मराठवाड़ा के दलितों के उत्पीड़न की यादें बीड के बालासाहब जावले को अब भी परेशान करती हैं। पैंतीस वर्षीय बालासाहब पीएचडी हैं और एक स्थानीय कॉलेज में पढ़ाते हैं। अपने बचपन में देखी जातिगत हिंसा उन्हें अच्छे से याद है, खासकर 2003 में बौद्ध दलित दादाराव डोंगरे की हत्या, जो सोना खोटा गांव में हुई थी। पुलिस ने उस मामले में ऊंची जाति के आरोपियों के खिलाफ एससी/एसटी धारा में केस दर्ज करने से इनकार कर दिया था। स्थानीय अफसर भी मुंह चुरा रहे थे। ऐसे में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (अठावले) ने डोंगरे के लिए न्याय की लड़ाई की अगुआई की थी। दलित उस समय पार्टी के नेता रामदास अठावले की ओर बड़ी उम्मीद से देखा करते थे। जावले याद करते हैं, ‘‘आंबेडकरी आंदोलन में अठावले का ऊंचा कद था। हम उन्हें जमीनी नेता की तरह देखते थे जो दलितों के दर्द और आकांक्षाओं से जुड़ा है।’’ बीस साल में वक्त बदल गया। जावले की अठावले के बारे में राय भी बदल चुकी है। वे कहते हैं, ‘‘उन्होंने पूरी आरपीआइ (ए) को एक मंत्रीपद के लिए गिरवी रख दिया। उनकी अब राजनीति में कोई पहचान नहीं रह गई है। यह जानते हुए भी वे कुर्सी से चिपके हुए हैं।’’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कैबिनेट में अठावले एक दुर्लभ प्राणी हैं। सामाजिक न्याय के वे तीन बार राज्यमंत्री रह चुके हैं। एनडीए में उन्हें स्टार दलित नेता माना जाता है। बावजूद इसके, हाल के कुछ वर्षों में यह सब कुछ चुनाव लड़े बगैर हुआ है। वे 2012 में एनडीए का हिस्सा बने थे। 2014 और 2019 में उनकी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली लेकिन अठावले को राज्यसभा की कुर्सी लगातार मिलती रही। महाराष्ट्र में उनकी पार्टी ने लगातार दूसरी बार चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया है। दूसरी ओर, दलित नेता जोगेंद्र कावड़े की पीपुल्स रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया भी परिदृश्य से गायब है। वे भी भाजपानीत महायुति को अपना समर्थन दे चुके हैं। प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी 208 सीटों पर लड़ रही है, लेकिन उसके ऊपर भाजपा को मदद पहुंचाने का आरोप लगता रहा है। खराब सेहत के कारण खुद आंबेडकर प्रचार नहीं कर रहे हैं। यानी, 13 फीसदी दलितों के लिए महाराष्ट्र की सियासत का चुनावी अखाड़ा खाली पड़ा है। आंबेडकरी आंदोलन का नीला रंग धुंधला चुका है या फिर भाजपाई भगवा के साथ घुलमिल चुका है।
प्रकाश आंबेडकर
सामाजिक कार्यकर्ता और टिप्पणीकार बंधुराज लोन इस स्थिति पर कहते हैं, ‘‘बीते दस साल के दौरान प्रमुख आंबेडकरी दलों ने चुनाव नहीं लड़ा। उन्हें भाजपा ने अपने पाले में खींच लिया है। इन नेताओं ने सत्ता के लिए आंबेडकर के विचार और दलित बिरादरी के साथ धोखा किया है।’’
परंपरागत रूप से आरपीआइ ही दलित आबादी की नुमाइंदगी करती रही है, जिसे भीमराव आंबेडकर ने 1956 में बनाया था। सत्तर के दशक के बाद आंबेडकर की विचारधारा के आधार पर हुए विभाजनों ने पार्टी को सत्तर से ज्यादा टुकड़ों में बांट दिया। कई नेता कांग्रेस की ओर खिसक गए, कुछ भाजपा की ओर तो बाकी शिवसेना के साथ चले गए। आरपीआइ के भीतर इस भयंकर धड़ेबाजी को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. सुखदेव थोराट आंबेडकर की विचारधारा को लेकर अस्पष्टता का परिणाम मानते हैं।
वे कहते हैं, ‘‘विचारधारा के स्तर पर आरपीआइ के नेता आंबेडकर के समाजवाद वाले नजरिये को संसदीय लोकतंत्र के साथ मिलाकर लागू करने में नाकाम रहे। आर्थिक नीति पर उनके बीच कोई स्पष्टता नहीं थी।’’ वे कहते हैं कि आंबेडकर के राजनीतिक दर्शन से विचलन के साथ ही विचारधारा की जगह प्रतीकों ने ले ली। कुल मिलाकर सारी राजनीति प्रतिमाओं के अनावरण या आंबेडकर के नाम पर भवनों और संग्रहालयों के निर्माण तक सीमित रह गई।
