अच्छे दिनां ने पंजाब दी किसानी डोब ती... (अच्छे दिनों ने पंजाब की किसानी डुबा दी) पंजाबी गायक मनमोहन वारिस का यह गाना इन दिनों प्रदेश के किसान आंदोलन में खूब बज रहा है। ये किसान खेतों में तैयार खड़ी फसलों की चिंता छोड़ रेल पटरियों पर तंबू लगाकर पड़े हैं। उन्हें फसलों के नष्ट होने से ज्यादा खौफ उस ‘फसल’ का है जिसके बीज केंद्र सरकार ने उनके दिलो-दिमाग में बो दिए हैं। नए कृषि कानून आने के बाद किसानों को डर है कि एग्रीकल्चर पर भी कॉरपोरेट कल्चर हावी हो जाएगा। इन कानूनों के खिलाफ एकजुट पंजाब के 30 से अधिक किसान संगठनों ने चेतावनी दी है कि कानून वापस लिए जाने तक वे चैन से नहीं बैठेंगे। उनकी मांग है कि एक चौथा विधेयक लाकर किसानों को एमएसपी मिलना आश्वस्त किया जाए, एमआरपी की तर्ज पर एमएसपी को भी अनिवार्य किया जाए। उन्हें खेत मजदूरों, आढ़तियों, डेयरी किसानों और संस्कृति कर्मियों का भी पूरा समर्थन मिल रहा है।
किसान आंदोलन की आग में सियासी रोटियां सेंकने की भी खूब कोशिश हो रही है। शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के कोटे से केंद्र सरकार में एकमात्र कैबिनेट मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने इस्तीफा दे दिया और फिर शिअद ने एनडीए से भी 24 साल पुराना नता तोड़ लिया। सत्तारूढ़ कांग्रेस, शिअद और आम आदमी पार्टी पहली बार केंद्र सरकार के खिलाफ खड़ी नजर आ रही हैं। सिखों की विश्वव्यापी धर्म संसद शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) पहली बार खुलकर किसान आंदोलन के साथ जुड़ी तो धरने पर बैठे किसानों के लिए गुरुद्वारों के लंगर खोल दिए गए।
राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर आम तौर पर चुप रहने वाले हिंदी सिनेमा के बड़े कलाकारों के विपरीत पंजाब के कलाकार खुलकर आंदोलनकारी किसानों के साथ हैं। हरभजन मान, दलजीत दोसांझ, सिद्धू मूसेवाला, रंजीत बावा, दलेर मेंहदी और उनके भाई मिक्का सिंह ने युवाओं का ध्यान खेती-किसानी की ओर आकर्षित किया है। किसानों के धरने में बेटे आकाश मान के साथ भाग लेने के लिए हरभजन मान कनाडा से आए। उन्होंने आउटलुक से बातचीत में कहा, “अभी तक अपने गानों और फिल्मों का प्रचार फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर करने वाले पंजाबी कलाकार अब किसानों की आवाज बन कर पूरी दुनिया में गूंजेंगे। जब तक कृषि कानून वापस नहीं लिए जाएंगे, तब तक मूंछ की लड़ाई जारी रहेगी, पंजाबियों की मूंछ नीची नहीं होने देंगे।”
किसानों का मानना है कि नए कानून से एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) की मंडियां खत्म हो जाएंगी, इन मंडियों से बाहर निजी कंपनियां मनमाने दाम पर उनसे उपज खरीदेंगी और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी नहीं रह जाएगी। इस गारंटी के चलते ही केंद्रीय पूल में 80 फीसदी गेहूं देने वाले पंजाब और हरियाणा के किसान साल दर साल उत्पादन का नया रिकॉर्ड बना रहे हैं।
वैसे, सरकारी एजेंसियां एमएसपी के दायरे में आने वाली 23 में से सिर्फ गेहूं और धान की खरीद एमएसपी पर करती हैं। किसानों को बाकी 21 फसलों के दाम सरकारी मंडियों के भीतर और बाहर एमएसपी से कम ही मिलते हैं। इन दिनों मालवा इलाके में कपास के दाम 4,400 से 4,600 रुपये प्रति क्विंटल हैं जबकि एमएसपी 5,515 से 5,825 रुपये प्रति क्विंटल है। भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के अध्यक्ष बलबीर सिंह राजेवाल की मानें तो कपास पर किसानों की लागत 3,700 से 4,100 रुपये प्रति क्विंटल बैठ रही है। इसमें उनकी मेहनत का पारिश्रमिक शामिल नहीं है। राजेवाल का कहना है कि एमआरपी की तर्ज पर एमएसपी को भी कानूनी स्वरूप दिया जाए और उसे तय करने का अधिकार किसानों के पास हो।
