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स्मृति: लोकतंत्र का पहरुआ

जगदीप छोकर दरबार के आदमी नहीं थे।
जगदीप छोकर (1944–2025)

जगदीप छोकर नहीं रहे, खबर चुपचाप गुजर नहीं जाती, थरथराती हुई, संग चलती है। एक आदमी की मौत और जुनून की मौत में फर्क होता है न! जगदीप छोकर की मौत ऐसे ही जुनून की मौत है। उन्होंने दिलोजान से लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली के संरक्षण और सुधार के उपाय सोचे व किए।

नाम और काम की विरूपता को लेकर काका हाथरसी ने कई हास्य कविताएं लिखी थीं। लेकिन ऐसा उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि एक ही नाम के दो व्यक्ति विरूपित भूमिकाओं में हो सकते हैं। मैं ऐसी तुलना कभी सोचता लेकिन लापता लेडीज वाले अंदाज में पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ 53 दिनों बाद जिस रोज प्रकट हुए, उसी रोज जगदीप छोकर विदा हुए। तब ख्याल आया कि एक ही नाम के दो व्यक्तिओं में कितना गहरा फर्क है। जगदीप छोकर ने जाते-जाते भी जैसे रीढ़विहीन सत्ता-पिपासा के खिलाफ अपना बयान दर्ज करा दिया।

जगदीप छोकर दरबार के आदमी नहीं थे। कभी अहमदाबाद के आइआइएम में प्रोफेसर रहे छोकर साहब ने वहां से निवृत्ति के बाद कुछ सहमना लोगों के साथ जुड़कर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म या एडीआर नाम का संगठन बनाया और उसी के होकर रह गए। संसदीय लोकतंत्र में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की अपनी जगह होती है। ऐसी जगह जो न बदली जा सकती है, न चुराई जा सकती है, न छीनी जा सकती है, न उसे किसी की जेब में छोड़ा जा सकता है। ऐसा कुछ भी हुआ तो संभव है कि लोकतंत्र का तंत्र बना रहे लेकिन उसकी आत्मा दम तोड़ देती है। यह बुनियादी बात है। (उनके और एडीआर के प्रयासों से ही चुनाव में उम्मीदवार संपत्ति से लेकर मुकदमों की जानकारी देते हैं, हर उम्मीदवार और पार्टी चुनावी खर्चे का हिसाब देने को मजबूर है। एडीआर के जरिए ही हम जानते हैं कि हमारी संसद और विधानसभाओं में कितने आपराधिक मुकदमों वाले हैं। एडीआर ने ही बिहार के विशेष सघन पुनरीक्षण को चुनौती दी)।

जब देश में संसदीय लोकतंत्र आया-ही-आया था, संसदीय प्रणाली से अपने स्तर पर एक किस्म की अरुचि रखने वाले गांधी भी चुनाव की इस भूमिका को समझ रहे थे और इसे लेकर सावधान भी थे। वे अलग-अलग शब्दों में यह बात कहते रहे कि चुनाव की मजबूत निगरानी जरूरी होगी, क्योंकि यहीं से लोकतंत्र को धोखा देने का प्रारंभ हो सकता है। इसलिए गोली खाने से पहले वाली रात, अपने जीवन का आखिरी दस्तावेज उन्होंने लिखा ताकि कांग्रेस उस पर विचार करे। उसमें दूसरी कई सारी बातों के साथ-साथ यह भी दर्ज किया कि मतदाता सूची में नाम जोड़ने-काटने-हटाने का काम विकेंद्रित हो और ग्राम-स्तर पर लोकसेवकों द्वारा किया जाए। चुनाव आयोग जैसे भारी-भरकम सफेद हाथी को पालने की बात उन्हें कभी रास नहीं आई। गांधी को दरअसल गोली मारी ही इसलिए गई कि वे लगातार खतरनाक विकल्पों की तरफ देश को ले जाने में लगे थे।

आजादी के बाद और गांधी के बाद लोकतंत्र के संवर्धन की तरफ सबसे ज्यादा ध्यान किसी ने दिया और काम किया, तो वे जयप्रकाश नारायण थे। देश मन ही मन उन्हें जवाहरलाल का विकल्प मानता था। लेकिन चुनाव में पराजय के बाद, उनके ऐसे प्रयासों को पराजित विपक्ष का रुदन भी माना गया। आजादी के बाद वे जयप्रकाश ही थे जिन्होंने चुनाव सुधार के लिए समिति का गठन किया। यह भी लोकतंत्र के संदर्भ में नया प्रयोग था कि केवल सरकारी नहीं, नागरिक समितियां भी बनाई जाएं, जांच आयोग गठित किए जाएं। जब हम गुलाम थे, तब भी गांधी की पहल से जालियांवाला बाग हत्याकांड की जांच के लिए नागरिक समिति बनी थी, जिसके गांधी भी सदस्य थे। जयप्रकाश ने ऐसे अनेक आयोग का गठन किया, प्रशासनिक सुधार पर भी, शिक्षा-व्यवस्था पर भी। बाद में तो लोकतंत्र का सवाल उन्होंने इतना अहम बना दिया कि संपूर्ण क्रांति का पूरा आंदोलन और दर्शन खड़ा कर दिया।

कई मौकों पर इस तरह की बात छोकर साहब से हुई। चुनाव प्रणाली का केंद्रीकरण बना रहे और सत्ता उसका दुरुपयोग न करे, यह सोचना नादानी है और फलहीन भी। वे दो-एक बार मुझसे उलझे भी फिर यह कह कर बात खत्म की कि मैं नया कुछ बनाने जैसी बात कहने की योग्यता नहीं रखता और मेरी कोशिश जो चल रहा है, उसमें पैबंद लगाने की है।

यह दर्जीगिरी भी खासे महत्व की है। संसदीय लोकतंत्र को बनाने का काम जितना चुनौतीपूर्ण है, उतना ही चुनौतीपूर्ण है उसे लोकतांत्रिक बनाए रखने का काम। सत्ता को उतना ही लोकतंत्र चाहिए होता है, जितने से उसकी सत्ता सुचारू चलती रहे। लोकतंत्र चाहने वालों को विकासशील लोकतंत्र से कम कुछ नहीं पचता। लोकतंत्र का आसमान लगातार बड़ा करते चलने की जरूरत है, क्योंकि जो नागरिक के पक्ष में विकसित न हो, वह लोकतंत्र नहीं है। जगदीप छोकर ऐसे विकासशील लोकतंत्र के सिपाही थे। वे अब नहीं रहे। लोकतंत्र रहा क्या? लोकतंत्र रहेगा क्या? यह सवाल और चुनौती हमें सौंप कर छोकर साहब जहां गए हैं, वहां भी वे लोकतंत्र की लड़ाई लड़ते ही मिलेंगे।

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