इसका उदाहरण नामान्तर आंदोलन है जिसके पीछे आंबेडकरी दल और समूह सोलह साल तक लगे रहे, जिसका कुल एजेंडा मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम आंबेडकर के नाम पर रखा जाना था। ऐसा नहीं होने पर दंगे हुए, दलितों के खिलाफ हिंसा हुई।
जानकारों का कहना है कि आरपीआइ और अन्य आंबेडकरी समूहों के भीतर विभाजनों ने राजनीतिक नुमाइंदगी और सामुदायिक लाभ के लिए उनके मोलभाव की ताकत खत्म कर दी है। 1999 से 2014 के बीच आरपीआइ और प्रकाश आंबेडकर की पूर्ववर्ती भरीपा बहुजन महासंघ को विधानसभा में केवल एक सीट मिली थी। 2019 के चुनाव में एक भी आंबेडकरी दल को कोई सीट नहीं मिल सकी।
लोन के मुताबिक आंबेडकरी आंदोलन में आई यह गिरावट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा द्वारा अनुसूचित जाति को वोट बैंक के तौर पर अलग-थलग करने की सुनियोजित कोशिशों का परिणाम है। परंपरागत रूप से एससी वोटबैंक आरपीआइ के धड़ों या कांग्रेस और माकपा जैसी सेकुलर पार्टियों को वोट देता था जिससे दलित-बहुल नांदेड़ और सोलापुर जिलों में परिणाम तक पलट जाता था। भाजपा ने इस वोटबैंक की ताकत को कम कर दिया। लोन कहते हैं कि भाजपा की महायुति सरकार ने दलित कल्याण कार्यक्रमों के फंड में बीते एक दशक में कटौती की है, जिनमें वजीफे और पुणे स्थित डॉ. बाबासाहब आंबेडकर रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट के लिए सहयोग आदि भी शामिल है। दलितों के मुद्दों को दरकिनार करते हुए मराठा और ओबीसी जाति के छात्रों के लिए नए वजीफे लाए गए जिससे कोटा की राजनीति में इन समूहों का तुष्टिकरण किया जा सके।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिसने दलितों को बांट दिया
चुनाव से पहले भाजपा ने महाराष्ट्र की बौद्ध दलित आबादी को प्रतीकात्मक कदमों से अपना निशाना बनाया, जैसे पाली को शास्त्रीय भाषा का दरजा देना, आदि। कांग्रेस ने पहले आरपीआइ के कुछ धड़ों को अपने साथ लिया था ताकि दलित वोट एकजुट न होने पाए लेकिन भाजपा ने इस विभाजन को और बढ़ाते हुए एससी मतदाताओं को धार्मिक आधार पर बांट डाला। उसने प्रभुत्वशाली एससी समूहों जैसे मतंग और चर्मकार को हिंदू हितैषी ठहराते हुए मतंग समुदाय के पहले एमएलसी अमित गोरखे को हाल के विधान परिषद चुनाव में खड़ा कर दिया।
लोन बताते हैं, ‘‘अब मतंग और चर्मकार अपनी हिंदू पहचान पर गर्व करते हैं और भाजपा में उन्हें समर्थन मिला है जबकि बौद्ध आबादी अब भी कांग्रेस या आंबेडकरी पार्टियों के साथ खड़ी है।’’ इस बंटवारे के कारण आंबेडकरी दलों का जनाधार कमजोर हो गया है। दलित राजनीतिक आंदोलन गिरावट की ओर है, हालांकि उसका असर पूरी तरह अब भी खत्म नहीं हुआ है।
बीते आम चुनावों के दौरान एमवीए गठबंधन की ओर दलित वोटों का जाना इसकी ओर इशारा करता है, जिसकी बड़ी वजह यह प्रचार था कि भाजपा चुनाव के बाद आरक्षण खत्म कर देगी और संविधान को बदल डालेगी। चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि दलित और मुसलमान वोटों के कारण ही एमवीए के खाते में 31 सीटें आईं। सौ से ज्यादा आरपीआइ के धड़ों और सामाजिक समूहों के नए छतरी संगठन प्रोग्रेसिव रिपब्लिकन फ्रंट (पीआरएफ) के संयोजक श्याम गायकवाड़ कहते हैं, ‘‘आंबेडकरी ताकतों ने बढ़ चढ़कर इंडिया ब्लॉंक का समर्थन किया और आगामी चुनाव में भी ऐसा ही करेंगे।’’ वे कहते हैं कि 2014 के बाद भाजपा के उदय ने आंबेडकरी तत्वों को संविधान समर्थक दलों के साथ ला दिया है। गायकवाड़ कहते हैं, ‘‘हमारे समर्थन के बगैर एमवीए के दल बड़ा लाभ नहीं ले सकते।’’
जावले इस बात से सहमत नहीं हैं कि कांग्रेस का समर्थन करने से दलितों को कोई लाभ मिलने वाला है। वे कहते हैं, ‘‘कांग्रेस और भाजपा दोनों आंबेडकरी आंदोलन के दुश्मन हैं। आरपीआइ को तोड़ने में कांग्रेस के नेता बराबर के दोषी हैं।’’ वे सभी दलों पर आरोप लगाते हैं कि वे दलितों का वोटबैंक की तरह इस्तेमाल करते हैं, ‘‘बाबासाहब के बाद किसी नेता ने हमारे लिए कोई रचनात्मक काम नहीं किया। हमें जो लाभ मिल रहे हैं, सब उन्हीं की देन हैं।’’