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कोविड-19/दूसरी लहर में इलाज : दिशाहीन इलाज ने बदतर किए हालात

सरकार अभी तक इलाज का ठोस प्रोटोकॉल नहीं बना पाई, जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों की बयानबाजी से बढ़ा भ्रम
स्टेरॉयड बनी समस्याः हाइडोज से बिगड़ रही मरीजों की हालत, तस्वीर अजमेर के जवाहर लाल नेहरू अस्पताल की

देश में इस समय माहौल किसी हॉरर फिल्म जैसा है। चारों तरफ मौत का खौफ है। लोग इलाज के बिना सड़कों पर ही मर रहे हैं। अस्पतालों में बेड नहीं हैं, ऑक्सीजन की किल्लत है। बदहवास लोग वॉट्सऐप और फेसबुक के साथ बाबाओं तक के नुस्खे आजमा रहे हैं। उनका सिस्टम से भरोसा उठा गया है। अलीगढ़ की 22 साल की प्रज्ञा राय का अनुभव कुछ ऐसा ही कहता है। जब 16 अप्रैल को उनकी  रिपोर्ट पॉजिटिव आई तो उन्हें नौ घंटे की मशक्कत के बाद रात 1.30 बजे दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल में बेड मिला, वह भी परिचित की सिफारिश के बाद।  प्रज्ञा कहती हैं, “वहां भी इलाज के नाम पर कोरम पूरा किया जा रहा था। एक हफ्ते बाद मुझे बुखार में ही यह कह कर छुट्टी दे दी गई कि आप घर पर आइसोलेशन में रहेंगी। पूरे इलाज का अनुभव डरावना रहा।”

देश में जो स्थिति बेड, ऑक्सीजन और दवाओं की है, वही इलाज के प्रोटोकॉल की है। केंद्र सरकार इलाज का कोई ऐसा तरीका नहीं तय कर पाई, जिसके आधार पर देश के सभी डॉक्टर इलाज कर सकें। इसी वजह से ब्रिटिश मेडिकल जर्नल ने फरवरी 2021 में लिखा कि भारत में स्वास्थ्य मंत्रालय ने इलाज के दिशानिर्देशों को लेकर तेजी नहीं दिखाई, जिससे कंफ्यूजन बढ़ गया है। उसका नुकसान इलाज के दौरान मरीजों को उठाना पड़ रहा है। इस बात का एहसास गाजियाबाद की रुचि अग्रवाल की आपबीती से होता है। वे कहती हैं, “7 अप्रैल को मैं कोविड-19 पॉजिटिव हुई। उसके बाद दिल्ली के एक मशहूर निजी अस्पताल से 4,500 रुपये में ऑनलाइन सलाह ली। लेकिन पहले दिन ही दवा खाने के बाद सांस लेने में तकलीफ और बेचैनी बढ़ गई। दूसरे डॉक्टर से संपर्क किया तो पता चला कि हाइडोज स्टेरॉयड के कारण स्थिति बिगड़ने लगी थी। अगर मैं डॉक्टर नहीं बदलती तो क्या होता?”

इसी स्टेरॉयड से नुकसान की बात 3 मई को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) दिल्ली के डायरेक्टर और कोविड-19 पर बनी नेशनल टॉक्स फोर्स के सदस्य डॉ. रणदीप गुलेरिया ने की थी। उन्होंने कहा, “जिन हल्के लक्षणों वाले मरीजों को शुरूआती इलाज में स्टेरॉयड दिया जा रहा है, उनमें वायरस तेजी से फैला है। शायद वह ऑक्सीजन स्तर में कमी आने की बड़ी वजह बन रहा है।”

