अप्रैल की दोपहरी ही नहीं, रातें भी मई-जून जैसी तपने लगीं तो बिजली ने ऐसा हाहाकार मचा दिया, जैसे आसमान से तड़तड़ाती बिजली ही गिर पड़ी हो। देश के कई हिस्सों में तापमान 45 डिग्री पार कर गया है तो बिजली दम निकालने लगी। मोटे तौर पर बेतुकी योजनाओं, लापरवाहियों, विभिन्न मंत्रालयों-एजेंसियों में तालमेल के भारी अभाव और नासमझी भरे हिसाब-किताब ने ऐसा बिजली संकट ला दिया, जो कुछ दशकों से नहीं दिखा था, खासकर पिछले एक दशक से तो बिलकुल नहीं। वजह यह कि गर्मियों में इस बढ़ी मांग से काफी ज्यादा बिजली उत्पादन क्षमता देश में है और बिजली उत्पादन में सबसे ज्यादा काम आने वाले कोयले का उत्पादन भी जरूरत से ज्यादा है। तो, फिर संकट कहां से आ टपका? संकट का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मई की शुरुआत में देश में कोयले से चलने वाले कुल प्लांटों में लगभग आधे प्लांटों में आवश्यकता का केवल 25 फीसदी कोयला उपलब्ध था। कुछ में तो 19 या उससे कम हो गया था। 20 फीसदी से नीचे कोयले के भंडार को भारी संकट का संकेत माना जाता है। इस वजह से ज्यादातर बिजलीघरों ने उत्पादन घटा दिया। नतीजा: इस समय उत्तर प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, हरियाणा, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के लोग सबसे ज्यादा बिजली कटौती का सामना कर रहे हैं। बिजली की कमी का सामना कर रहे 12 राज्यों में से आंध्र प्रदेश की स्थिति सबसे खराब है। आंध्र ने औद्योगिक सप्लाई में 50 फीसदी की कमी की है और घरेलू उपभोक्ताओं के लिए बड़े पैमाने पर बिजली कटौती की है। गुजरात ने कमी के कारण उद्योगों को हफ्ते में एक बार बंद रखने को कहा है। महाराष्ट्र औसतन 3,000 मेगावाट से अधिक की कमी का सामना कर रहा है।
आप सिर खुजलाते रह जाएंगे कि यह हुआ कैसे? इसलिए कि कोयला खदानों से बिजलीघरों तक कोयला पहुंचाने की ट्रेनें ही उपलब्ध नहीं थीं। जब हाहाकार मचा तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सभी संबंधित मंत्रियों-ऊर्जा मंत्री आर.के. सिंह, कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी, रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव के साथ संबंधित विभागों की अपने आवास पर बैठक बुलाई। उसके बाद देश भर में 1000 यात्री ट्रेनों का परिचालन बंद कर दिया गया, ताकि कोयला ले जाने वाली मालगाड़ियों को प्लांट तक जल्द पहुंचाया जा सके।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह
लेकिन राजनीति बदस्तूर कायम है। बिजली के मामले की देखरेख और व्यवस्थाएं केंद्र की हैं, मगर केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय बिजली संकट के लिए राज्यों के कोयला आयात को लेकर ‘ढुलमुल’ रवैये को जिम्मेदार ठहरा रहा है। राज्य महंगे आयातित कोयले और ढुलाई को दोष दे रहे हैं।
देश के अन्य राज्यों की तरह मध्य प्रदेश में भी बिजली का संकट भारी है। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी चार से छह घंटे बिजली कटौती की जा रही है। सरकार डिमांड और सप्लाई में 571 मेगावाट कमी की बात कर रही है जबकि बिजली के जानकार 1500 से 2000 मेगावाट बिजली कम होने की बात कर रहे हैं। 6 मई को मध्य प्रदेश में पीक ऑवर में 12, 533 मेगावाट बिजली की आपूर्ति की गई। इस वक्त मध्य प्रदेश के चार थर्मल पावर प्लांट में सिर्फ 2 लाख 60 हजार 500 मीट्रिक टन कोयला ही है। पूरी क्षमता में प्लांट चलाने के लिए प्रतिदिन कोयला 80 हजार मीट्रिक टन लगता है।
कोयले की सप्लाई पर केंद्रीय कोयला मंत्रालय के सचिव अनिल कुमार जैन का कहना है कि कोल इंडिया की ओर से कोयला उत्पादन लगातार बढ़ाया जा रहा है लेकिन इस समस्या की मूल वजह आयातित कोयले पर चलने वाले प्लांटों से राज्यों का बिजली न खरीदना है। इन प्लांटों की बिजली घरेलू कोयले पर चलने वाले प्लांटों से कुछ महंगी होती है, इस वजह से कई राज्यों ने उनसे बिजली खरीदना बंद कर दिया। ‘‘राज्यों को चाहिए कि उन प्लांट से बिजली खरीद शुरू करें।’’ देश में फिलहाल 17000 मेगावाट के प्लांट ऐसे हैं, जिसमें फिलहाल 10000 मेगावाट के प्लांट ही चल रहे है।
केंद्रीय ऊर्जा मंत्री आर.के. सिंह
तो, केंद्र सरकार की सलाह भी आयातित कोयले पर जोर बढ़ाने की है, जबकि अपने यहां का कोयला काफी सस्ता है और पर्याप्त उपलब्ध भी है, जिसकी सप्लाई मोटे तौर पर सरकारी कंपनी कोल इंडिया करती है। केंद्र ने सभी सरकारी बिजली उत्पादन करने वाली कंपनियों को आदेश दिया है कि वे इस साल अक्टूबर तक अपनी आवश्यकता के दस फीसदी कोयले की आपूर्ति आयातित कोयले से करें। इसके बाद कई राज्यों ने कोयला आयात करने के टेंडर भी जारी कर दिए हैं।
