छत्तीसगढ़ के बस्तर में आदिवासियों ने जल, जंगल और जमीन बचाने का संघर्ष तेज किया तो टाटा की विदाई के बाद अब अडाणी समूह की बारी है। बैलाडीला पहाड़ियों में डिपॉजिट संख्या- 13 से लौह अयस्क की खुदाई का ठेका अडाणी समूह ने केंद्र और राज्य सरकार से हासिल तो कर लिया, लेकिन खुदाई से पहले आदिवासियों का आंदोलन आड़े आ गया। बैलाडीला की पहाड़ियों में से एक देवी-देवताओं वाले नंदराज पहाड़ को बचाने के लिए आदिवासी जंगलों में जम गए हैं। भूपेश बघेल सरकार के कदम से आंदोलन की आग तो बुझ गई, लेकिन राख ठंडी होती नहीं दिखती। आंदोलन से केंद्र और राज्य सरकार के सामने कई सवाल खड़े हो गए हैं।
बस्तर के बैलाडीला की पहाड़ियां लगभग 40 किलोमीटर की लंबाई और 10 किलोमीटर की चौड़ाई में फैली हुई हैं। इन पहाड़ियों में लौह अयस्क के 14 डिपॉजिट हैं, जिनमें श्रेष्ठ गुणवत्ता वाले 150 करोड़ टन लौह अयस्क होने का अनुमान है। इन लौह अयस्कों की खासियत यह है कि इनमें समृद्ध लौह तत्व यानी औसत एफई 65 प्रतिशत है, जिसे दुनिया का बेहतरीन लौह अयस्क कहा जाता है। बैलाडीला में सुंदर पहाड़ियों की शृंखला है, जहां प्रचुर मात्रा में लौह खनिज पाया जाता है। पर्वत की सतह बैल के कूबड़ की तरह दिखती है, यही वजह है कि इसे ‘बैलाडीला’ कहा जाता है।
बैलाडीला की 14 में से चार खदानों में पिछले 50 वर्षों से भी अधिक समय से लौह अयस्क की खुदाई हो रही है, जिसका बड़ा हिस्सा जापान को निर्यात किया जाता है। उत्खनन का पूरा काम केंद्र सरकार का उपक्रम एनएमडीसी लिमिटेड करता है, लेकिन समय-समय पर निजी कंपनियां इन लौह खदानों को हथियाने की कोशिश करती रही हैं।
1994-95 में बैलाडीला की 11-बी खदान को लेने के लिए एस्सार स्टील, विक्रम स्टील, सनफ्लेग और मुकुंद आयरन जैसी कई कंपनियों ने कोशिश की थी। इसके अलावा मित्तल ब्रदर्स की निप्पन डेनरो का नाम भी इस खदान से जुड़ा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री के उद्योगपति पुत्र की दिलचस्पी भी 11-बी खदान में थी। संसद में विपक्षी पार्टियों की घेराबंदी से मामला आगे नहीं बढ़ पाया। राज्य बनने के बाद 2008 में एनएमडीसी और छत्तीसगढ़ खनिज विकास निगम यानी सीएमडीसी ने मिलकर लौह अयस्क की खुदाई के लिए एनसीएल नामक कंपनी बनाई।
बैलाडीला की खदानों में एक डिपॉजिट-13 के लौह उत्खनन का प्रस्ताव 2011 में केंद्र सरकार की फॉरेस्ट एडवाइजरी कमेटी को भेजा गया। इस डिपॉजिट में 35 करोड़ टन लौह अयस्क का भंडार होने का अनुमान है। फॉरेस्ट एडवाइजरी कमेटी ने उच्च जैव विविधता और पूरा वन क्षेत्र होने के कारण पहाड़ में खनन की मंजूरी देने से इनकार करते हुए 26 अगस्त 2011 को प्रस्ताव खारिज कर दिया। छत्तीसगढ़ सरकार ने खदान की खुदाई के लिए 5 जून 2013 को नए सिरे से प्रस्ताव फॉरेस्ट एडवाइजरी कमेटी को भेजा, लेकिन मामला लंबित रहा।
आखिर केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद 12 नवंबर 2014 को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने एनएमडीसी को पहले चरण में 315.813 हेक्टेयर क्षेत्र में खनन की अनुमति दे दी। फिर 9 जनवरी 2017 को दूसरे चरण की अनुमति भी एनएमडीसी को दे दी गई। खनन की अनुमति के बाद हिरोली गांव में ग्रामसभा भी कराई गई, जिसे अब फर्जी करार दिया जा रहा है। खनन की अनुमति मिलने के बाद एनएमडीसी ने खुदाई ठेका देने के लिए टेंडर आमंत्रित किया, जिसमें काम अडाणी समूह को मिल गया। एनएमडीसी ने एमडीओ यानी माइन डेवलपर कम ऑपरेटर के बतौर इस खदान को अडाणी इंटरप्राइजेज को सौंप दिया।
