दस साल पहले 2 जून, 2014 को जब आंध्र प्रदेश को दो हिस्सों में बांटकर देश का 29वां राज्य तेलंगाना के रूप में जन्मा, तब तमाम छात्र नेताओं, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और उनके समर्थकों की जबान पर एक ही नारा था, ‘गली में बोलो दिल्ली में बोलो, जय तेलंगाना जय तेलंगाना।’ तब पूरा माहौल गुलाबी हो गया था और उस पर सवारी कर रहे थे कल्व कुंतला चंद्रशेखर राव उर्फ केसीआर। तीन पीढ़ियों ने उन्हें ‘तेलंगाना टाइगर’ और ‘तेलंगाना के गांधी’ का खिताब दिया था। लोगों के लिए तेलंगाना राष्ट्र समिति का मतलब था केसीआर गारु। आज दस साल बाद इस पार्टी की आगे की राह मुश्किल नजर आती है क्योंकि पिछले ही साल हुए असेंबली चुनाव में मतदाताओं ने अपने ‘टाइगर’ को सत्ता से बाहर ले जाकर छोड़ दिया है।
केसीआर ने 2001 में अपनी पार्टी टीआरएस बनाई थी (जो अब बीआरएस यानी भारत राष्ट्र समिति है।) अपनी पार्टी बनाने के पीछे उनका उद्देश्य था बंगारु तेलंगाना (स्वर्णिम तेलंगाना) के लिए काम करना, जहां हाशिये के समुदायों की सामाजिक आकांक्षाओं को पूरा किया जा सके। 2004 में टीआरएस ने कांग्रेस नीत यूपीए से हाथ मिलाया, फिर 2009 में भाजपा नीत एनडीए के साथ आ गई। दोनों ही गठबंधनों से उसे कोई चुनावी लाभ नहीं मिला।
इसके बाद पार्टी ने अविवाहित औरतों, विधवाओं और बुजुर्गों के लिए पेंशन, पात्र परिवारों के लिए दो कमरे का मकान और किसानों के लिए बीमा जैसी योजनाओं के सहारे खुद को सामाजिक कल्याण का झंडाबरदार साबित करने की कोशिश की। स्थानीय भावनाओं के सहारे पार्टी ने 2014 और 2018 का असेंबली चुनाव लड़ा। गठबंधन से निकल कर अकेले लड़ने पर पार्टी को और कामयाबी मिली।
मौजूदा मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी
केसीआर और उनकी पार्टी के नेता लगातार लोगों को याद दिलाते रहे हैं कि उन्होंने अपना राज्य दिलवाने के लिए क्या ‘बलिदान’ किए हैं।
विधानसभा चुनाव 2014 में पार्टी को 119 में से 63 सीटें मिली थीं, जिसे 2018 के चुनाव में उसने 88 तक बढ़ा लिया। दोनों बार इसने असदुद्दीन ओवैसी की मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन के साथ मिलकर चुनाव लड़ा, जिसकी हैदराबाद सहित मुस्लिम बहुल जिलों में अच्छी पकड़ है।
भाजपा का प्रवेश
सियासी हालात 2019 के लोकसभा चुनाव में बदले, जो केसीआर की पार्टी का पहला आम चुनाव था। केंद्र की भाजपा नीत एनडीए सरकार का राष्ट्रवादी स्वर केसीआर की क्षेत्रीय भावनाओं पर भारी पड़ गया। भाजपा को चार सीटों पर जीत मिली। 2014 में भाजपा के खाते में केवल एक सीट आई थी। 2018 में भाजपा को 19.5 प्रतिशत वोट मिले। बेशक बीआरएस को सबसे ज्यादा 41.3 प्रतिशत वोट मिले थे, लेकिन तेलंगाना के उत्तरी इलाकों में भाजपा की कामयाबी एक चौंकाने वाली बात थी।
उस साल के चुनाव प्रचार में भाजपा पर निजामाबाद, अदीलाबाद, करीमनगर और सिकंदराबाद में ध्रुवीकरण करने का आरोप लगाया गया। यही वे इलाके हैं, जहां पिछले दशक में सांप्रदायिक घटनाएं सामने आई हैं। इन्हीं इलाकों में भाजपा को अच्छे वोट मिले।
