बिहार में नीतीश कुमार के पंद्रह साल बनाम लालू प्रसाद यादव के पंद्रह साल पर लड़ी जाने वाली चुनावी जंग के महज कुछ महीने पूर्व राष्ट्रीय जनता दल ने अपना आखिरी दांव खेल दिया है। चारा घोटाले में सजायाफ्ता पिता की अनुपस्थिति में राजद की नैया के खेवनहार तेजस्वी ने जनता से अपनी पार्टी के 1990 और 2005 के बीच के शासनकाल के दौरान हुई भूल-चूक के लिए माफी मांगी है। “हमारी पार्टी 15 साल तक सत्ता में थी, मैं तब बच्चा था। मैं सरकार में नहीं था। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि लालू जी ने सामाजिक न्याय के लिए काम किया। वह कोई और युग था, लेकिन हमसे अगर कोई गलती हुई हो, तो हम माफी मांगते हैं,” तेजस्वी ने हाल ही में पटना में आयोजित राजद के एक समारोह में यह घोषणा कर लोगों को चकित कर दिया।
इसके बाद तीस वर्षीय नेता ने यह बात कई अन्य कार्यक्रमों में कही। उनका यह कथन राजद के वर्षों पुराने रुख से बिलकुल अलग है, क्योंकि पार्टी के नेता पूर्व में लालू और राबड़ी देवी के शासनकाल पर लगाए आरोपों को सिरे से खारिज करते रहे हैं। आलोचकों ने उनके मुख्यमंित्रत्व काल को जंगल राज की संज्ञा दी थी। सियासी हलकों में अब भी यही समझा जाता है कि राजद की पिछले कुछ चुनावों में करारी शिकस्त का मुख्य कारण भी यही रहा है। संभवतः इसी वजह से तेजस्वी बिहार की जनता से माफी मांग कर पंद्रह साल की विरासत को त्याग कर नई शुरुआत करने का प्रयास कर रहे हैं। माना जा रहा है कि तेजस्वी ने सोच-समझकर कर यह कदम नीतीश कुमार के आगामी चुनावी अभियान की धार को कुंद करने के लिए उठाया है। पिछले कुछ दिनों से विभिन्न जिलों में सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड) के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री नीतीश ने उन्हें बिहार की जनता, खासकर नए मतदाताओं को, राजद के पंद्रह सालों की ‘हकीकत’ से वाकिफ कराने को कहा है। नीतीश के इस आह्वान से स्पष्ट है कि राजद के कार्यकाल का ‘जंगल राज’ इस चुनाव में भी मुख्य मुद्दा बना रहेगा।
आश्चर्य नहीं कि एनडीए नेताओं ने तेजस्वी की माफी की अपील के बाद उन्हें निशाना बनाया है। भाजपा नेता और उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा कि लालू परिवार का राजनीतिक अपराध क्षमा लायक नहीं है, राजद का 15 साल का शासनकाल बिहार का अंधकारकाल था। “लालू ने गरीबी और हिंसा देकर बिहार को शर्मसार किया, लेकिन इसमें उन्हें गलती कभी नजर नहीं आई। इसलिए न पश्चाताप किया न ही क्षमा मांगी। जनता को ही उन्हें दंडित करना पड़ा,” सुशील मोदी ने ट्वीट कर कहा।
नीतीश सरकार में सूचना और जन-संपर्क मंत्री, नीरज कुमार का कहना है कि जनता तेजस्वी को कभी माफ नहीं करेगी, उन्हें बताना पड़ेगा कि माता-पिता के 15 साल के शासनकाल में हुए गुनाहों के गुनहगार कौन हैं? तेजस्वी ने जिस लालूवाद को विचारधारा मानकर शिरोधार्य किया है, उस लालूवाद के कार्यकाल में ही तो 118 नरसंहार हुए और अपराध, अराजकता और भ्रष्टाचार उसकी पहचान रही है।
आरोपों को खारिज करते हुए तेजस्वी कहते हैं, “झुक वही सकते हैं जिनके पास रीढ़ की हड्डी होती है। क्या वे (एनडीए) माफी मांग सकते हैं? उन्हें बताना चाहिए कि उन्होंने क्या किया। क्या पलायन रुका? क्या रोजगार मिला?” उन्होंने ये सवाल 5 जुलाई को राजद के 24वें स्थापना दिवस पर किए।
सामाजिक-राजनैतिक मामलों के विशेषज्ञ प्रो. नवल किशोर चौधरी का मानना है कि बिहार की राजनीति में नीतीश के उत्थान का एक प्रमुख कारण राजद का 15 साल का शासनकाल रहा है, जिसे उन्होंने हर चुनाव में एक मुद्दे के रूप में उठाया है। “उन्हें लगता होगा कि यह मुद्दा इस बार के चुनाव में भी कारगर होगा,” वह कहते हैं। हालांकि उनका यह भी मानना है कि तेजस्वी के माफी मांगने मात्र से सत्ता में उनकी वापसी नहीं हो सकती। “इससे उनकी छवि एक ऐसे नेता के रूप में बेहतर हो सकती है जिसका राजनैतिक रुख लचीला है और जिसे जमीनी हकीकत की जानकारी है, लेकिन चुनाव जीतने के लिए उन्हें कई सामाजिक-राजनैतिक मामलों से जूझना है।”
