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फिल्म: दास्तान जो भुलाई न गई

यह फिल्म शाहबानो के संघर्ष को दोबारा रचती तो है, लेकिन उसके बाद की राजनीति को दिखाने से थोड़ा परहेज करती है
फिल्म हक के एक दृश्य में यामी गौतम धर

भारत में 1985 का साल शाहबानो मामले के लिए याद किया जाएगा। दुबली-पतली, उम्रदराज एक मुस्लिम महिला ने अपने पति से भरण-पोषण के लिए हक की लड़ाई लड़ती है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला शाहबानो के पक्ष में सुनाया। इस फैसले ने धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ढांचे में मुस्लिम पर्सनल लॉ की सीमाओं को लेकर नई बहस छेड़ दी थी। शाहबानो मामले से प्रेरित फिल्म हक इस मसले को ही विस्तार से दिखाती है।

यह अलग बात है कि शाहबानो फैसला देश की राजनीति में बहुत महत्वपूर्ण हो गया। रूढ़िवादी मुसलमान, विशेषकर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का नेतृत्व करने वाले लोग, इस फैसले के विरोध में सामने आए और कहा कि इसने शरिया कानूनों और भारतीय मुसलमानों की पहचान को कमजोर किया है। दबाव में, प्रचंड बहुमत वाली (इंदिरा गांधी की हत्या के एक साल बाद 1984 में हुए चुनाव में कांग्रेस को संसद में 415 सीटें मिली थीं) राजीव गांधी की तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार ने, मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया, जिससे सुप्रीम कोर्ट का फैसला अप्रभावी हो गया। इस अधिनियम के तहत, किसी भी मुस्लिम महिला को केवल शरिया कानूनों में निर्धारित 90 दिनों की इद्दत अवधि तक ही भरण-पोषण मिल सकता है।

इसके बाद विपक्षी दलों, खासकर हिंदू समूहों ने बहुत हंगामा किया। उनका कहना था कि यह अधिनियम अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के अलावा कुछ नहीं है। इसका विरोध इतना भारी था कि कई विश्लेषकों के मुताबिक, घबराकर 1949 से बंद बाबरी मस्जिद के ताले खोलने की ओर कदम बढ़ा दिए गए, राजीव गांधी सरकार की यह दूसरी सबसे बड़ी भूल थी क्योंकि ताले खुलने के बाद मस्जिद परिसर के भीतर पहले कुछ लोगों द्वारा रख दी गई मूर्ति की पूजा-अर्चना करने लोग जुटने लगे। यह कहना निश्चित ही बहुत सरलीकरण होगा कि राजनैतिक रूप से उथल-पुथल भरे 1980 के दशक में इन्हीं कारणों का असर सबसे ज्यादा हुआ।  हालांकि बाबरी मस्जिद का ताला खोलने की घटना का शायद नतीजा आठ साल बाद मस्जिद ढहाए जाने के तौर पर सामने आया।

शाहबानो जिसके जीवन पर फिल्म बनी

शाहबानो जिसके जीवन पर फिल्म बनी

बदले में इससे हिंदुत्ववादी ताकतों को उभार मिला और भारतीय जनता पार्टी मजबूत स्थिति में पहुंच गई, जहां आज वह है। उसने भारत के मूलभूत विचार को हमेशा के लिए बदल दिया। राष्ट्र अभी भी इन विनाशकारी परिवर्तनों के दौर से गुजर रहा है और हम नहीं जानते कि वर्तमान को 50 या 100 साल बाद, किस तरह देखा जाएगा। फिर भी, पिछले 40 वर्षों की राजनैतिक उथल-पुथल के लिए शाहबानो मामले को पूरी तरह जिम्मेदार ठहराना शायद जायज न हो, लेकिन जिस तरह आर्कड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड की हत्या को प्रथम विश्व युद्ध की चिंगारी कहा जाता है, उसी तरह यह मामला भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण मोड़ था।

फिल्म हक फैसले के बाद की घटनाओं में जाने की कोशिश नहीं करती, सिवाय क्रेडिट रोल से पहले एक छोटे से नोट के। फिल्म पीड़ित महिला, जिसे फिल्म में शाजिया बानो कहा गया है के जीवन की घटनाओं को कालक्रम में बताने तक सीमित है। लेकिन जिस हिस्से को फिल्म में दिखाया गया, उसे पूरी ईमानदारी और विस्तार से दिखाया गया है। मुहावरे में कहें, तो यह पेड़ दिखाने में इतना उलझ जाती है कि जंगल को भूल जाती है।