हैदराबाद के एक शोधकर्ता पी. मणिकान्त ने लिखा है कि भाजपा के हक में एक बात जो संभवत: काम कर गई वो यह है कि 2019 के चुनावों के दौरान उसने हिंदू संस्कृति के सामने ‘दूसरों’ द्वारा पैदा हुए खतरे का मुद्दा उठा दिया। जैसे, केसीआर और उनकी पार्टी का चुनाव चिह्न (कार) यदादरी जिले के एक मंदिर के खंबों पर बना दिया गया था, तब भाजपा ने केसीआर के ऊपर हिंदू भावनाओं को आहत करने का आरोप लगा दिया। भाजपा के नेता टी. राजा सिंह ने तब बयान दिया था, ‘‘राजनीतिक प्रचार के लिए मंदिर सही जगह नहीं है। मुख्यमंत्री को तत्काल अपनी और पार्टी की तस्वीर खंबों पर से मिटा देनी चाहिए। वरना हिंदू जानते हैं कि यह काम कैसे करना है।’’
पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने आठ सीटें जीती थीं। उसके पहले उसके पास उत्तरी इलाके की केवल एक सीट थी। राजा सिंह ने भी हैदराबाद के गोशामहल इलाके की अपनी सीट बचा ली थी। उस चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करते हुए राजनीति के जानकार के. नागेश्वर कहते हैं, भाजपा ने उन्हीं इलाकों में बढ़त बनाई, जहां मुसलमानों की आबादी ज्यादा थी, जैसे विशेष रूप से निजामाबाद शहरी की सीट।
वे कहते हैं, ‘‘इन क्षेत्रों में भाजपा की बढ़त साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का सीधा नतीजा जान पड़ती है।’’ यहां ध्यान देने वाली बात है कि भाजपा को, जो भी बढ़त मिली थी, वह बीआरएस की कीमत पर थी।
ढुलमुल विचारधारा
भारतीय जनता पार्टी और उसके कोर एजेंडे के प्रति बीआरएस का वैचारिक पक्ष हमेशा से ढुलमुल और मिश्रित रहा है। उदाहरण के लिए, जब अनुच्छेद 370 के खात्मे जैसे अहम मुद्दों पर संसद में मतदान की बात आई, तो बीआरएस ने भाजपा का समर्थन किया। ठीक उसी वक्त तीन तलाक के मुद्दे पर 2019 में हुए मत विभाजन से बीआरएस दूर रही। तब भाजपा के महासचिव राम माधव ने कहा था, ‘‘कुछ पार्टियां अपनी अनुपस्थिति से बिल के पास होने में मदद करती हैं। जो लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फैसलों का खुलकर समर्थन नहीं कर सकते, वे दूर रह कर ही ऐसा करें।’’
केंद्र सरकार ने 2016 में जब नोटबंदी की थी तब केसीआर ने ‘दिल खोलकर’ उसका समर्थन किया था। उन्होंने तब कहा था कि यह फैसला देश के हित में लिया गया है। छह साल बाद उनके बेटे और पार्टी के उत्तराधिकारी केटी रामाराव ने नोटबंदी को भारी विफलता करार दिया और प्रधानमंत्री से इसके लिए माफी मांगने की बात कह दी।
भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष जी. किशन रेड्डी
इसी तरह बीआरएस ने नागरिकता संशोधन कानून, 2019 का भी विरोध किया था (जो अब पास हो चुका है) और समान आचार संहिता (यूसीसी) के भी खिलाफ थी। सूबे के अल्पसंख्यकों के बीआरएस को पर्याप्त समर्थन से यह बात स्वाभाविक जान पड़ती है। पूर्व मुख्यमंत्री केसीआर ने तब कहा था, ‘‘भाजपा ने यूसीसी बिल के रास्ते विभाजनकारी राजनीति को उकसाकर लोगों को आपस में लड़ाने की साजिश रची है जिससे उसे राजनीतिक लाभ मिल सके।’’
पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस पार्टी ने आरोप लगाया था कि बीआरएस और भाजपा आपस में मिले हुए हैं। चुनाव परिणामों में भाजपा के वोटों में इजाफा भी हुआ। उसके कुछ दिनों बाद केसीआर की पुत्री के. कविता ने राम मंरि पर एक ट्वीट कर दिया जिसने इन आशंकाओं को और बल दिया कि आम चुनावों में भाजपा और बीआरएस शायद मिलकर खेलने वाले हैं। कविता ने लिखा था, ‘‘अच्छा विकास। अयोध्या में श्री सीतारामचंद्र स्वामी की प्रतिमा। इस पावन मौके पर जब करोड़ों हिंदुओं का सपना साकार हो रहा है, इसका स्वागत तेलंगाना के सभी लोगों को करना चाहिए। जय सीताराम।’’ उनके इस बयान को राम मंदिर के मुद्दे पर पार्टी के रुख में बड़ा बदलाव माना गया, खासकर इसलिए भी क्योंकि केसीआर ने 2023 के चुनाव प्रचार में बाबरी मस्जिद के विध्वंस का मुद्दा उठाया था।
हैदराबाद में जमीनी राजनीति को समझने के लिए बने एक समूह पीपुल्स पल्स के रविचंद कहते हैं, ‘‘शुरुआत में केसीआर की मंशा तेलंगाना के स्थानीय गौरव के आधार पर लड़ाई खड़ी करने की थी लेकिन हाल के वर्षों में यह साफ हुआ है कि उनकी महत्वाकांक्षाएं कुछ और हैं।’’ वे याद करते हैं कि केसीआर ने कभी कहा था, ‘‘तेलंगाना के लिए ही सही, मैं माओवादियों और आरएसएस से भी हाथ मिला सकता हूं।’’
राष्ट्रीय आकांक्षाएं
आगामी आम चुनावों से काफी पहले केसीआर ने अपनी क्षेत्रीय पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी बनाने की योजना जाहिर की थी। उनका मिशन था कि अगले चुनावों में एक गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई गठबंधन अस्तित्व में आए और चुनावों के नतीजे तय करने में भूमिका निभाए। इसीलिए उन्होंने 21 साल पुरानी अपनी पार्टी का नाम टीआरएस से बीआरएस कर डाला और महाराष्ट्र, आंध्र सहित दूसरे राज्यों में भी ‘विकास को लाने’ की घोषणा कर दी।
नए कलेवर के साथ पार्टी ने 2023 में खम्मम में एक जनसभा की जिसमें केरल से आए पिनराई विजयन, पंजाब से आए भगवंत मान और दिल्ली से आए अरविंद केजरीवाल मंच पर उनका हाथ थामे दिखाई दिए। उन्होंने साफ तौर पर अपना एजेंडा सबके सामने रख दिया- ‘‘साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण’’ की राजनीति से जंग। केसीआर उस मंच से बोले, ‘‘अगर आपकी (भाजपा की) राजनीति निजीकरण की है, तो हमारी नीति राष्ट्रीककरण की है।’’ अपना भाषण उन्होंने परंपरागत ‘जय तेलंगाना’ की जगह ‘जय भारत’ से खत्म किया। रविचंद पूछते हैं, ‘‘पार्टी अगर अपने ही इलाके में नहीं जीत पाई, तो वह राष्ट्रीय लड़ाई कैसे लड़ सकेगी?”
इस शक्ति के सार्वजनिक प्रदर्शन के एक साल बाद बीआरएस की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं नाकाम हो गई दिखती हैं। इसी साल की शुरुआत में बीआरएस के एक नेता और पूर्व मंत्री कदियाम श्रीहरि ने ईमानदारी से स्वीकार किया कि ‘‘टीआरएस का जन्म तेलंगाना की भावना को लेकर हुआ था और जैसे ही वह बीआरएस में बदली, वह भावना ही गायब हो गई।’’
भाजपानीत एनडीए और कांग्रेसनीत इंडिया धड़े से बराबर दूरी बनाते हुए बीआरएस ने अब बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के साथ हाथ मिलाने का निर्णय लिया है। बसपा तेलंगाना के असेंबली चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत पाई थी और केसीआर की दलित विरोधी नीतियों की मुखर आलोचक रही है। रविचंद कहते हैं कि बीआरएस की सबसे बड़ी चुनौती आगामी आम चुनावों तक खुद को बचा ले जाने की है, ‘‘अगर उसका प्रदर्शन खराब रहा तो पार्टी में टूट हो सकती है। वैसी ही, जैसा शिव सेना के साथ हुआ था।’’