भारतीय किसान यूनियन की हरियाणा इकाई के अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढूनी कहते हैं कि नए कानूनों के जरिए कृषि क्षेत्र को पूंजीपतियों के हाथ सौंपने की तैयारी है। सबसे ज्यादा मार गरीबों पर पड़ेगी, जिन्हें सस्ता अनाज देने के लिए सरकारी एजेंसियां अनाज खरीदती हैं। यह केंद्र सरकार की चरणबद्ध तरीके से एमएसपी को खत्म करने की रणनीति है। चढूनी इस बात से भी खफा हैं कि किसानों के दम पर सत्ता पाने वाले नेता, सत्ता पाते ही किसानों का साथ छोड़ देते हैं। वे कहते हैं, “हरियाणा के उपमुख्यमंत्री और जजपा नेता दुष्यंत चौटाला इसका उदाहरण हैं। उन्होंने अपने परदादा चौधरी देवीलाल के नाम पर वोट मांगे, लेकिन सत्ता मिलते ही किसानों का साथ छोड़ दिया।”
नए कानून के मुताबिक एपीएमसी मंडियों के बाहर होने वाली फसलों की खरीद पर मार्केट कमेटी फीस और आढ़ती कमीशन नहीं लगेगा। इससे पंजाब और हरियाणा के 70,000 से अधिक आढ़तियों और मंडियों में काम करने वाले 18 लाख से अधिक मजदूरों की आजीविका संकट में है। इनके अलावा मंडी बोर्ड और मार्केट कमेटी के 8,500 से अधिक मुलाजिमों-अफसरों पर भी तलवार लटकने लगी है।
आउटलुक से बातचीत में पंजाब आढ़ती एसोसिएशन के अध्यक्ष रविंदर सिंह चीमा ने कहा, “एपीएमसी एक्ट के तहत छह दशक में पंजाब में मंडियों का जो नेटवर्क खड़ा हुआ था, वह नए कानून से खत्म हो जाएगा।” चीमा के अनुसार केंद्र सरकार का छिपा एजेंडा यह है कि वह बड़ी कंपनियों को सीधे कृषि कारोबार में उतारना चाहती है।
हालांकि आढ़तियों को नुकसान की बात से सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल एंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट (क्रिड) के प्रो. आरएस घुम्मण सहमत नहीं। वे कहते हैं, “मंडियों के न रहने से किसानों के कॉरपोरेट के हाथों ठगे जाने की आशंका है, आढ़ती तो कॉरपोरेट के खरीद एजेंट बन जाएंगे। उन्हें ढाई फीसदी कमीशन की बजाय अधिक कमाई हो सकती हे।”
पंजाब के वित्त मंत्री मनप्रीत बादल नए कानूनों को ग्रामीण विकास के लिए घातक मानते हैं। उन्होंने बताया कि सरकारी एजेंसियां राज्य में साल भर में करीब 52,000 करोड़ रुपये का गेहूं और धान खरीदती हैं। इन पर मार्केट फीस से पंजाब मंडी बोर्ड को सालाना 4,000 करोड़ मिलते हैं। “इस राजस्व से मंडी बोर्ड और मार्केट कमेटियों के 5,000 से अधिक मुलाजिमों का वेतन, किसानों को फसलों के नुकसान की भरपाई, मंडियों तक पक्की सड़कों का निर्माण जैसे कार्य होते थे, जो अब ठप हो जाएंगे।”
विशेषज्ञ एक और संकट का अंदेशा जता रहे हैं- खेत मजदूरों को काम न मिलने का। पंजाब योजना बोर्ड के उपाध्यक्ष ए.एस. मित्तल कहते हैं, “सरकार का कदम कृषि को कॉरपोरेट कल्चर में तब्दील करने की कोशिश है। ठेके पर खेती में कंपनियां बड़े स्तर पर मशीनीकरण अपनाएंगी। इससे कृषि मजदूरों की रोजी-रोटी पर संकट आ जाएगा।” आखिर कॉरपोरेट के भले के दौर में इन मजदूरों की फिक्र किसे है।
एमआरपी की तर्ज पर एमएसपी को भी कानूनी स्वरूप दिया जाए और उसे तय करने का अधिकार किसानों के पास हो- बलबीर सिंह राजेवाल, अध्यक्ष, भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल)
कृषि क्षेत्र को पूंजीपतियों के हाथ सौंपने की तैयारी है। सबसे ज्यादा मार गरीबों पर पड़ेगी, जिन्हें सस्ता अनाज देने के लिए एजेंसियां अनाज खरीदती हैं- गुरनाम सिंह चढूनी, अध्यक्ष, भाकियू, हरियाणा इकाई