Advertisement

बाढ़ः जल प्रांतर

कई राज्यों के हिमालयी क्षेत्र में आई अचानक विनाशकारी बाढ़ के बढ़ते सिलसिले ने फिर चेताया कि बेतरतीब निर्माण और प्रकृति से खिलवाड़ की कीमत जानलेवा
जलमग्न खीरगढ़

उत्तराखंड के धराली गांव में 5 अगस्त को बादल फटता है, सैलाब सैकड़ों जिंदगियां बहा ले जाता है। छह लोग मौत की नींद सो जाते हैं। उत्तराखंड में अभी इस तबाही का मातम भी पूरा नहीं हो पाता कि 14 अगस्त को जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ जिले में बादल फटते हैं और 60 लोगों की जिंदगियां बह जाती हैं। उसके बाद फिर उत्तराखंड प्रकृति के कोप का शिकार बनता है और इस बार चमोली जिले के थराली में बादल फटते हैं। हिमाचल प्रदेश की कहानी भी अलग नहीं है। 20 जून से लेकर 16 अगस्त के बीच बादल फटने, बाढ़ और भूस्खलन से 261 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। सिक्किम, असम और अरुणाचल जैसे पहाड़ी राज्यों में भी यही हाल है। ऐसा लगता है जैसे प्रकृति ने रौद्र रूप दिखाना शुरू कर दिया है।

हालांकि, बाढ़ का कहर सिर्फ पहाड़ों तक ही सीमित नहीं है। बरसात के मौसम में उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों के कई हिस्से पानी में डूब जाते हैं। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआइ) के अनुसार, भारत का 12.5 प्रतिशत क्षेत्र बाढ़-ग्रस्त है या बाढ़ आने की संभावना बनी रहती है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) की एक रिपोर्ट चिंता और बढ़ाती है। बाढ़ के कारण हर साल औसतन 75 लाख हेक्टेयर भूमि प्रभावित होती है। इन क्षेत्रों में हर साल औसतन 1600 जानें जाती हैं और 1805 करोड़ रुपये का नुकसान होता है।

मैदानी इलाकों में बादल फटने जैसी घटनाएं भले ही कम हों, लेकिन कोसी, तीस्ता, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों में अचानक बाढ़ अब आम हो चुका है। इस साल प्रयागराज, वाराणसी, पटना, मुंबई और गुवाहाटी जैसे बड़े शहरों में पानी ने जनजीवन ठप कर दिया। बिहार का जवइनिया गांव तो कोसी नदी के कटान में पूरी तरह समा गया। पहाड़ी क्षेत्रों में कटान से ज्यादा, बादल फटने, भूस्खलन और ग्लेशियर झीलों के टूटने जैसी आपदाएं तबाही मचाती हैं। हालांकि, सवाल यह है कि क्या ये पूरी तरह प्राकृतिक है या मानवीय लापरवाही ने ज्यादा घातक बना दिया है? अचानक बाढ़ की समस्याएं क्यों बढ़ रही हैं? क्या वाकई ऐसी घटनाओं के रोकने के उपाय हैं?

बेतरतीब निर्माण

धराली में अचानक आई बाढ़ ने एक बार फिर साबित किया कि पहाड़ और वहां बसे लोग बेतरतीब निर्माण की भारी कीमत चुकाते हैं। पिछले दो दशकों में मनाली, शिमला, ऋषिकेश और गंगतोक जैसे पर्यटन केंद्रों के साथ ही दूरदराज के गांव भी तेजी से शहरीकरण का शिकार हुए हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, हिमाचल प्रदेश में शहरीकरण की दर 10 प्रतिशत और उत्तराखंड की 30.2 प्रतिशत थी। विशेषज्ञों का कहना है कि बिना सोचे-समझे बनाए गए घर, होटल और दुकानें प्राकृतिक जल निकासी मार्गों को बंद कर देती हैं। इससे मिट्टी कमजोर होती है और भारी बारिश में बाढ़ के साथ भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है।

किश्तवाड़ में अस्थायी पुल पार करते लोग

किश्तवाड़ में अस्थायी पुल पार करते लोग

जंगलों की कटाई ने इस संकट को और गहरा दिया है। पहाड़ी क्षेत्रों में साल-दर-साल वन क्षेत्र कम होता जा रहा है। हिमाचल प्रदेश में 10 साल में 50 हजार अधिक पेड़ों की कटाई हो चुकी है। ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच की रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तराखंड में 2001 से 2024 के बीच 1.2 प्रतिशत वन क्षेत्र खत्म हो गया है। असल में, ये जंगल पहले स्पंज की तरह काम करते थे, जो बारिश के पानी को सोखकर धीरे-धीरे नदियों तक पहुंचाते थे। पेड़ों की कटाई से अब पानी सीधे नदियों में आता है और बाढ़ बन जाता है।

हाइड्रोपावर परियोजनाओं ने भी पहाड़ों को गहरी चोट पहुंचाई है। उत्तराखंड में ही 50 से ज्यादा छोटे-बड़े प्रोजेक्ट चल रहे हैं। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने बार-बार चेतावनी दी है कि सुरंग बनाने के लिए विस्फोट करना, नदियों का रास्ता मोड़ना और बांध निर्माण पहाड़ों को अस्थिर कर देते हैं। 2021 की चमोली त्रासदी इसका बड़ा उदाहरण है, जिसमें 200 से ज्यादा लोग मारे गए। अक्टूबर 2023 में सिक्किम की साउथ ल्होनाक झील टूटने से 35 लोग मारे गए और 104 लापता हो गए।