भारत में कोविड-19 को लेकर पहली बार दिशानिर्देश 17 मार्च 2020 को जारी हुए थे। उसी के आस-पास अमेरिका, ब्रिटेन और दूसरे देशों में भी जारी हुए। लेकिन दूसरे देशों ने इलाज की बदलती परिस्थितियों के अनुसार दिशानिर्देशों में भी तेजी से बदलाव किए। मसलन हाइड्रोक्लोरोक्विन, आइवरमेसटिन, एजिथ्रोमाइसिन, डॉक्सीसाइक्लिन, ओजेल्टामिविर या फैवीपिरावीर जैसी दवाइयों को अमेरिका, ब्रिटेन, बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान ने भी कोविड-19 इलाज के लिए जरूरी नहीं कहा है। इन देशों में रेमडेसिविर और टॉसिलिजुमैब और स्टेरॉयड का इस्तेमाल भी काफी गंभीर परिस्थितियों में ही करने का निर्देश है। भारत सरकार का पक्ष 22 अप्रैल को नए दिशानिर्देशों के रूप में सामने आया, जिसमें रेमडेसिविर और टॉसिलिजुमैब का खास परिस्थितियों में इस्तेमाल करने की बात कही गई है। फिर भी डॉक्टर ये दवाइयां लिख रहे हैं और मरीज के परिजन ब्लैक में खरीदने को मजबूर हैं।

ब्रिटिश मेडिकल जर्नल की रिपोर्ट एक और खुलासा करती है। उसके अनुसार भारत में एक साल से कोविड-19 के इलाज में टॉसिलिजुमैब, आइटोलीजुमैब, फैवीपिरावीर, हाइड्रोक्लोरोक्विन दवाइयां दी जा रही हैं, जबकि कोविड-19 के इलाज में बहुत प्रभाव नहीं दिखा है। रैंडम ट्रॉयल के दौरान यह स्पष्ट हो गया था कि हाइड्रोक्लोरोक्विन का कोविड-19 में कोई खास फायदा नहीं मिला है। इसी तरह टॉसिलिजुमैब का आइसीयू में भर्ती होने के पहले 24 घंटे में ही थोड़ा प्रभाव दिखता है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) ने प्लाज्मा थैरेपी को भी कारगर नहीं माना है। फिर भी फेसबुक-वाट्सऐप पर हर रोज सैकड़ों लोग मिल जाएंगे, जो डॉक्टरों के कहने पर प्लाज्मा की मांग कर रहे हैं। बल्कि इसका तो रेडियो पर विज्ञापन भी दिया जा रहा है।

ब्रिटिश जर्नल के अनुसार ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआइ) ने 150 लोगों पर फैवीपिरावीर और 30 लोगों पर टॉसिलिजुमैब के ट्रॉयल के बाद ही उनके इस्तेमाल की मंजूरी दे दी है। रिपोर्ट के अनुसार महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज ने टॉसिलिजुमैब, आइटोलीजुमैब, फैवीपिरावीर, हाइड्रोक्लोरोक्विन और प्लाज्मा को अपने इलाज प्रोटोकॉल से हटा दिया है।

क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर के क्लिनिकल वॉयरोलॉजी और माइक्रोबॉयोलॉजी विभाग के पूर्व प्रमुख डॉ. टी.जैकब जॉन का कहना है, “कोविड-19 के इलाज में अभी तक केवल तीन दवाएं कारगर साबित हुई हैं। किसी की उम्र 65 साल से ज्यादा है या कोई गंभीर अवस्था में है तो उसे शुरुआत के 24 घंटे में कॉन्वालेसेंट प्लाज्मा दी जानी चाहिए। लक्षण बढ़ने लगे तो रेमेडेसिविर और स्थिति गंभीर होने लगे तो डेक्सामेथासोन का इस्तेमाल करना चाहिए।” डॉ. जॉन के अनुसार यह भारत सरकार की जिम्मेदारी है कि पूरे देश में डाटा और साक्ष्यों के आधार पर इलाज का एक दिशानिर्देश तैयार करे, ताकि लोग गूगल पर इलाज का तरीका न ढूढें।

जमीनी स्तर पर इलाज की हकीकत क्या है उसे ग्रेटर नोएडा के कैशाल हॉस्पिटल में कोविड केयर यूनिट के प्रमुख डॉ. प्रशांत राज गुप्ता बताते हैं। “हमारे पास कई ऐसे गंभीर मरीज आ रहे हैं, जिन्हें स्टेरॉयड की मात्रा तीन से चार गुना दी गई। यह काफी जोखिम भरा है। इन दिनों हर मरीज कोविड-19 से संक्रमित ही दिख रहा है। मरीज ही नहीं, डॉक्टर भी घबराए हुए हैं। सरकार को किसी अथॉरिटी को कमान देनी चाहिए जो कोविड-19 प्रोटोकॉल के आधार पर जमीनी स्तर तक इलाज की निगरानी करे।”

