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4 अगस्त 2025 · AUG 04 , 2025

आवरण कथा/रील का फंडाः जवां जलवे का जानलेवा चस्का

बढ़ते एंटी-एजिंग ट्रेंड, फेस करेक्शन और रील की पागल दौड़ ऐसे नकली यथार्थ की ओर धकेल रही है, जो अब जान गंवाने का खतरा भी बन रही
दीवानगी की हद तक रील मेनिया

दशक 1960 का था। एक फिल्म आई थी, लव इन शिमला। इस फिल्म की नायिका साधना के माथे पर बालों की कुछ लटे थीं, यह हेयरस्टाइल इतनी लोकप्रिय हुई कि इसे नाम ही मिल गया, साधना कट। तब लोगों ने इसे खूब पसंद किया लेकिन ऐसा पागलपन नहीं हुआ कि हर लड़की या महिला अपने बाल इसी शैली में संवारने लगती। उस जमाने से इस जमाने तक इतना फर्क आ गया है, कि लोग जान की बाजी लगा कर सुंदर दिखने, उम्र रोकने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं। सजना संवरना, सुंदर दिखना, जवां दिखना लड़कियों की फितरत मानी जाती थी, अब यह लिंग भेद से आगे निकल कर ट्रेंड बनता जा रहा है। उम्र कोई भी हो, ‘पिक्चर परफेक्ट’ बनने की चाहत ने इस बाजार को भी तेजी दी है। शादी जैसे बड़े समारोह की बात छोड़िए, घर की साधारण पूजा में भी अच्छा दिखना जरूरी हो गया है, ताकि रील्स बनाई जा सकें, फोटो स्टोरी अपलोड की जा सकें और स्टेटस डाले जा सकें। आखिरकार दूर-दराज बैठे रिश्तेदार, दोस्त इन्हीं रील्स, स्टेटस से आकलन करते हैं कि फोटो डालने वाला कितना खुश है। लेकिन इस पागलपन के कुछ जानलेवा नतीजे सतर्क करते हैंः

. गुरुग्राम में 25 साल की टेनिस खिलाड़ी राधिका यादव को उसके पिता ने इसलिए गोली मार दी कि वह रील्स बनाती थी।

. कुछ साल पहले पाकिस्तान की रील बनाने वाली कंदील बलोच की इसी कारण उसके भाई ने हत्या कर दी थी।

. अभी कुछ महीनों पहले कानपुर में दो इंजीनियरों की जान सिर्फ इसलिए चली गई, क्योंकि दोनों हेयर ट्रांसप्लांट करा रहे थे। ट्रांसप्लांट करने वाली डॉक्टर के पास इस काम की सही डिग्री नहीं थी, लेकिन बाल उगा कर फिर से जवां दिखने की चाहत उन लड़कों को अनगढ़ डॉक्टर के पास ले गई और इसकी कीमत दोनों ने अपनी जान देकर चुकाई।

यह नया पागलपन

रील्स का पागलपन वैश्विक है। किसी को लग सकता है कि रील्स बनाना और सौंदर्य उपचार अलग-अलग बाते हैं। यह सवाल पूछने से पहले उन्हें यह जानना जरूरी है कि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। रील्स या तो बिना-सिर पैर के हिट हैं या फिर तराशे हुए सौंदर्य से। जो दिखता है, वही बिकता है वाली कहावत इस पर चरितार्थ होती है। रील्स के लिए हर पल सुंदर दिखना जरूरी है। रील्स बनाने वाली लड़कियां या लड़के भले ही पड़ोस के घर में रहते हों लेकिन उनकी होड़ हर रोज इंस्टा, स्नैपचैट पर अपलोड हो रही जाह्नवी कपूर, अनन्या पांडे, शनाया कपूर, सिद्धांत चतुर्वेदी, कुणाल कपूर जैसे लोगों से हैं। आज की तारीख में 50 वर्ष पार कर चुकी मलाइका अरोरा की देखा-देखी, अधेड़ महिलाएं भी सौंदर्य की नई परिभाषा गढ़ने को तैयार हैं।

