित्त मंत्री क्वासी क्वार्टेंग ने एक मिनीबजट जारी किया था। इसमें बीते 50 वर्षों में 45 अरब पाउंड की सबसे बड़ी कर कटौती की घोषणा की गई थी। इसके साथ बड़े पैमाने पर अतिरिक्त खर्च की भी बात की गई थी। इससे पहले ही सरकार ने घरेलू और व्यवसायिक ऊर्जा बिल के मद में 60 अरब पाउंड से अधिक राहत की योजना का ऐलान किया था। समस्या यह थी कि घोषित योजनाएं वित्तपोषित नहीं थीं या इनके लिए उधारी ली जानी थी। चूंकि मुद्रास्फीति पहले से ही रिकॉर्ड ऊंचाई पर थी, ऐसे में भारी उधारी की इस योजना ने सरकार के प्रति अविश्वास पैदा कर दिया।
संकट का नेतृत्वः 24 अक्टूबर को कंजरवेटिव पार्टी के 195 सांसदों ने भारतीय मूल के सांसद 42 वर्षीय ऋषि सुनक (बीच में) को अपना नेता चुन लिया
ब्रिटिश बॉन्ड बाजार 26 सितंबर को जब खुला तो प्रतिक्रिया में कीमतें भरभराकर नीचे गिरती चली गईं जिससे दशकों में गिल्ट की सबसे बड़ी बिकवाली शुरू हो गई। इसके बाद बॉन्ड यील्ड आसमान छू गया। जब गिल्ट की कीमत गिरी और यील्ड बढ़ी, तो पेंशन फंड की परिसंपत्तियों का मूल्य कम होने लगा। पेंशन फंडों ने जल्दी से नकदी जुटाने के लिए अपने गिल्ट बेचने शुरू कर दिए, जिससे गिल्ट की कीमतों में और गिरावट आई। ऐसे में वित्तीय तंत्र व पेंशन फंडों की सुरक्षा और बॉन्ड की कीमतों को स्थिर करने के लिए बैंक ऑफ इंग्लैंड को आपातकालीन बॉन्ड-खरीद कर के दखल देना पड़ा। इस संकट का अंतिम परिणाम यह हुआ कि लिज़ ट्रस को जाना पड़ा।
अब स्थिति यह है कि बॉन्ड यील्ड वापस लिज़ ट्रस के कार्यकाल से पहले के स्तर पर आ चुका है। इसलिए ऋषि सुनक के प्रधानमंत्री बनने से सबसे ज्यादा फायदा सरकारी बॉन्ड्स को होगा। इसका नतीजा यह होगा कि आम लोग कमखर्ची पर मजबूर होंगे। सुनक के पिछले बयानों को देखें तो पता लगता है कि जनता को आर्थिक बदहाली से बचाने से ज्यादा प्राथमिक काम राष्ट्रीय उधारी को कम करना है। इसीलिए अगले साल अप्रैल से सुनक ने घरेलू ऊर्जा सब्सिडी बंद करने का प्रस्ताव दिया है। वित्तीय एजेंसी मोर्गन स्टेनली का अनुमान है कि घरेलू बिल बढ़ने के साथ आवासीय ऋण 6 प्रतिशत तक जा सकता है। इसका सीधा असर देश के 40 प्रतिशत परिवारों की आजीविका पर पड़ेगा, जिनमें ज्यादातर मूल ब्रिटिश नहीं हैं। इसलिए सुनक का भारतीय मूल का होना उनकी राजनीतिक और आर्थिक सोच के हिसाब से विरोधाभासी बात है।
बहरहाल, ऋषि सुनक के लिए राहत की बात यह है कि वे इटली से लेकर स्वीडन तक दुनिया भर में मजबूत होते आर्थिक दक्षिणपंथ के स्वाभाविक पार्टनर हैं। वे आप्रवास विरोधी और ब्रेक्सिट समर्थक भी हैं। वे शीर्ष पद पर पहुंचे हैं तो उनकी किस्मत है, लेकिन सर्वे कंपनी इप्सोस के अनुसार ब्रिटेन के 62 प्रतिशत लोग इस साल आम चुनाव चाह रहे हैं जबकि अगले चुनाव जनवरी 2025 में होने हैं। इसके अलावा, एक और सर्वे के मुताबिक ब्रिटेन में हर छह में से मात्र एक नागरिक दक्षिणपंथी आर्थिकी का समर्थक है। लेबर पार्टी भी यह कह रही है कि सुनक बिना जनादेश पाए प्रधानमंत्री बने हैं, इसलिए चुनाव होने चाहिए। सभी ओपिनियन पोल में लेबर पार्टी कंजरवेटिव से काफी आगे चल रही है।
समय से पहले चुनाव करवाने का फैसला अंतिम तौर पर नए प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के हाथ में ही होगा। इसलिए सुनक का प्रधानमंत्री बने रहना इस बात पर निर्भर करेगा कि उनकी प्राथमिकता क्या है- जनता की मांग पर वक्त से पहले चुनाव का जोखिम उठाना या बचे हुए पंद्रह महीनों में जनता को आर्थिक राहत पहुंचा कर अगले चुनाव के लिए अपने को योग्य प्रत्याशी साबित करना।