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20 मार्च 2023 · MAR 20 , 2023

आवरण कथा/नजरिया: भ्रष्टाचार है ‘न्यू नार्मल’

चिकित्सा शिक्षा एवं उपचार का पवित्र पेशा पूंजी और निजी क्षेत्र के गठजोड़ से भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा
पवित्र पेशे पर संकटः स्वास्थ्य संगठन भ्रष्टाचार का अड्डा बन गए हैं

भारत में चिकित्सा शास्त्र और व्यवसाय की नियामक संस्था मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआइ) शुरू से ही विवादों में रही है। समय-समय पर इसे विभिन्न संस्थाओं की फटकार भी झेलनी पड़ी है। 2016 में संसद की स्थाई समिति ने एमसीआइ की कार्यप्रणाली पर कड़ी टिप्पणी करते हुए खिंचाई भी की थी और इसकी संरचना तथा संविधान में आमूल-चूल परिवर्तन की सिफारिश कर दी थी। प्रोफेसर रामगोपाल यादव की अध्यक्षता वाली इस संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में एमसीआइ में भ्रष्टाचार, नियुक्तियों में पारदर्शिता की कमी, मेडिकल कॉलेजों की मान्यता देने में व्यापक भ्रष्टाचार आदि पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। समिति ने माना था कि एमसीआइ में ज्यादातर दलाल किस्म के चिकित्सकों का दबदबा रहता है और यह गिरोह मिलजुल कर मेडिकल कालेजों की मान्यता तथा चिकित्सकों के निबंधन आदि मामले में अनैतिक तरीके से कार्य करता है। इस क्रियाकलाप में करोड़ों रुपये की रिश्वत एवं राजनीतिक फायदे का खुला खेल चलता है। समिति ने संसद में रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए सिफारिश भी की थी कि एक व्यापक सुधार के बिना देश में चिकित्सा शिक्षा एवं व्यवसाय की प्रतिष्ठा स्थापित नहीं की जा सकती।

एमसीआइ की जगह अब नेशनल मेडिकल कमिशन (एनएमसी) ने ले ली है। मौजूदा सरकार ने एक कानून बनाकर 25 सितंबर 2020 को एनएमसी को एमसीआइ की जगह स्थापित कर दिया है लेकिन बीते ढाई वर्षों में चिकित्सा शिक्षा और व्यवसाय तथा चिकित्सकों के व्यवहार में जरा सा भी बदलाव नहीं दिखा है। जन स्वास्थ्य पर काम करने वाले जन संगठन एवं कार्यकर्ता इसे सरकार की ‘नाम बदल योजना’ का ही हिस्सा मानते हैं। भारत में कुल 643 मेडिकल कालेज (एलोपैथी) हैं, जिसमें हर साल 97093 छात्रों का दाखिला होता है। इसमें लगभग आधे कॉलेज (320) ही सरकारी हैं। इन कॉलेजों में नामांकन की प्रक्रिया कहने को तो नेशनल इलिजिबिलिटी एंट्रेंस (एनईईटी) के माध्यम से होती है लेकिन निजी मेडिकल कॉलेजों में लाखों रुपये देकर एडमिशन कराना आज आम बात है। एक अनुमान के अनुसार यह धंधा सालाना कोई 9 अरब रुपये का है। समझा जा सकता है कि भारत में चिकित्सा शिक्षा एवं इलाज व्यवस्था का निजीकरण आम आदमी के उपचार पर क्या असर डालता होगा?