जब काजी शाजिया बानो (यामी गौतम धर) और मोहम्मद अब्बास खान (इमरान हाशमी) से निकाह के लिए उनकी सहमति मांगते हैं, तो वे खुशी-खुशी कुबूल है कहते हैं। दोनों खुशहाल शादीशुदा जोड़ा है, जो एक-दूसरे को सहारा दे रहे हैं। शुरुआती दृश्य में, जब एक असभ्य पड़ोसी शाजिया पर उसके हिस्से के अहाते में फूल वाले पौधे लगाने के लिए चिल्लाता है, तब अब्बास खान शाजिया के लिए जमीन का वह हिस्सा खरीद लेता है। बिरयानी और बर्फी की खुशबू में लिपटी चीजें बहुत अच्छी चलती हैं, जब तक कि अब्बास यह नहीं कहता कि उसे अपनी मां के साथ जरूरी काम से पाकिस्तान जाना है। तीन महीने तक उसका कोई फोन या चिट्ठी नहीं आती। आखिरकार वह घर लौटता है, दूसरी पत्नी सायरा (वर्तिका सिंह) के साथ।

शाजिया की दुनिया उलट-पुलट जाती है। अब्बास के साथ उसके रिश्ते में खटास आ जाती है। उसे यह भी पता चलता है कि अब्बास और सायरा बचपन में प्रेमी थे। लेकिन सायरा की बचपन में किसी और से जबरन शादी करा दी गई थी, जिसकी मृत्यु हो चुकी है। अब्बास, जो पहले कभी शाजिया के निर्भीक विचारों और सहज न्यायप्रियता के कारण उसकी ओर आकर्षित हुआ था, अब उसे वह झगड़ालू और दखलंदाज लगने लगती है। अब्बास अपने काम और सायरा के आकर्षण में और भी डूबता जाता है। तीन बच्चों की मां, शाजिया को अपनी और बच्चों की खुद देखभाल करना पड़ती है। वह अब्बास से बात करती है, लेकिन उनके मतभेद सुलझ नहीं पाते और शादी तलाक, तलाक, तलाक पर खत्म हो जाती है।

शाजिया अपने माता-पिता के घर वापस चली जाती है। उसकी मुसीबतें बढ़ती जाती हैं। कुछ महीनों बाद, अब्बास उसे घर चलाने और बच्चों की परवरिश के लिए पैसे भेजना बंद कर देता है। वह उससे मिन्नतें करती है, लेकिन वह यह कहकर अपना बचाव करता है कि उसने शरिया कानून के अनुसार पैसे दे दिए हैं। पिता की मदद से शाजिया, अब्बास को अदालत ले जाने का फैसला करती है। निचली अदालत शाजिया के पक्ष में फैसला सुनाती है, लेकिन उसे गुजारा भत्ते के लिए मामूली रकम देती है। वह सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाती है। अब यह तलाकशुदा जोड़े का गुजारा भत्ते का मामला नहीं रह जाता, बल्कि अखबारों की सुर्खियों में आ जाता है। अब्बास यह योजना बनाता है कि हाइकोर्ट में मुकदमा हार जाता है तो सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगा है, जहां उसे यकीन है कि वह जीत जाएगा। वह इसे अल्पसंख्यक स्वतंत्रता, मुस्लिम पर्सनल लॉ बनाम धर्मनिरपेक्ष कानूनी ढांचे और हिंदू-बहुल भारत में मुस्लिम पहचान का मुद्दा भी बनाता है।

यह फिल्म के राजनैतिक पहलू के बारे में है। फिल्म निर्माता सुपर्ण वर्मा की तारीफ करनी होगी, जिन्होंने फिल्म के स्वर को संयमित रखा है। इसमें इस्लाम की बुराइयों पर कोई तीखा हमला नहीं है। इमरान हाशमी और यामी गौतम धर दोनों के अपने मोनोलॉग हैं। भावनात्मक रूप से भरे हुए होने के बाद भी ये उपदेशात्मक नहीं हैं। दोनों अभिनेता अपने पात्रों में जीते हैं, जैसे हाशमी एक बेवफा पति के रूप में बिल्कुल फिट हैं। दूसरी ओर साधारण लड़की के रूप में धर भी जमी हैं। आमतौर पर विवाद को शांति से हल कर लेने वाली शाजिया को अन्याय होने पर व्यवस्था से लड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

यह और भी दिलचस्प होता अगर फिल्म सुप्रीम कोर्ट में केस के साथ शुरू होती कि कैसे अब्बास इसे व्यक्तिगत लड़ाई से बड़ा मुद्दा बनाना चाहता था, कट्टर मौलवियों और बढ़ते हिंदुत्व समूहों के बीच टकराव और कैसे यह मामला आज भारत में देखी जा रही राजनीति के लिए एक ट्रिगर बन गया है। वह शायद किसी और दिन के लिए कोई और फिल्म होगी।

 

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