इंस्टाग्राम, यूट्यूब शॉर्ट और स्नैपचैट जैसे प्लेटफॉर्म ने सुंदरता को ‘ट्रेंडिंग प्रोजेक्ट’ बना दिया है। अब हर चेहरे को कैमरा-रेडी होना चाहिए। हर लिप-सिंक वीडियो एक परीक्षा है- कौन अधिक सुंदर, अधिक परफेक्ट और अधिक ग्लैमरस दिख सकता है? ये रील्स अब सिर्फ समय बिताने का साधन नहीं रहे, यह “परफॉर्मेंस प्रेशर” बन चुके हैं।

18 से 35 की उम्र के युवा लगातार खुद की तुलना उन वायरल चेहरों से कर रहे हैं जिन्हें दिन-रात रील्स में देखा जा सकता है। सोशल मीडिया इंफ्लुएंसरों की दुनिया, जिसे पहले ‘अल्टरनेट रियलिटी’ माना जाता था, अब रियल लाइफ का बेंचमार्क बन गई है। फॉलोअर्स और लाइक्स की गिनती ने आत्म-सम्मान को रिप्लेस कर दिया है।

इस दबाव ने परफेक्ट दिखने की चाह को इतना बढ़ा दिया है कि जिसे देखो, वह ‘ययाति’ हो जाना चाहता है। ययाति हो जाने की यह लालसा, त्वचा का रंग बदलने, नाक, ठोड़ी, भौंहे, होंठ, जबड़ा सुधारना या फिर बाल उगाने के लिए सर्जरी हो या फिर झुर्रियों को खत्म करने के लिए बोटोक्स के इस्तेमाल पर जाकर खत्म होती है। स्किन क्लिनिकों पर भीड़ है, बोटोक्स, फिलर्स और फेस करेक्शन सर्जरी के लिए छह महीने की वेटिंग है।

 ‘अमरत्व’ की इस कामना को ऐसे क्लिनिक हवा देकर मोटा माल वसूलते हैं। लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका काम सही डिग्रीधारी डर्मेटोलॉजिस्ट या कॉस्मेटिक सर्जन कर रहे हैं या नहीं। समाज में इस नई सनक की डोर सेलिब्रिटी या फिल्मी सितारों के हाथ से कब छूट गई, उन्हें भी पता नहीं चला। सोशल मीडिया ने सब धान बाइस पसेरी कर दिया है। ‘रील्स’ बना कर सेलेब्रिटी बनना और फिर इन्फ्लुएंसर बनने की ख्वाहिश छलांग मारने लगी है। इसके लिए जरूरी है कि चेहरा सूत से नपा हो और खूबसूरती में कोई कमी न हो।

बोटोक्स का बुलबुला

बोटोक्स, यानी बोटोलिनम टॉक्सिन, ऐसी दवा जो मांसपेशियों को अस्थायी रूप से सुन्न कर देती है। इससे चेहरे की झुर्रियां नहीं दिखतीं। कभी यह सिर्फ मेडिकल जरूरतों के लिए इस्तेमाल होती थी, जैसे माइग्रेन या मसल्स डिसऑर्डर के इलाज में। लेकिन धीरे-धीरे यह ‘एंटी-एजिंग’ उद्योग में सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाने वाली दवा बन गई। भारत में हर साल लाखों लोग बोटोक्स, लिप फिलर्स और स्किन टाइटनिंग प्रक्रियाओं का सहारा ले रहे हैं।