आज की एनएमसी और तब की एमसीआइ के विवादास्पद पहलुओं को समझने के लिए 2002 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी गौर करना होगा। चिकित्सा शिक्षा के नियमन के लिए बनी इस संस्था में विवादों के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की धारा 142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग करके पूर्व प्रधान न्यायाधीश आर.एम. लोढ़ा की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था। सर्वोच्च न्यायालय को ऐसा इसलिए करना पड़ा था कि केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने संसदीय स्थाई समिति की रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की थी। उल्लेखनीय है कि संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में चिकित्सा शिक्षा और व्यवसाय को भ्रष्टाचार के कारण ‘अपने निचले स्तर पर’ माना था। स्पष्ट है कि चिकित्सा शिक्षा एवं व्यवसाय में भ्रष्टाचार का मामला बहुत ही चर्चित एवं चिंताजनक था। निजी पूंजी के सहारे राजनीतिक मदद और संरक्षण में कुकुरमुत्ते की तरह देश में मेडिकल कॉलेज खुलते रहे और अकूत मुनाफे के लिए गुणवत्ता व जरूरी अहर्ताओं को ताक पर रखकर चिकित्सा शिक्षा का धंधा फलता-फूलता रहा। देश में स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्गति आम थी और उसकी भेंट चढ़ रहे ये देश के निरीह और गरीब लोग, जो निजी अस्पतालों में इलाज कराने की हैसियत नहीं रखते थे।

एमसीआइ (अब एनएमसी) के भ्रष्टाचार की कहानी में तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. केतन देसाई की कहानी को जानना जरूरी है। सन 2013 में सीबीआइ ने डॉ. देसाई को इसलिए गिरफ्तार किया था कि वे दो करोड़ की रिश्वत के बदले पंजाब में एक मेडिकल कॉलेज को मान्यता दे रहे थे। इस धंधे में डॉ. देसाई के साथ अन्य लोगों की संलिप्तता का पता लगाने के लिए सीबीआइ ने जाल बिछाकर कई लोगों को गिरफ्तार किया था। डॉ. केतन देसाई मूलत: यूरोलॉजिस्ट हैं और अहमदाबाद से एमसीआइ का चुनाव जीत कर सन 2001 में काउंसिल के अध्यक्ष बने थे। इसके पहले वे सन 1990 में गुजरात मेडिकल काउंसिल के अध्यक्ष थे। उनके भ्रष्टाचार का अनुमान लगाने के लिए आप यह तथ्य ध्यान में रख सकते हैं कि उनके पास से सीबाआइ ने डेढ़ किलो सोना तथा 80 किलो चांदी और करोड़ों रुपये नकद बरामद किए थे। एमसीआइ के इतिहास में डॉ. देसाई भ्रष्टतम अध्यक्ष के रूप में जाने जाते हैं।

चिकित्सा जगत की महत्वपूर्ण और चर्चित पत्रिका लैंसेट के एडिटर इन चीफ डॉ. रिचर्ड हार्टन ने कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त कर देने के बाद वहां की स्वास्थ्य स्थिति पर चिंता जाहिर की थी। लैंसेट ने माना था कि भारत में चिकित्सा संगठन भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं तथा इलाज में भेदभाव करते हैं। इसमें दो राय नहीं है कि तमाम चिकित्सा संगठन भ्रष्ट राजनीति का शिकार हैं और दवा कंपनियों के एजेंट के रूप में कार्य करते हैं। डॉ. केतन देसाई की गिरफ्तारी की खबर ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में भी प्रकाशित हुई थी। यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि जब छत्तीसगढ़ के मशहूर डॉक्टर एक्टिविस्ट डॉ. विनायक सेन को नक्सली बताकर सरकार ने गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया था तब किसी मेडिकल एसोसिएशन या काउंसिल ने कोई पहलकदमी नहीं दिखाई थी। उल्टे मेडिकल संगठनों और इससे जुड़े व्यक्तियों का यह तर्क था कि डॉक्टर को राजनीतिक विचारधारा से दूर रहना चाहिए, हालांकि चिकित्सा से जुड़े जागरूक लोग जानते हैं कि लैंसेट स्वास्थ्य क्रांति और स्वास्थ्य से जुड़ी राजनीति पर अक्सर टिप्पणी करता है।