पिता की अनुपस्थिति में तेजस्वी को इस चुनाव में नीतीश की लगातार चौथी विजय को रोकने के पूर्व कई समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। उन्हें न सिर्फ पार्टी को टूटने से बचाना है, बल्कि महागठबंधन के घटक दलों को एकजुट रखने की चुनौती भी है। हाल ही में राजद के पांच एमएलसी ने जदयू का दामन थाम तेजस्वी को बड़ा झटका दिया। पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह ने भी पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा देने की घोषणा की, जब उन्हें पता चला कि वैशाली लोकसभा क्षेत्र में उनके पुराने प्रतिद्वंद्वी और पूर्व सांसद रामा सिंह को तेजस्वी पार्टी में ला रहे हैं। रघुवंश के अनुसार, उनके मना करने के बावजूद एक विवादास्पद नेता को पार्टी का सदस्य बनाया जा रहा है। हालांकि, रघुवंश के विरोध के बाद तेजस्वी ने रामा सिंह पर निर्णय टाल दिया, लेकिन इस प्रकरण ने राजद के शीर्ष स्तर पर नेताओं के बीच की बढ़ती खाई को बखूबी दर्शाया है। तेजस्वी की कार्यप्रणाली से राजद के कुछ अन्य वरीय नेता भी नाखुश बताए जाते हैं। राजद के स्थापना दिवस पर आयोजित समारोह में शिवानंद तिवारी, अब्दुल बारी सिद्दीकी और रामचंद्र पुर्वे की अनुपस्थिति इस ओर इशारा करती है।
अपनी पार्टी से इतर तेजस्वी के समक्ष घटक दलों का विश्वास जीतने की भी चुनौती है। बिहार कांग्रेस के नेताओं के अतिरिक्त राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा-सेक्युलर के जीतन राम मांझी और विकाशसील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी उनसे नाराज बताए जाते हैं। उन्हें लगता है कि राजद चुनाव के पूर्व उनकी उपेक्षा कर रही है। तेजस्वी के लिए यह चुनौती है कि महागठबंधन में वह सर्वमान्य नेता स्वीकार किए जाएं। राजद का सबसे बड़ा घटक होने के बावजूद तेजस्वी को महागठबंधन के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में स्वीकार करने से बाकी दलों के नेताओं को परहेज है। रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा का कहना है, “गठबंधन के सभी घटक दलों की संयुक्त मीटिंग में इसका निर्णय होगा। हमारी प्राथमिकता एनडीए सरकार को हटाना है।”
राजद का कहना है कि तेजस्वी के नेतृत्व का कोई मुद्दा नहीं है, क्योंकि कांग्रेस के राहुल गांधी ने पूर्व में पटना में आयोजित एक रैली में यह घोषणा कर दी थी कि तेजस्वी आगामी चुनावों में महागठबंधन का चेहरा होंगे। पार्टी विधायक भाई वीरेंद्र का कहना है कि तेजस्वी ही चुनाव के बाद बिहार के नए मुख्यमंत्री होंगे। महागठबंधन के नेता हालांकि इससे इत्तेफाक नहीं रखते। जीतन राम मांझी सरीखे नेताओं ने इस बात पर जोर दिया है कि महागठबंधन की एक समन्वय समिति अविलंब बनाई जाए, ताकि चुनाव संबंधी सभी मुद्दों पर बातचीत हो सके, लेकिन तेजस्वी ने इस पर कोई पहल अब तक नहीं की। तेजस्वी उस मीटिंग में भी नहीं गए, जो राज्य के गठबंधन के नेताओं ने कांग्रेस के अहमद पटेल जैसे शीर्ष नेताओं के साथ इस विषय पर हाल ही बात की थी। राजद नेताओं के अनुसार, गठबंधन के नेता तेजस्वी के नेतृत्व पर इसलिए सवाल उठाते हैं, ताकि उन्हें सीट बंटवारे में ज्यादा सीटें मिल सकें, जबकि अभी समय की मांग एकजुट होकर नीतीश सरकार को हटाने की है।
तेजस्वी ने स्वयं अपनी पार्टी और घटक दलों के बीच बढ़ती खाई को पाटने की कोशिश की है। राजद के स्थापना दिवस पर उन्होंने पार्टी के नेताओं को व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर सोचने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि वे लालू जी की तरह कुर्बानियां नहीं दे सकते, लेकिन अगर उसका पांच फीसदी भी किया जा सके, तो राजद को सत्ता में आने से कोई नहीं रोक सकता। यहीं नहीं, हम 2030 मंे दिल्ली फतह भी कर सकते हैं, उन्होंने यह कहकर घटक दलों के नेताओं को एक स्पष्ट संदेश देने की कोशिश की, लेकिन क्या वे सफल होंगे?
तेजस्वी के लिए एक बड़ी समस्या यह भी है कि एनडीए में नेतृत्व के सवाल पर कोई विवाद नहीं है। अमित शाह ने एक माह पूर्व ही घोषणा कर दी थी कि इस बार भी चुनाव नीतीश के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। सुशील मोदी का भी मानना है कि जंग के दरम्यान कमांडर बदले नहीं जाते। ऐसी स्थिति में तेजस्वी बस यही उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले दिनों में महागठबंधन के सभी घटक दलों के नेता भी चुनावी जंग शुरू होने के पहले उन्हें कमांडर के रूप में स्वीकार कर लेंगे।