एक रेस्तरां में बातूनी नागेश अपने दफ्तर में काम करने वाली प्रभा पर रौब गांठने का पूरा इंतजाम किए रहता है। प्रभा को पसंद करने वाला अरुण इस दृश्य में दब-सा जाता है। नागेश का आत्मविश्वास देखने लायक होता है, जब वह ‘चिकन आलापूज’ नाम की डिश ऑर्डर करता है। यह बातूनी नागेश (असरानी) संजीदा कलाकार (अमोल पालेकर) पर भारी पड़ता है। वह फिल्म थी, बासु चटर्जी की छोटी सी बात (1975)। इसी साल आई गुलजार की फिल्म खुशबू में वे हेमा मालिनी के बड़े भाई कुंज की भूमिका में थे। लेकिन किस्मत उन्हें किसी और ही फिल्म से बुलंदी पर पहुंचाना चाहती थी। 1975 में ही शोले आई और ‘अंग्रेजों के जमाने के जेलर’ नागेश और कुंज से कहीं आगे निकल गए।
जयपुर में जन्मे गोवर्धन असरानी का परिवार बंटवारे के बाद सिंध से जयपुर आ बसा। पिता जी की दुकान चलाने का सलीका उनके पास नहीं था लेकिन उनमें एक अलग तरह का सलीका था, हंसने और हंसाने का जो आगे चलकर उनके लिए सफलता का रास्ता बन गया। भारतीय सिनेमा के इतिहास में असरानी सिर्फ कॉमेडियन नहीं, बल्कि अभिनय के सहारे अपने किरदार की बारीकी पकड़ने में माहिर थे। वे हंसी को शालीनता के साथ पेश करने वाले चुनिंदा कलाकारों में थे। उनके चेहरे पर गंभीरता और व्यंग्य का संतुलन झलकता था। असरानी ने सिखाया कि कॉमेडी केवल चुटकुलेबाजी नहीं है, बल्कि मानवीय व्यवहार की सूक्ष्म परत है, जो दर्शकों को दिखाई पड़नी चाहिए।
उनकी अदायगी की सादगी ही थी, जिससे लगता था कि वे अभिनय नहीं कर रहे, बल्कि हंसते-हंसते कुछ समझा रहे हैं। फूहड़ता से वे हमेशा दूर रहे।
शोले के जेलर के रूप में उनका किरदार भले छोटा था, पर ‘‘हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं” कहने का उनका अंदाज सिनेमा के इतिहास में अमर हो गया। उनकी वर्दी, मूंछें, और अनुशासन के नाम पर किया गया हास्यास्पद नाटक, सब भारतीय सिनेमा की यादों में स्थायी ठिकाना बना चुका है। अभिमान, गोलमाल, पति पत्नी और वो जैसी फिल्मों में असरानी हर बार नया रंग ले कर आए। वे कभी दोस्त बने, कभी दफ्तर के सहकर्मी, लेकिन उनकी उपस्थिति फिल्म को हमेशा जीवंत बना देती थी।
उनकी कॉमेडी में ‘कॉमन मैन’ दिखाई पड़ता था। वे किसी पर हंसते नहीं थे बल्कि संवाद से वे एक अलग तरह के हास्य से परिचित कराते थे। उनकी अदाकारी में मंचीय अनुशासन था और सिनेमा की सहजता दोनों थी। हीरो के दोस्त होने के बावजूद उनकी अलग पहचान थी। फिर कहीं न कहीं उनके मन में दबी इच्छा हीरो बनने की थी। इसलिए उन्होंने 1977 में एक फिल्म का निर्देशन किया था और खुद नायक की भूमिका निभाई। चला मुरारी हीरो बनने चली नहीं लेकिन इस फिल्म के माध्यम से ही सही, उन्होंने हीरो बनने का सुख ले ही लिया।