लंबा इंतजारः प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में भी वैक्सीन की कमी

इन परिस्थितियों में कोविड-19 से निपटने का सबसे अचूक सहारा वैक्सीनेशन है, जिसकी किल्लत है। सवाल उठता है कि दुनिया की 60 फीसदी वैक्सीन (सभी तरह की) बनाने वाला भारत क्यों अपने ही लोगों को वैक्सीन उपलब्ध नहीं करा पा रहा है? स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार 10 मई की सुबह 7 बजे तक देश में 17 करोड़ वैक्सीन के डोज दिए गए थे। इसमें से केवल 3.57 करोड़ लोगों को दूसरी डोज दी गई। वैक्सीन की किल्लत हर केंद्र पर लंबी-लंबी लाइन के रूप में देखी जा सकती है, जबकि सरकार का लक्ष्य जुलाई तक 30 करोड़ आबादी को टीका लगाने का लक्ष्य है। टीकों की कमी का ही असर है कि जहां 12 अप्रैल को दोनों डोज मिलाकर 37 लाख लोगों को वैक्सीन लगी थी वह 8 मई को गिरकर 20 लाख डोज पर आ गई।

वैक्सीन की कमी की एक बड़ी वजह सरकार की निर्यात नीति और कंपनियों को समय रहते नए ऑर्डर न देना है। विदेश मंत्रालय के अनुसार भारत ने मार्च में निर्यात पर प्रतिबंध लगाने से पहले 95 देशों को 6.63 करोड़ कोविड-19 वैक्सीन डोज दूसरे देशों को दी। दूसरी ओर, अमेरिका ने अपने नागरिकों को तरजीह दी।

यह सवाल भी उठ रहा है जब दिसंबर 2020 में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआइआइ) ने भारत सरकार को घरेलू इस्तेमाल के लिए कम कीमत में 10 करोड़ वैक्सीन डोज निर्माण का ऑफर दिया था, तो सरकार ने प्री-बुकिंग क्यों नहीं की? इसका असर यह हुआ अब जुलाई तक ही कंपनी की उत्पादन क्षमता 5 करोड़ से बढ़कर 10 करोड़ होने की उम्मीद है। भारत बायोटेक भी 3.5 करोड़ वैक्सीन उत्पादन क्षमता जुलाई तक ही कर पाएगी।

इस बीच, सरकार की नई वैक्सीन नीति पर भी लगातार सवाल उठ रहे हैं। 21 अप्रैल को घोषित इस नीति पर राज्य सरकारों ने भी सवाल उठाए हैं। केंद्र ने एक तरफ तो 18 से 44 साल तक के लोगों को वैक्सीन लगाने की अनुमति दे दी, दूसरी तरफ आपूर्ति का तरीका बदलते हुए कंपनियों को वैक्सीन की मनमानी कीमत वसूलने की छूट दे दी। नई नीति के अनुसार वैक्सीन निर्माता कंपनियां अपने उत्पादन का 50 फीसदी डोज केंद्र सरकार को देंगी। बाकी  50 फीसदी डोज वे राज्यों और निजी अस्पतालों को सीधे बेच सकेंगी। इससे राज्यों में प्रतिस्पर्धा हो गई है। केरल के वित्त मंत्री टी.एम.थॉमस आइजैक ने कहा है, “हमने सीरम इंस्टीट्यूट से वैक्सीन आपूर्ति के लिए आग्रह किया था, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला।” इस बीच सीरम इंस्टीट्यूट के सीईओ अदार पूनावाला का लंदन से सनसनीखेज बयान आया कि भारत में प्रभावशाली लोग उन पर दबाव बना रहे थे, इसलिए वे लंदन चले आए हैं। वे भारत की बजाय इंग्लैंड में ही नया प्लांट खोलने जा रहे हैं। अब जब सरकार ने खुद स्वीकार कर लिया है कि महामारी की तीसरी लहर भी आएगी और वह कैसी होगी, इसका किसी को अंदाजा नही है, तो यह केंद्र और राज्य सरकारों का जिम्मा है कि वे लोगों को इस संकट से निकालें।

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