बस्तर के पत्रकार संतोष सिंह कहते हैं, “अडाणी समूह को खुदाई ठेका मिलने से लोगों को लगने लगा कि सरकार ने पिछले दरवाजे से एनएमडीसी का निजीकरण शुरू कर दिया है। यहीं से विवाद बढ़ने लगा।” कर्मचारी संगठन और कांग्रेस खुले तौर से इसका विरोध करने लगे। संयुक्त पंचायत जन संघर्ष समिति के मंगल कुंजाम कहते हैं, “इस खदान के लिए अनुमति लेने की जो प्रक्रिया अपनाई गई, वह पूरी तरह से फर्जी है। बस्तर पांचवीं अनुसूची का क्षेत्र है। पांचवीं अनुसूची के क्षेत्र में पंचायत एक्सटेंशन इन शेड्यूल एरिया एक्ट लागू है। इस इलाके में ग्रामसभा को सर्वोच्च अधिकार दिए गए हैं, लेकिन फर्जी ग्रामसभा के आधार पर सारी अनुमति दे दी गई।”
जिस इलाके में ये खदान हैं, उस ग्राम पंचायत हिरोली में ऐसी कोई ग्रामसभा ही नहीं हुई। कुंजाम का कहना है कि दंतेवाड़ा, सुकमा और बीजापुर जिलों के हजारों आदिवासियों के देवताओं का स्थान नंदराज पर्वत है। उनका कहना है, “हमारा मुद्दा अडाणी या एनएमडीसी से जुड़ा नहीं है। हम नंदराज पर्वत की खुदाई के सख्त खिलाफ हैं।” पूर्व विधायक मनीष कुंजाम का कहना है कि इस खदान को देने के लिए केंद्र और राज्य सरकार ने सारे नियम-कानून ताक पर रख दिए। ग्रामसभा की भूमिका ही खत्म कर दी गई। अडाणी को खदान सौंपने के लिए सरकार ने आदिवासी हितों को किनारे कर दिया।
एनसीएल के मुख्य कार्यपालक अधिकारी वी.एस. प्रभाकर का कहना है कि खनन पट्टा अडाणी या किसी अन्य को कभी भी स्थानांतरित नहीं किया जाएगा। इस परियोजना के अधीन वांछित भूमि का अधिग्रहण ज्वाइंट वेंचर कंपनी के नाम पर ही किया जाएगा। डिपॉजिट-13 से उत्पादित लौह अयस्क की बिक्री का अधिकार एनसीएल के पास होगा। अडाणी समूह का कहना है, “वह एक अनुभवी और जिम्मेदार खनन कॉन्ट्रैक्टर के रूप में सहयोग करता है। अडाणी समूह ‘ग्रोथ विद गुडनेस’ में प्रबल विश्वास रखता है।”
उधर, पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी का आरोप है कि सरकार में आने के पहले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा था कि हम अडाणी को किसी भी सूरत में खदान नहीं देने देंगे, लेकिन सरकार में आने के पांच महीने बाद उसी अडाणी को उन्होंने खदानें सौंप दी हैं। लेकिन कांग्रेस के प्रवक्ता शैलेष नितिन त्रिवेदी का कहना है कि सारा कुछ भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में हुआ, कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराना गलत है। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रमन सिंह का कहना है, “अगर इस खदान से आपत्ति थी और इतना विरोध था तो इस साल अप्रैल में इसका कंसेंट टु ऑपरेट रोक देते। बघेल सरकार के पर्यावरण मंत्री ने इस साल अप्रैल में सहमति दी। अब नाटक का कोई मतलब नहीं है।”
आंदोलन के बाद बघेल की सरकार ने ग्रामसभा निरस्त करके कई कदम उठाए हैं, ताकि उसे राजनैतिक फायदा मिल सके। लेकिन इस आंदोलन के बहाने अजीत जोगी को राजनैतिक जीवन दान मिल गया दिखता है। खदान से सटे गांवों में नक्सलियों का जबरदस्त प्रभाव बताया जाता है। खुदाई के खिलाफ आदिवासियों को घरों से निकालने में नक्सलियों का हाथ भी बताया जा रहा है।
वादे के मुताबिक सरकार ने नए सिरे से ग्रामसभा की प्रक्रिया शुरू कर दी है और आदिवासी अपने घर चले गए हैं, लेकिन बस्तर का भविष्य कैसा होगा? यह भी सवाल खड़ा किया जाने लगा है। आदिवासियों की आड़ लेकर नक्सली पैर जमाए रखेंगे या फिर सरकार सख्त और पारदर्शी रुख अपनाकर आदिवासियों को मुख्यधारा में जोड़कर उनका विकास करेगी। कहा जा रहा है कि एनएमडीसी की जगह निजी ठेकेदार से उत्खनन से लागत कम आएगी और केंद्र तथा राज्य सरकार को ज्यादा राजस्व मिलेगा। अब सब कुछ बघेल सरकार के रुख पर निर्भर करेगा। खनन से कई लोगों के हित जुड़े हैं। ऐसे में यहां की सरकार के लिए राह इतनी आसान भी नहीं होगी।