पर्यटन ने भी नाजुक पारिस्थितिकी पर भारी दबाव डाला है। 2023 में उत्तराखंड में 5.8 करोड़ पर्यटक आए, जो वहां की आबादी से 5 गुना ज्यादा है। हिमाचल में 1.6 करोड़ सैलानियों ने दस्तक दी। इतनी बड़ी संख्या में पर्यटक होटल, गाड़ियां और सड़कों की मांग बढ़ाते हैं, जिससे प्रदूषण और कचरे की समस्या बढ़ती है।

यह हकीकत है कि पहाड़ों का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है और यह कभी भी गंभीर आपदा का रूप ले सकता है। लेकिन मैदानी इलाकों में भी हालात अच्छे नहीं हैं। यहां भी सबसे प्रमुख कारण प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुन दोहन ही है। केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, नदियों से बड़े पैमाने पर रेत और पत्थर का अवैध खनन उनके प्राकृतिक बहाव को बिगाड़ देता है। इससे बाढ़ का पानी ज्यादा तेजी से बाहर आता है और किनारों को तोड़ देता है। बिहार के जवइनिया गांव के कटान का कारण भी अवैध खनन ही बताया जा रहा है।

भारतीय मौसम विभाग (आइएमडी) के अनुसार, बारिश का पैटर्न बदल रहा है। पहले लंबे समय तक हल्की बारिश होती थी, लेकिन अब कुछ घंटों में ही भारी बरसात हो जाती है, जो फ्लैश फ्लड का कारण बनती है। पुणे के भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हवा में नमी की मात्रा बढ़ रही है, जिससे अचानक भारी बारिश बढ़ गई हैं।

धराली में राहत कार्य

हिमालयी क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील है। 2019 में इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट की एक रिपोर्ट ने चेतावनी दी थी कि अगर ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित भी किया जाए, तो इस सदी के अंत तक हिमालय के एक-तिहाई ग्लेशियर पिघल जाएंगे। गंगोत्री ग्लेशियर 1935 से अब तक 1500 मीटर पीछे हट चुका है। हिंदू कुश हिमालय शृंखला 3500 किलोमीटर लंबी है। यह भारत सहित आठ देशों में फैली है। यदि वैश्विक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है, तो 2100 तक इसके 75 प्रतिशत ग्लेशियर खत्म हो सकते हैं। इससे गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों पर निर्भर करोड़ों लोगों की आजीविका खतरे में पड़ जाएगी। 

प्रकृति से तालमेल जरूरी

सवाल यह है कि इसका हल क्या है? नीति आयोग की 2021 की बाढ़ पर आई एक रिपोर्ट सुझाव देती है कि हिमालयी राज्यों को मैदानी क्षेत्रों की तरह बाढ़ नियंत्रण उपाय अपनाने की बजाय अलग रणनीति बनानी होगी। यहां बांध और पक्के तटबंध उतने प्रभावी नहीं हैं, क्योंकि नदियां तेज बहाव वाली हैं और ढलान कमजोर हैं। कुछ जानकारों का यह भी मत है कि बाढ़ का समय से पहले पता लगाने के लिए शुरुआती चेतावनी प्रणाली और प्राकृतिक जल निकासी का पुनर्निर्माण ज्यादा जरूरी है। राज्यों के बीच तालमेल की कमी भी समस्या है। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड में बांधों से अचानक छोड़ा गया पानी उत्तर प्रदेश जैसे निचले राज्य में बाढ़ का कारण बनता है। 

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की स्टडी बताती है कि हिमालयी कस्बों की मास्टर प्लानिंग पुरानी है और उसमें जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों शामिल नहीं हैं। नतीजतन, निर्माण अक्सर भूस्खलन और बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों या नदियों के किनारों पर होता है, जिससे आपदा में नुकसान बढ़ जाता है।

तकनीक भी इस संकट से निपटने में अहम भूमिका निभा सकती है। केंद्रीय जल आयोग ने गूगल के साथ मिलकर एआइ और मशीन लर्निंग का उपयोग शुरू किया है। इससे बाढ़ की चेतावनी पहले मिलती है। ओडिशा ने देश में पहली बार अर्ली वॉर्निंग डिसेमिनेशन सिस्टम लागू किया, जो शहर से लेकर गांव तक आपदा चेतावनी भेजता है।

पटना में बाढ़ग्रस्त इलाका

पटना में बाढ़ग्रस्त इलाका

ध्यान देने वाली बात यह है कि चाहे कितने ही प्रयास क्यों न किए जाएं, प्रकृति की मार से बच पाना संभव नहीं है। नीति आयोग की मानें, तो बाढ़ को पूरी तरह रोकना मुमकिन नहीं है। लेकिन इसके नुकसान को कम किया जा सकता है। धराली जैसी त्रासदी ने हमें याद दिलाया कि समय रहते कदम उठाना कितना जरूरी है।

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement