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20 जनवरी 2025 · JAN 20 , 2025

स्मृतिः नई लीक के सूत्रधार

एक उदार प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंहः 26 सितंबर 1932 - 26 दिसंबर 2024

इतिहास मेरे काम का मूल्यांकन उदारता से करेगा। बतौर प्रधानमंत्री अपनी आखिरी सालाना प्रेस कॉन्‍फ्रेंस (3 जनवरी, 2014) में मनमोहन सिंह का वह एकदम शांत-सा जवाब बे‍हद मुखर था। वे इतिहास के ऐसे मोड़ पर बतौर वित्‍त मंत्री एक सूत्रधार की तरह आए थे, जिसने पिछली सदी के आखिरी दशक में देश की पटरी बदल दी, आजादी के बाद से जारी कल्‍याणकारी राज्‍य व्‍यवस्‍था को उदारवाद की नई अवधारणा से बाजारोन्‍मुख अर्थव्‍यवस्‍था की ओर मोड़ दिया। उसे उदारीकरण और आर्थिक सुधार कहा गया। लाइसेंस-कोटा-परमिट राज के खात्‍मे से आधुनिक बाजार की पहुंच देश के व्‍यापक हिस्‍से में हुई। मध्‍यवर्ग का आकार बड़ा हुआ। देश की सकल घरेलू उत्‍पाद (जीडीपी) की विकास दर ऊपर उठने लगी, हालांकि उसके दूसरे पहलू भी बढ़ती महंगाई और व्‍यापक कृषि संकट के रूप में आए। कुछ इसी संकट के गहरा होने से 2004 में जब वे बतौर प्रधानमंत्री लौटे, तो उनकी संयुक्‍त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार को जन अधिकार आधारित कल्‍याणकारी उपायों, योजनाओं की ओर लौटना पड़ा। यूपीए सरकार के दौर में जीडीपी 8.5-9 प्रतिशत की दर से बढ़ी और तकरीबन 22 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठने का मौका मिला। तो, मनमोहन सिंह के दो बड़े योगदान इतिहास यकीनन दर्ज करेगा: मध्‍यवर्ग का विस्‍तार और जन अधिकार आधारित कल्‍याणकारी योजनाएं। उनका एक और योगदान शायद अर्थव्‍यवस्‍था को राजनीति से मुक्‍त करने की कोशिश कहा जा सकता है।

हालांकि इसके राजनैतिक अक्‍स गहरे हैं। मनमोहन सिंह के इस मुकाम तक पहुंचने की राह भी कोई सीधी और आसान नहीं रही है। उन्‍हें यह मौका कुछ दुविधा और संशय के साथ मिला था। बेशक, वह एक गहरे आर्थिक संकट के दौर के एक तरह के समाधान के तौर पर और अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) की शर्तों के साथ आया था, जिसे पूर्ववर्ती अल्‍पकालिक चंद्रशेखर सरकार ने मानने से इनकार कर दिया था। उसके बाद आए कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिंह राव अर्थव्‍यवस्‍था की पटरी बदलने के हिमायती थे। मनमोहन सिंह ने संजय बारू की किताब एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्‍टर के जिक्र पर एक भाषण में कहा भी, ‘‘मैं तो एक्सिडेंटल फाइनांस मिनिस्‍टर भी था।’’ किस्‍सा जगजाहिर है कि कैसे वरिष्‍ठ नौकरशाह पी.सी. एलेक्‍जेंडर की राय पर मनमोहन सिंह को बुलाया गया।

मनमोहन सिं‍ह ने 1991 में अपने पहले बजट भाषण में विक्‍टर ह्यूगो को उद्धृत किया, ‘‘जिस विचार का वक्‍त आ जाए, उसे रोका नहीं जा सकता।’’ शायद वे व्‍यापक राजनैतिक विरोध को ही संबोधित कर रहे थे। तब कांग्रेस और नरसिंह राव मंत्रिमंडल में भी यह विरोध बहुमत में था। उन्‍होंने खुद इसका जिक्र किया है, ‘‘जब आयात बिल के लिए मुद्रा भंडार महज दो हफ्ते का था तो हमने रुपये के अवमूल्‍यन का फैसला किया,लेकिन हम जानते थे कि कैबिनेट में यह पास नहीं हो पाएगा। तब मेरे आग्रह पर प्रधानमंत्री ने बिना कैबिनेट की मंजूरी के इजाजत दे दी। इसी तरह लाइसेंस राज के खात्‍मे वाले सवाल पर काफी दुविधा थी, लेकिन मैंने राजीव गांधी के चुनावी घोषणा-पत्र और नई आर्थिक नीति का जिक्र किया तो मामला आगे बढ़ा।’’

दरअसल, राजीव गांधी के कार्यकाल में ही अर्थव्‍यवस्‍था खोलने और बाजारोन्‍मुख करने की पेशकश हो चुकी थी। लेकिन नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने उदारीकरण के तहत खासकर कृषि से जुड़ी सब्सिडी हटाने, उद्योगों के मद में रियायतें बढ़ाने, बाजार को खुलकर खेलने देने, खनिज भंडार को निजी क्षेत्र के लिए खोलने के फैसले किए तो महंगाई, बेरोजगारी, विस्‍थापन के मुद्दे ठाठें मारने लगे। नरसिंह सरकार के आखिरी वर्षों में सुधारों के मानवीय चेहरे की बात उठने लगी। असर यह हुआ कि 1996 में कांग्रेस बुरी तरह हार गई। उसके कुछ समय बाद आई अटल बिहारी सरकार ने आर्थिक सुधारों का ट्रैक-2 शुरू किया। उसने निजीकरण की गति बढ़ा दी, विनिवेश का मंत्रालय ही बना दिया और पहली दफा शिक्षा के निजीकरण के लिए उद्योगपतियों की अंबानी-बिड़ला समिति का गठन किया। 2004 में भाजपा सत्‍ता गंवा बैठी।

यूपीए की सरकार बनी तो उसमें वाम झुकाव वाले लोगों का समर्थन था और कांग्रेस नेतृत्‍व को भी कड़े आर्थिक सुधारों के नकारात्‍मक पहलू का शायद एहसास था। सो, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मध्‍य मार्ग की तरह आर्थिक सुधारों की ओर कदम बढ़ाया। कांग्रेस अध्‍यक्ष सोनिया गांधी की राष्‍ट्रीय सलाहकार परिषद से भी नीतियों को शक्‍ल देने में मदद मिली। इससे महात्‍मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा), शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, वन अधिकार, जमीन अधिग्रहण संशोधन, खाद्य सुरक्षा जैसे कानून बने। किसानों की 72,000 करोड़ रुपये की कर्ज माफी और फसलों के न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य में भी रिकॉर्ड बढ़ोतरी की गई। इन्‍हीं और असंगठित क्षेत्र को मजबूती देने से भारत में 2008 की वैश्विक मंदी का असर उतना व्‍यापक नहीं हुआ।

हालांकि मनमोहन सिंह अमेरिका से परमाणु समझौते के जरिये अपनी पक्षधारिता स्‍पष्‍ट कर चुके थे। उनके दौर में भारत के खरबपतियों की सूची बढ़ती गई। उनकी सरकार पर उद्योगपतियों के हमदर्द होने के आरोप भी लगे। यूपीए-2 के दौर में कई तरह के भ्रष्‍टाचार के आरोप लगे, जिसने तत्‍कालीन सीएजी विनोद राय की संभावित घाटे की गणनाओं से ज्‍यादा जोर पकड़ा। अलबत्‍ता विनोद राय ने बाद में माना कि उन गणनाओं से किसी निष्‍कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। भ्रष्‍टाचार और लोकपाल को लेकर अन्‍ना आंदोलन हुआ, लेकिन मनमोहन सिंह का दामन बेदाग रहा।

उन पर मौनी बाबा बने रहने के आरोप लगे। मोटे आंकड़े के हिसाब से उन्‍होंने करीब 117 प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में पत्रकारों के तीखे और बेखौफ सवालों का जवाब दिया, जो आज के दौर में सपना लगता है। सालाना प्रेस कॉन्‍फ्रेंस करने और विदेश दौरों पर पत्रकारों को साथ ले जाने तथा उनके सवालों का जवाब देने की परंपरा अब बीते जमाने की बात हो गई है। कई संदर्भ हैं कि वे आलोचनाओं पर गौर करने, जानने-समझने को तत्‍पर रहते थे।

पाकिस्‍तान के गाह गांव में 26 सितंबर 1932 को जन्‍मे मनमोहन सिंह का परिवार 1947 में इस पार आ गया। ऑक्‍सफोर्ड विश्‍वविद्यालय से पढ़ाई और संयुक्‍त राष्‍ट्र में काम के बाद वे आए तो कई पदों पर रहे। राजनीति से उनका रिश्‍ता सहज नहीं हो पाया। वे हमेशा राज्‍यसभा में रहे। 2004 में दक्षिण दिल्‍ली से चुनाव लड़ने की उनकी कोशिश कामयाब नहीं हो पाई। अर्थव्‍यवस्‍था पर उनकी पकड़ की मिसाल है कि मोदी सरकार की 2016 में नोटबंदी के बाद जीडीपी में 2 प्रतिशत की गिरावट की उनकी भविष्‍यवाणी सही साबित हुई। इतिहास उन्‍हें जिस रूप में याद करे, मगर उन्‍हें भुलाया नहीं जा सकेगा।

 

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