देश में अपनी आवश्यकता की करीब 70 फीसदी बिजली का उत्पादन कोयले से चलने वाले प्लांटों से होता है, लेकिन इस समय ज्यादातर प्लांट कोयले की कमी की वजह से कम उत्पादन कर रहे हैं। देश के कोयले से चलने वाले बिजली प्लांटों के पास पिछले 9 साल में सबसे कम कोयले का भंडार बचा है। देश में पीक आवर में बिजली की मांग इस साल कोरोना महामारी की वजह से दो साल बाद बढ़ी है।
पिछले साल अक्टूबर में भी कोयले की कमी की वजह से बिजली संकट पैदा हुआ था, लेकिन इस बार यह संकट गर्मियों के महीने में पड़ने से ज्यादा गहरा है। इस संकट की बड़ी वजह है कोयले का आयात घटना। इससे आपूर्ति में बड़ी कमी आ गई है। दरअसल रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोयले की कीमत 400 डॉलर प्रति टन के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है। भारत को कोयला मिलता भी है तो वह काफी ऊंचे दाम पर मिलेगा।
देश में कोयले के उत्पादन के अतिरिक्त सालाना करीब 20 करोड़ टन कोयला इंडोनेशिया और ऑस्ट्रेलिया से आयात होता है। लेकिन अक्टूबर 2021 के बाद इन देशों से आयात घटना शुरू हो गया और अब भी इन देशों से आयात पूरी तरह प्रभावित है। इसका नतीजा यह हुआ कि बिजली कंपनियां कोयले के लिए अब पूरी तरह कोल इंडिया पर ही निर्भर हो गईं।
देश के बड़े कोयला आयातकों में एक भाटिया कोल समूह के वाइस चेयरमैन एस.एस.भाटिया कहते हैं कि भले सरकार अब आयात बढ़ाने जा रही हो लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजारों की स्थिति को देखते हुए यह मुश्किल लग रहा है कि भारत को आवश्यकता के अनुसार आयातित कोयला मिल पाएगा।
बिजली संकट की सबसे बड़ी वजह कोयले की ढुलाई न हो पाना है। दरअसल, कोयला कंपनियों से बिजली प्लांट तक कोयला पहुंचाने के लिए रेलवे के पास पर्याप्त कोच नहीं थे। बिजली प्लांट तक कोयला पहुंचाने के लिए जरूरत 469 ट्रेनों की होती है। अप्रैल के पहले दो हफ्ते में कोयला ढोने वाले कोचों की संख्या तो 380 ही थी, जिसे बढ़ाकर अब 415 किया गया है। कोयला ढुलाई में कमी के आरोपों के बीच रेलवे का कहना है कि उसने वित्त वर्ष 2022 में 11.1 करोड़ टन ज्यादा यानी 65.3 करोड़ टन कोयला ढोया।
केंद्र का यह भी आरोप है कि राज्यों ने कोल इंडिया को जरूरत से एक महीने पहले कोयले की मांग ही नहीं भेजी। साथ ही कई राज्यों ने निर्धारित समय पर कोयले का उठाव भी नहीं किया। दरअसल, राज्यों का कोल इंडिया के साथ सालाना करार होता है। इसी के अनुसार हर राज्य को हर महीने कोयले का उठाव करना होता है। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। केंद्र और राज्य आने वाले 3-4 महीनों में कोयले की आवश्यकता का आकलन करने में चूक गए।
जानकारों का यह भी मानना है कि वर्तमान संकट की एक वजह बिजली क्षेत्र से जुड़ी सभी कंपनियों का वित्तीय संकट है। कोयला खनन कंपनियों से लेकर बिजली उत्पादन करने वाले प्लांट और बिजली वितरण करने वाली कंपनियों तक हर कोई बकाया भुगतान नहीं होने से संकट में है। सरकारी कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड देश में कोयले का 80 फीसदी खनन करती है। इस पर बिजली उत्पादन कंपनियों का लगभग 8000 करोड़ रुपये का बकाया है। इसी तरह देश की बिजली वितरण कंपनियों को बिजली पैदा करने वाले प्लांटों को 1.1 लाख करोड़ रुपये से अधिक का भुगतान करना है। दूसरी ओर देश की ज्यादातर वितरण कंपनियां बड़े घाटे में चल रही हैं।
ऊर्जा विशेषज्ञों का मानना है कि यह संकट मुख्य रूप से कोयले की आपूर्ति का संकट है। केंद्र ने इस ओर समय रहते ध्यान नहीं दिया। मध्य प्रदेश बिजली नियामक आयोग के सचिव रह चुके ऊर्जा विशेषज्ञ प्रशांत चतुर्वेदी कहते हैं कि सीईए की ओर से बिजली की मांग के बारे में जो बताया गया था, वास्तविक मांग उसी के करीब है, उसमें कोई बड़ा अंतर नहीं आया है। इससे यह कहना गलत है कि मांग बढ़ने से आपूर्ति संकट हुआ है। बिजली कंपनियां कोयले का आयात करने जा रही हैं। इससे कंपनियां ईंधन लागत के रूप में बिजली महंगी करेंगी। अभी यह भार सात पैसे प्रति यूनिट तक आता है, जो आयातित कोयले की वजह से 60-80 पैसे प्रति यूनिट तक हो जाएगा।
तो, अनोखा है सरकार का तरीका। लापरवाहियों से संकट पैदा होता है तो आयात पर निर्भरता बढ़ाकर लोगों की जेब काटने का इंतजाम कर दो। ऐसे में आत्मनिर्भर भारत नारे का क्या होगा?