उर्दू साहित्य में जैसे कोई दूसरा गालिब न हुआ, भाषा विज्ञान में कोई दूसरा नोम चोम्स्की न हुआ, बांग्ला में कोई दूसरा टैगोर नहीं हुआ, हिंदी की दुनिया में भी कोई दूसरा नामवर न हुआ। उनके निधन के बाद यह कहना कुछ लोगों को भले अतिशयोक्ति लगे लेकिन यह सच है कि पिछले 50 वर्ष में उनकी मेधा जैसा कोई दूसरा बुद्धिजीवी हिंदी की दुनिया में नहीं हुआ। हालांकि, वे जितने लोकप्रिय थे, उतने ही विवादस्पद भी। उनके विरोधी और आलोचक भी बड़ी तादाद में थे, लेकिन वे भी उनकी प्रतिभा का लोहा मानते थे। एक ऐसा आलोचक जो इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र से लेकर संस्कृत साहित्य में उतनी ही गहरी दिलचस्पी रखता हो।
वे परंपरा, आधुनिकता और समकालीनता में एक समान रमे थे। वे अपनी विचारधारा के लिए मुठभेड़ करने को हमेशा तैयार रहते। अपभ्रंश साहित्य से लेकर बांग्ला, मराठी, उर्दू साहित्य के मर्मज्ञ थे। रवींद्रनाथ टैगोर के गोरा पर वे जिस तरह धाराप्रवाह बोलते थे, वैसा कोई दूसरा वक्ता साहित्य में नहीं था। हजारीप्रसाद द्विवेदी के इतिहास-बोध पर उनसे अधिक सुंदर व्याख्यान देने वाला कोई नहीं था।
उन्हें मौखिक परंपरा का आलोचक कहा गया क्योंकि उन्होंने लगभग 40 साल से लिखना बंद कर दिया था। उन्होंने देश भर में घूम-घूम कर व्याख्यान देकर ज्ञान की रोशनी जलाने का काम किया। जब देश में अज्ञान का अंधकार अकादमिक दुनिया में फैलने लगा है तो नामवर की याद सबको आएगी। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग को जो ऊंचाई उन्होंने प्रदान की, वह कोई दूसरा नहीं कर सका। वे धोती-कुर्ता पहनने वाले एकमात्र आधुनिक आलोचक थे, लेकिन विचारों में अज्ञेय और निर्मल वर्मा से अधिक आधुनिक। उनकी आधुनिकता में गहरी सामाजिक प्रतिबद्धता थी। वे रूपवाद के सख्त विरोधी थे। डॉ. नगेंद्र के रस-सिद्धांत के खिलाफ उनका लेख हिंदी में पोलेमिक्स का सबसे बढ़िया उदाहरण है। शुरुआती दिनों में ही बतौर एमए पास छात्र उन्होंने छायावाद की जो व्याख्या लिखी, वह रामचंद्र शुक्ल और नंददुलारे वाजपेयी की व्याख्या से अधिक विचोरोत्तेजक है।
यह उनकी प्रतिभा का विस्फोट था लेकिन उन्होंने लिखा कम। उन पर सत्ता से निकट रिश्ते बनाने का आरोप भी लगा, पर यह भी सच है कि सत्ता ने उनकी प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं किया। अगर किया होता तो वे राज्यसभा के मनोनीत सदस्य होते, पद्मविभूषण से सम्मानित होते। आज जब उनसे कई बौने लोग राज्यपाल, राजदूत और पद्म पुरस्कारों से रोज नवाजे जा रहे हैं तो लगता है, अच्छा ही हुआ कि नामवर सिंह इससे वंचित रहे।
वे पांडित्य में हजारीप्रसाद द्विवेदी के सबसे योग्य शिष्य थे। शायद यही कारण है कि दूसरी परंपरा की खोज जैसी महत्वपूर्ण किताब किसी ने नहीं लिखी। उनकी आलोचना का गद्य हिंदी का आदर्श वैचारिक गद्य माना जाता है। अज्ञेय के बाद वे हिंदी के दूसरे शिखर पुरुष थे। वे हिंदी के एकमात्र ऐसे लेखक हैं, जिन्हें अपने गुरु से पहले साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। उन्होंने खुद इस बात का रहस्योद्घाटन किया कि उन्होंने एक-दो महीने के भीतर कविता के नए प्रतिमान जैसी पुस्तक लिखी, जिसने साहित्य के पुराने प्रतिमानों को ध्वस्त किया।
उन पर सामंतवादी, जातिवादी और अवसरवादी होने के भी आरोप लगे, पर उन्होंने उसकी परवाह नहीं की। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह से लेकर वाजपेयी तक उनके मुरीद थे। उनके भाषण सुनने के लिए शहरों में पढ़े-लिखे लोगों की भीड़ उमड़ आती थी। अब कोई ऐसा लेखक हिंदी में नहीं, जो साहित्य का नेतृत्व कर सके। कोई ऐसा जो अंग्रेजी के बड़े से बड़े आलोचकों के मर्म को सरल, सहज रूप में बता सके। वे पचास के दशक में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से चुनाव भी लड़े, हारे भी। अगर वे संसद में होते तो बहस का स्तर ऊंचा होता। नेहरू जैसा प्रधानमंत्री ही उनके महत्व को जान सकता था। वे पक्के बनारसी थे। पान और जर्दा खाने वाले लेखक। उनके निधन से हिंदी की एक ज्ञान परंपरा का अंत हो गया। शायद ही कोई दूसरा नामवर हिंदी में पैदा हो।
नामवर जी ने एक जमाने में खाक भी छानी थी। जनयुग से लेकर राजकमल प्रकाशन की गलियों तक। सागर में उनकी भिड़ंत नंददुलारे वाजपेयी से भी हुई। जोधपुर से दिल्ली आए तो यहीं आकर बस गए। बनारस में त्रिलोचन की संगत में रहे, तो बनारस में ही मार्कंडेय सिंह के मित्र भी रहे जो दिल्ली के उपराज्यपाल रहे। नागार्जुन से लेकर रघुवीर सहाय और विनोद कुमार शुक्ल से लेकर उदय प्रकाश के लेखन पर उनकी पैनी नजर रही। उन्होंने जिसका जिक्र किया, वह चर्चित हो गया। उन्होंने हिंदी के लेखकों की कई पीढ़ियों को प्रभावित किया। अज्ञेय ने भी नामवर जी की विद्वत्ता को स्वीकार किया था जबकि एक जमाने में उन्होंने अज्ञेय पर हमले भी किए थे। उनकी विद्वत्ता का आतंक दूसरे विषयों के प्रकांड विद्वानों पर भी था। वे समाज विज्ञान के सभी तरह के विमर्शों का तार साहित्य से जोड़कर उसे एक नया विमर्श बनाते थे। वे गांधी, लोहिया और मार्क्स के मर्म को भी समझते थे। वे मम्मट से लेकर क्रोचे और फूको में भी समान दिलचस्पी रखते थे। उनका एक काव्य संग्रह भी प्रकाशित हुआ था।