अस्सी के दशक में छोटी जेब के साथ ग्राहक पूरी तरह ठोक बजाकर ही सामान खरीदता था। जिसका नाम चल गया, बरसों बरस वही आता रहता था। तब लोग विज्ञापन नहीं, इस्तेमाल करने वाले खरीदार पर ज्यादा भरोसा करते थे। फिर आए, बड़ी-बड़ी, घनी मूंछों वाले पीयूष पांडे और उन्होंने इस पूरे ‘भाव’ को ही बदल दिया।
पीयूष पांडे भारत में विज्ञापन क्रांति ले आए और पूरे देश की भाषा, उसकी स्मृति और और सामान खरीदने का पूरा नजरिया ही बदल दिया। दादाजी के जमाने से चले आ रहे सामान धीरे-धीरे विज्ञापन में दिखाई देने वाले सामान में कब तब्दील हो गए, पता ही नहीं चला। प्रिया स्कूटर की नींव, ‘बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर’ के कारण कमजोर पड़ गई। बजाज मेरा नहीं, ‘हमारा’ हो गया। स्थानीय हलवाई की मिठाई, ‘कुछ मीठा हो जाए’ में बदल कर जिंदगी में कुछ खास हो गई। ‘दो बूंद जिंदगी की’ से लेकर ‘अबकी बार मोदी सरकार’ तक लिखने वाले पीयूष पांडे अपनी जन्मस्थली राजस्थान को कभी नहीं भूले। उन्होंने जब पहली बार फेविकोल का विज्ञापन, रंगीले राजस्थान का दृश्य उसमें जीवंत होकर उतर आया था। रंग-बिरंगे पगड़ी पहने पुरुष, बस पर लटके उबड़-खाबड़ रास्ते पर सफर कर रहे हैं। कोई भी इसमें गिरता नहीं क्योंकि बस के पीछे फेविकोल का विज्ञापन है।
बिना किसी संवाद के इस विज्ञापन ने उस वर्ग को भी मुस्कराने पर मजबूर कर दिया, जो तब फेविकोल के बजाय हरी बोतल का चिपचिपा सा गोंद इस्तेमाल करता था। पहले फेविकोल सुतारों का पसंदीदा उत्पाद बना और अब सोफेस्टिकेटेड सफेद छोटी-बड़ी बोतल में कब देसी गोंद का विकल्प बन गया है किसी को पता नहीं चला।
जयपुर में जन्मे पीयूष भारत की आत्मा को पहचानते थे। यही वजह थी कि वे मिले-सुर मेरा तुम्हारा की रचना कर पाए। टीवी पर जब यह पहली बार दिखाया गया, तब से हर कोई उसका मुरीद हो गया। पंडित भीमसेन जोशी ने उनसे एक बार कहा, ‘‘आपने मुझे आम जनता के बीच पहुंचा दिया।’’
1982 में ओगिल्वी एंड माथेर (अब ओगिल्वी इंडिया) के साथ शुरुआत करने वाले पीयूष अकाउंट्स विभाग में गए थे। लेकिन उनकी चुटीली बातें, हिंदी पर अधिकार और वन लाइनर की उनकी काबिलियत ने उन्हें क्रिएटिव टीम का हिस्सा बना दिया। उसके बाद भारत में विज्ञापन की दुनिया ही बदल गई।
विज्ञापन में उनका स्वदेशी अंदाज लोगों को पसंद आने लगा और वे एड गुरु बन गए। हिंदी को तवज्जो मिलने लगी और गांव-देहात-शहर की झलक और बोली, आम आदमी की सोच सब एक फ्रेम में आ गए। उन्होंने दिखा दिया कि ब्रांड तभी जीवित होता है, जब उसकी भाषा हमारी भाषा के करीब हो।