इसमें सबसे चिंताजनक बात यह है कि युवा वर्ग, खासकर 20-25 वर्ष की लड़कियां और लड़के अब बोटोक्स करवा रहे हैं, जबकि इसकी जरूरत अक्सर 40 साल के बाद होती है। ‘प्रिवेंटिव बोटोक्स’ जैसे शब्द आज ब्यूटी क्लिनिक्स के विज्ञापनों में आम हो चले हैं। परंतु बहुत से मामले ऐसे भी सामने आ रहे हैं जहां इन प्रक्रियाओं के चलते साइड इफेक्ट, एलर्जी, त्वचा विकार, यहां तक कि मौत भी हो चुकी है। मुंबई, दिल्ली, बेंगलूरू जैसे महानगरों में क्लिनिक में हुई गलतियों की कई रिपोर्ट मीडिया आती रहती हैं, लेकिन उम्र रोकने के दीवानों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

फेस करेक्शन सर्जरी

यह सर्जरी नई पहचान की तलाश की तरह है। व्यक्ति जो है, उससे अलग हो जाना चाहता है। फेस करेक्शन सर्जरी अब ‘न्यू नॉर्मल’ हो गई है। नाक की बनावट बदलवाना, जबड़ा शार्प करवाना, ठुड्डी को वी आकार देना, आंखों को बड़ा दिखाना, ये सब सोशल मीडिया के सौंदर्य मानकों से प्रेरित सर्जरी हैं, जिनकी बाढ़ आई हुई है। अब यह सोच बन चुकी है कि सुंदर चेहरा ही कामयाबी की पहली सीढ़ी है।

यही नहीं, आजकल मोबाइल एप्स और फिल्टर इतने एडवांस हो चुके हैं कि वास्तविकता और आभासी छवि में फर्क मिट चुका है। लेकिन असली चेहरा जब सबके सामने आता है, तब वास्तविक प्रतिक्रिया दिल तोड़ने वाली होती है। इसके बाद शुरू होता है, आत्म-संदेह और निराशा का दौर और कई बार उसकी परिणिति आत्महत्या तक पहुंचती है। रील्स के लिए ‘रीटच’ शब्द इतना प्रचलन में है कि माइनर सर्जरी कराना ऐसा हो गया है, जैसे जुकाम या बुखार की दवा लेना। इससे नई उम्र के बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर कितना गहरा असर होता है, इसकी फिक्र किसी को नहीं है।

डर बेचने का बाजार

कॉस्मेटिक इंडस्ट्री अब एक विशाल वैश्विक व्यापार है, जिसका बाजार 2024 तक 800 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है। भारत में भी यह उद्योग तेजी से फैल रहा है। टीवी और इंटरनेट पर ‘ग्लो सीरम’, ‘एंटी-एजिंग क्रीम’, ‘पिग्मेंटेशन रिमूवर’, ‘स्किन ब्राइटनिंग फेस वॉश’ जैसे प्रोडक्ट की बाढ़ है। यह बाजार डर बेचता है- बुढ़ापे का, फोड़े-फुंसियों का, अपनी पहचान खोने का।

इन उत्पादों के प्रचार में एक बात साफ है, अगर आप जवान और सुंदर नहीं दिखते, तो आप ‘कुछ नहीं हैं।’ यह एक गहरी सामाजिक हिंसा है, जो धीरे-धीरे मानसिक अवसाद, बॉडी डिस्मॉर्फिया और आत्महत्या जैसे मामलों को जन्म दे रही है।

यह सुंदरता है या छलावा

वह जमाना गया, जब सुंदरता को प्राकृतिक माना जाता था। एक वक्त था, जब लोगों के लिए झुर्रियां ‘अनुभव’ होती थीं, बालों की सफेदी ‘संघर्ष’ दिखाती थी। माथे की लकीरों से ‘ज्ञान’ झलकता था। आज झुर्रियां, सफेदी, लकीरें सब मिटाया जा रहा है, ताकि इंस्टाग्राम पर फोटो ‘एस्थेटिक’ लगे। यह भयावह मानसिकता है, जहां समय को झूठलाने की को‌शिश के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जा रही।

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