मेडिकल काउंसिल एवं देश में अन्य चिकित्सा संगठनों के भ्रष्टाचार को लेकर जन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का संगठन सपोर्ट फॉर एडवोकेसी ऐंड ट्रेनिंग टु हेल्थ इनिशिएटिव (साथी) ने देश के कोई 78 चिकित्सकों की मदद से ‘वॉयस ऑफ कॉन्शियस फ्रॉम द मेडिकल प्रोफेशन’ नामक रिपोर्ट में डॉक्टरों और उनके पेशे में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया है। रिपोर्ट में बेबाकी से बताया गया है कि डॉक्टरी पेशे में कैसे मरीज को ‘मेमना’ ‘वध’, लोगों के कम बीमार पड़ने को ‘अभी मौसम सुस्त है’ जैसी शब्दावली का प्रयोग किया गया है। इससे डॉक्टरी धंधे की असलियत सामने आती है। चिकित्सा व्यवस्था में व्याप्त धंधा और अनैतिकता के गठजोड़ पर मैंने ही सन 1990 से 2000 तक दर्जनों लेख राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में लिखे थे, जिस पर चिकित्सा संगठनों ने मुझे प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से बुरा भला कहा था। चिकित्सा संगठनों की शह पर फैले चिकित्सीय भ्रष्टाचार ने बेशर्मी की हदें पार करके इस ‘पवित्र पेशे’ को घिनौना बना दिया है। समझा जा सकता है कि अनैतिकता एवं भ्रष्टाचार की नींव पर खड़ी चिकित्सा व्यवस्था से हम किस तरह के सेवा और सदकार्य की उम्मीद कर सकते हैं?

इस विषय पर चर्चा करते समय मेरे मन में यह सवाल भी उठ रहे हैं कि भारत में चिकित्सा शिक्षा के इतने बड़े अवसर के बावजूद बड़े पैमाने पर छात्र मेडिकल की पढ़ाई के लिए विदेश क्यों जाते हैं? कारण साफ है कि सालाना लगभग एक लाख मेडिकल की सीटों के लिए 16 से 20 लाख छात्र एंट्रेस परीक्षा में शामिल होते हैं और यहां के निजी मेडिकल कॉलेजों में औसतन 10 से 15 लाख रुपये सालाना फीस ली जाती है। यदि सरकारी मेडिकल कॉलेज में ली जाने वाले फीस की रकम देखें तो सालाना दो से तीन लाख रुपये में सामान्य मध्यम वर्ग के छात्र मेडिकल शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन इन कॉलेजों में प्रवेश मुश्किल है क्योंकि यहां कड़ी प्रतियोगिता है। ऐसे में लगभग 5-10 लाख रुपये सालाना खर्च कर विदेशों में मेडिकल शिक्षा प्राप्त करना छात्रों के लिए बेहतर विकल्प होता है। हालांकि यूरोपीय संघ, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता बेहतर है और यहां भारतीयों के लिए शिक्षा महंगी भी है, लेकिन युक्रेन, रूस और अनेक देशों में यह शिक्षा अपेक्षाकृत सस्ती और सुलभ रूप से उपलब्ध होने के कारण हजारों बच्चे यहां से पढ़ना ज्यादा ठीक समझते हैं।

अब भारत में विदेशों से पढ़कर लौटे इन मेडिकल छात्रों के लिए बतौर डॉक्टर भारत में पंजीकरण कराना आसान नहीं है। इसलिए भ्रष्टाचार के सहारे ही सही ऐसे छात्र भारत के मेडिकल काउंसिल में अपना नाम दर्ज कराने की जुगत में लगे रहते हैं। यह सिलसिला पुराना है लेकिन आज भी जारी है।

चिकित्सा शिक्षा एवं उपचार के पवित्र पेशे ने पूंजी और निजी क्षेत्र के गठजोड़ से खुद को भ्रष्टाचार के गटर के रूप में तब्दील कर लिया है। अब वह चाहे मेडिकल काउंसिल (अब कमीशन) हो या मेडिकल एसोसिएशन सब निरीह और भोले भाले मरीजों के खिलाफ गिद्ध की तरह जुटे नजर आते हैं। चिकित्सा का पवित्र पेशा बाजार की बदनाम गली के रूप में तब्दील हो गया है। सरकारें सब जानती हैं लेकिन इसमें अपनी संलिप्तता और लाचारी की वजह से कुछ भी बोल नहीं पा रही। नैतिकता और सेवा का यह क्षेत्र अब लगभग पूरी तरह से दवा कम्पनियों की मुट्ठी में है। फिर भी इस पेशे की मर्यादा को बचाने का प्रयास जारी रहना चाहिए।

ए के अरुण

(लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं)

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